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Tuesday, November 30, 2021

माटी की खुशबू

फसल चक्र के संग एक अलग खुशबू भी साथ- साथ चलती है. हाँ, यह अलग बात है कि बहुतों के लिए यह खुशबू नहीं बल्कि गंध है.

बचपन की स्मृति में चापाकल के पास जमने वाली कजली भी है, हरे रंग की, जिस पर गलती से भी पाँव गया तो फिसल जाना तय है. उसी स्मृति के आसपास जूट (पटसन) की खेती भी है. जूट के फसल को काटकर पानी में कुछ दिन रखा जाना और फिर उससे पाट निकाल कर दुआर पर जब उसे सूखाने के लिए लाया जाता था तो उसकी एक अलग महक हुआ करती थी. घर दुआर उस महक से सरोबार हो जाया करता था. जूट के संग संठी भी आती थी. बच्चे उससे खेल के सामान बनाया करते थे.

ऐसी महक धान से चावल बनाने के दौरान भी आंगन में आया करती थी. बड़े चूल्हे पर धान को बर्तन में उबाला जाना फिर उससे उसना चावल बनाया जाना. स्मृति में ऐसी कई खुशबू है. नाक के साथ ये सब मन में भी बैठा हुआ है. जब भी फणीश्वर नाथ रेणु की यह वाणी सुनता हूँ - 'आवरण देबे पटुआ, पेट भरण देबे धान, पूर्णिया के बसैया रहे चदरवा तान...' तो नाक में अचनाक धान और पटुआ की खुशबू पहुंच जाती है! 

ऐसी ही एक सुगंध मूंग की खेती से भी जुड़ी है. मूंग के फसल की तैयारी के बाद जब उसे धूप में सुखाया जाता था और फिर जब उससे दाल बनाने का आयोजन होता था, उस वक्त की याद से भी एक ठोस सुगंध जुड़ा है. मूंग को आँच पर गरम करना फिर उसे जाँत में डालकर दाल बनाने के दौरान एक जादुई गंध नाक में बैठ जाती थी.

स्मृति में माटी की ऐसी कई खुशबू है, जिसे समेटकर हम गाम - घर करते रहते हैं. ऐसी स्मृतियों को लिखने से अधिक जीने की जरूरत है.

Saturday, December 15, 2018

गाम-घर और खेत -खलिहान

घंटों चुपचाप बैठना और फिर खेत तक टहलना, इन दिनों आदत सी बन गई है।गाछ-वृक्ष का जीवन देख रहा हूं, तालाब में छोटी मछलियों का जीवन समझ रहा हूं। तमाम व्यस्तताओं के बीच ख़ुद को कुछ दिन अकेला छोड़ देना, कभी कभी रास आने लगता है।

नीम का पौधा अब किशोर हो चला है। दो साल में उसकी लम्बाई और हरियाली, दोनों ही आकर्षित करने लगी है। इन्हें देखकर लगता है कि समय कितनी तेज़ी से गुज़र रहा है। लोगबाग से दूर गाछ-वृक्ष  के बीच जीवन का गणित आसान लगने लगता है।

कुछ काम जब अचानक छूट जाता है और दुनिया का अर्थशास्त्र जब ज़बरन आप पर धौंस ज़माने लगता है, उस वक़्त आत्मालाप की ज़रूरत महसूस होती है।

अहाते के आगे कदंब के पेड़ बारिश इस मौसम में और भी सुंदर दिखने लगे हैं। पंक्तिबद्ध इन कदंब के पेड़ को देखकर लगता है जीवन में एकांत कुछ भी नहीं होता है, जीवन सामूहिकता का पाठ पढ़ाती है।

पेड़-पौधों से घिरे अपने गाम-घर में जीवन स्थिर लगता है। पिछले कुछ दिनों से एक साथ कई मोर्चे पर अलग अलग काम करते हुए जब मन के तार उलझने लगे थे तब लगा कि जीवन को गाछ-वृक्ष की नज़र से देखा जाए। बाबूजी ने जो खेती-बाड़ी दी, उस पर काकाजी ने हरियाली की दुनिया हम लोगों के लिए रच दी,  अब जब सब पौधे वृक्ष हो चले हैं तो उसकी हरियाली हमें बहुत कुछ सीखा रही है।

खेत घूमकर लौट आया हूं, साँझ होने चला है, पाँव धूल से रंगा है। अपने ही क़दम से माटी की ख़ुश्बू आ रही है। पाँव को पानी से साफ़कर बरामदे में दाख़िल होता हूं, फिर एक़बार आगे देखना लगता हूं। हल्की हवा चलती है, नीम का किशोरवय पौधा थिरक रहा है। यही जीवन है, बस आगे देखते रहना है।

Tuesday, October 04, 2016

किसान की डायरी से सुखदेव की कहानी

बहुत धूप है। अक्टूबर में इतनी तेज़ धूप! विश्वास नहीं होता। सुखदेव कहता है - ' दो-तीन बरख पहले तक दुर्गा पूजा के वक़्त हल्की ठंड आ जाती थी। आलू के बीज बो दिए जाते थे लेकिन इस बार, हे भगवान! ई धूप खेत पथार को जलाकर रख देगा, उस पर हथिया नक्षत्र। बरखा भी ख़ूब हुई है। अभी तो बांकी ही है बरखा।  मौसम का पहिया बदल गया है बाबू। तुमने देखा ही कहाँ है उस मौसम को..."

मैं आज सुखदेव को लगातार सुनने बैठा हूं। स्टील की ग्लास में चाय लिए सुखदेव कहता है- " चाह जो है न बाबू, ऊ स्टील के गिलास में ही पीने की चीज़ है। हमको कप में चाह सुरका नै जाता है। कप का हेंडल पकड़ते ही अजीब अजीब होने लगता है। लगता है मानो किसी का कान पकड़ लिए हैं:)  वैसे आपको पता है कि पहले पुरेनिया के डाक्टर बाबू भट्टाचार्यजी मरीज के पूरजा पे लिख देते थे- भोर और साँझ चाह पीना है, कम्पलसरी! अब तो बाल बच्चा सब चाह पिबे नै करता है।आपको पता नै होगा। आपके बाबूजी होते तो बताते। "

मैं सुखदेव से धूप और फ़सल पर बात करना चाहता था लेकिन आज वह चाय पर बात करने के मूड में है। 80 साल के इस वृद्घ के पास अंचल की ढेर सारी कहानियाँ है। उसने गाम घर और बाजार को बदलते देखा है। उसके पास चिड़ियों की  कहानी है। मौसम बदलते ही नेपाल से कौन चिड़ियाँ आएगी, किस रंग की, चिड़ियों की बोली।  सब उसे पता है। लेकिन बात करते हुए विषयांतर होना कोई उससे सीखे :)

सुखदेव की बातों में रस है। जब गाँव में पहली बार मक्का की खेती शुरू हुई थी, जब पहली बार हाईब्रिड गेहूँ की बाली आई थी और जब पहली दफे नहर में पानी छोड़ा गया था..ये सब एक किस्सागो की तरह उसकी ज़ुबान पे है। नहर की खुदाई में उसने हाथ बँटाया था।

सुखदेव बताता है- " कोसी प्रोजेक्ट का अफ़सर सब गाम आया। उससे पहले पुरेनिया से सिंचाई डपार्टमेंट का लोग सब आया। ज़मीन लिया गया तो पहले मालिक सबको सरकारी रेट पर ज़मीन का मुआवज़ा मिला और इसके बाद हमरा सब का बारी आया और मुसहरी टोल का टोटल लोग सरकारी मज़दूर बनकर नहर के लिए मिट्टी निकालने लगे। आज ई धूप में भी ऊ दिन याद करते हैं न तो देह सिहर जाता है। गर्व होता है, हमने गाम के खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए नहर बनाया है। इस गाम में भी कोसी का पानी हमने ला दिया। जिस दिन बीरपुर बाँध से ई नहर के लिए पानी छोड़ा गया, उस दिन जानते हैं क्या हुआ? धुर्र, आपको क्या पता होगा, आप तो तब आए भी न थे ई दुनिया में। बाबू, ऊ दिन कामत पर बड़का भोज हुआ और साँझ में बिदापत नाच। ख़ुद ड्योढ़ी के राजकुमार साब अपने बड़का कार से आए थे बिदापत नाच देखने। आह! ई पुरनका गप्प सब यादकर न मन हरियर हो जाता है..कोई पूछता भी नहीं है। "

सुखदेव बातचीत के दौरान नहर की तरह बहने लगा। वह हाट की बात बताने लगा लेकिन विषयांतर होते हुए दुर्गा पूजा के मेले में चला गया। चालीस साल पहले की बात, मेले में थिएटर और कुश्ती कहानी! उसने बताया कि तब मेले में बंगाल की थिएटर कम्पनी आती थी। धान बेचकर जो पैसा आता, वह सब मेला में लोग ख़र्च करते थे।

सुखदेव ने माथे पे गमछा लपेटते हुए कहा- " गमछा तो हम मेला में दो जोड़ी ख़रीदते ही थे। बंगाल के मालदा ज़िला वाला गमछा। लाल रंग का। अब ऊ गमछा नै आता है। तब इतना पैसा का दिखावा नहीं था। पूरा गाम तब एक था। उस टाइम इतना जात-पात नै था। पढ़ा लिखा लोग सब कहते हैं कि पहले जात-पात ज़्यादा था लेकिन ई बात ग़लत है जबसे पोलिटिक्स बढ़ा हैं न बाबू, तब से जात-पात भी बढ़ा है। बाभन टोल का यज्ञ वाला कुँआ तब सबका था। बुच्चन मुसहर हो या फिर सलीम का बाप, सब वहीं से पानी लाते थे और जगदेव पंडित तो काली मंदिर के लिए अच्छिन- जल यहीं से ले जाता था। अब होता है, बताइए आप? अब तो जात को लेकर सब गोलबंद हो गया है बाबू। "

बातचीत के दौरान सुखदेव ने अचानक आसमान की तरफ देखा और कहा- " रे मैया! सूरज तो दो सिर पसचिम चला गया। तीन बज गया होगा। जाते हैं, महिष को चराने ले जाना है। कल भोर में आएँगे और फिर चाह पीते हुए कहानी सुनाएँगे। काहे कि आप मेरा गप्प ख़ूब मन से सुनते हैं..."

सुखदेव निकल पड़ा और मैं एकटक उस 80 साल के नौजवान को देखता रहा। अभी भी वही चपलता, सिर उठाकर चलना, बिना लाठी के सहारे और स्मृति में पुरानी बातों का खजाना...

किसान की डायरी से सुखदेव की कहानी

बहुत धूप है। अक्टूबर में इतनी तेज़ धूप! विश्वास नहीं होता। सुखदेव कहता है - ' दो-तीन बरख पहले तक दुर्गा पूजा के वक़्त हल्की ठंड आ जाती थी। आलू के बीज बो दिए जाते थे लेकिन इस बार, हे भगवान! ई धूप खेत पथार को जलाकर रख देगा, उस पर हथिया नक्षत्र। बरखा भी ख़ूब हुई है। अभी तो बांकी ही है बरखा।  मौसम का पहिया बदल गया है बाबू। तुमने देखा ही कहाँ है उस मौसम को..."

मैं आज सुखदेव को लगातार सुनने बैठा हूं। स्टील की ग्लास में चाय लिए सुखदेव कहता है- " चाह जो है न बाबू, ऊ स्टील के गिलास में ही पीने की चीज़ है। हमको कप में चाह सुरका नै जाता है। कप का हेंडल पकड़ते ही अजीब अजीब होने लगता है। लगता है मानो किसी का कान पकड़ लिए हैं:)  वैसे आपको पता है कि पहले पुरेनिया के डाक्टर बाबू भट्टाचार्यजी मरीज के पूरजा पे लिख देते थे- भोर और साँझ चाह पीना है, कम्पलसरी! अब तो बाल बच्चा सब चाह पिबे नै करता है।आपको पता नै होगा। आपके बाबूजी होते तो बताते। "

मैं सुखदेव से धूप और फ़सल पर बात करना चाहता था लेकिन आज वह चाय पर बात करने के मूड में है। 80 साल के इस वृद्घ के पास अंचल की ढेर सारी कहानियाँ है। उसने गाम घर और बाजार को बदलते देखा है। उसके पास चिड़ियों की  कहानी है। मौसम बदलते ही नेपाल से कौन चिड़ियाँ आएगी, किस रंग की, चिड़ियों की बोली।  सब उसे पता है। लेकिन बात करते हुए विषयांतर होना कोई उससे सीखे :)

सुखदेव की बातों में रस है। जब गाँव में पहली बार मक्का की खेती शुरू हुई थी, जब पहली बार हाईब्रिड गेहूँ की बाली आई थी और जब पहली दफे नहर में पानी छोड़ा गया था..ये सब एक किस्सागो की तरह उसकी ज़ुबान पे है। नहर की खुदाई में उसने हाथ बँटाया था।

सुखदेव बताता है- " कोसी प्रोजेक्ट का अफ़सर सब गाम आया। उससे पहले पुरेनिया से सिंचाई डपार्टमेंट का लोग सब आया। ज़मीन लिया गया तो पहले मालिक सबको सरकारी रेट पर ज़मीन का मुआवज़ा मिला और इसके बाद हमरा सब का बारी आया और मुसहरी टोल का टोटल लोग सरकारी मज़दूर बनकर नहर के लिए मिट्टी निकालने लगे। आज ई धूप में भी ऊ दिन याद करते हैं न तो देह सिहर जाता है। गर्व होता है, हमने गाम के खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए नहर बनाया है। इस गाम में भी कोसी का पानी हमने ला दिया। जिस दिन बीरपुर बाँध से ई नहर के लिए पानी छोड़ा गया, उस दिन जानते हैं क्या हुआ? धुर्र, आपको क्या पता होगा, आप तो तब आए भी न थे ई दुनिया में। बाबू, ऊ दिन कामत पर बड़का भोज हुआ और साँझ में बिदापत नाच। ख़ुद ड्योढ़ी के राजकुमार साब अपने बड़का कार से आए थे बिदापत नाच देखने। आह! ई पुरनका गप्प सब यादकर न मन हरियर हो जाता है..कोई पूछता भी नहीं है। "

सुखदेव बातचीत के दौरान नहर की तरह बहने लगा। वह हाट की बात बताने लगा लेकिन विषयांतर होते हुए दुर्गा पूजा के मेले में चला गया। चालीस साल पहले की बात, मेले में थिएटर और कुश्ती कहानी! उसने बताया कि तब मेले में बंगाल की थिएटर कम्पनी आती थी। धान बेचकर जो पैसा आता, वह सब मेला में लोग ख़र्च करते थे।

सुखदेव ने माथे पे गमछा लपेटते हुए कहा- " गमछा तो हम मेला में दो जोड़ी ख़रीदते ही थे। बंगाल के मालदा ज़िला वाला गमछा। लाल रंग का। अब ऊ गमछा नै आता है। तब इतना पैसा का दिखावा नहीं था। पूरा गाम तब एक था। उस टाइम इतना जात-पात नै था। पढ़ा लिखा लोग सब कहते हैं कि पहले जात-पात ज़्यादा था लेकिन ई बात ग़लत है जबसे पोलिटिक्स बढ़ा हैं न बाबू, तब से जात-पात भी बढ़ा है। बाभन टोल का यज्ञ वाला कुँआ तब सबका था। बुच्चन मुसहर हो या फिर सलीम का बाप, सब वहीं से पानी लाते थे और जगदेव पंडित तो काली मंदिर के लिए अच्छिन- जल यहीं से ले जाता था। अब होता है, बताइए आप? अब तो जात को लेकर सब गोलबंद हो गया है बाबू। "

बातचीत के दौरान सुखदेव ने अचानक आसमान की तरफ देखा और कहा- " रे मैया! सूरज तो दो सिर पसचिम चला गया। तीन बज गया होगा। जाते हैं, महिष को चराने ले जाना है। कल भोर में आएँगे और फिर चाह पीते हुए कहानी सुनाएँगे। काहे कि आप मेरा गप्प ख़ूब मन से सुनते हैं..."

सुखदेव निकल पड़ा और मैं एकटक उस 80 साल के नौजवान को देखता रहा। अभी भी वही चपलता, सिर उठाकर चलना, बिना लाठी के सहारे और स्मृति में पुरानी बातों का खजाना...

Tuesday, May 03, 2016

रेणु के गाँव में मूंगफली

खेती -बाड़ी करते हुए अक्सर अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के गाँव आना - जाना लगा रहता है। वहाँ जाना मेरे लिए हमेशा से सुखद रहा है। हर बार वहाँ से लौटकर कुछ नया 'मन' में लाता आया हूं। पिछले शनिवार की बात है, राजकमल प्रकाशन समूह के सम्पादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम चनका आए थे, दिन भर के लिए।  उन्हीं के संग रेणु के 'गाम-घर' जाना हुआ।

किताबों और लेखकों के दुनिया में रमे रहने वाले निरूपम भाई से जब गाँव में मुलाक़ात हुई तो उनका एक अलग ही मन पढ़ने को मिला। उनके भीतर किसान का मन भी है, यह मुझे अबतक पता नहीं था। रेणु का लिखा पढ़ता हूं तो पता चलता है कि वे अक्सर किताबों की दुनिया में रमे रहने वालों को अपने खेतों में घुमाते थे। उन्होंने एक संस्मरण  लिखा है- "कई बार चाहा कि, त्रिलोचन से पूछूँ- आप कभी पूर्णिया जिला की ओर किसी भी हैसियत से, किसी कबिराहा-मठ पर गये हैं? किन्तु पूछकर इस भरम को दूर नहीं करना चाहता हूं। इसलिए, जब त्रिलोचन से मिलता हूं, हाथ जोड़कर, मन ही मन कहता हूं- "सा-हे-ब ! बं-द-गी !!"

सच कहिए तो इस किसान की भी इच्छा रहती है कि कोई गाम आए तो उसे पहले खेतों में घुमाया जाए। उस व्यक्ति से कुछ सीखा जाए। कबीर की वाणी है-'अनुभव गावे सो गीता'।

ख़ैर, प्रचंड गरमी में निरूपम भाई चनका के मक्का के खेतों में टहलते हुए थके नहीं बल्कि मुझे समझाने लगे कि मक्का के अलावा और क्या क्या हो सकता है। कोसी का इलाक़ा जिसे मक्का  का 'हब' कहा जाता है वहाँ का किसानी समाज अब फ़सल चक्र को छोड़ने लगा है, मतलब दाल आदि की अब खेती नहीं के बराबर होती है, ऐसे में एक ही फ़सल पर सब आश्रित हो चुके हैं। हालाँकि मक्का से नक़द आता है लेकिन माटी ख़राब होती जा रही है। इस बात को लेकर निरूपम भाई चिंतित नज़र आए।

तय कार्यक्रम के मुताबिक़ मैं और चिन्मयानन्द उन्हें लेकर रेणु के गाँव औराही हिंगना निकल पड़े। रास्ते भर सड़क के दोनों किनारे खेतों में केवल मक्का ही दिखा। रेणु के घर के समीप एक खेत दिखा, जिसे देखकर लगा मानो किसी ने हरी चादर बिछा दी हो खेत में। मेरे मन में रेणु बजने लगे- ' आवरन देवे पटुआ , पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैया रहे चदरवा तान' ! मेरे मन में रेणु बज ही रहे थे कि निरूपम भाई ने कहा ' यह जो आप देख रहे हैं न , मैं खेती की इसी शैली की बात करना चाहता हूं'।  अब तक परेशान दिख रहे निरूपम भाई के चेहरे की रौनक़ लौट आई। दरअसल खेत में मूँगफली की फ़सल थी, एकदम हरे चादर के माफ़िक़। साठ के दशक में रेणु की लिखी एक बात याद आ गयी जिसमें वे धान के अलावा गेहूँ की खेती कहानी के अन्दाज़  सुनाते हैं। बाबूजी कहते थे कि रेणु गेहूँ के खेत को पेंटिंग की तरह शब्दों में ढ़ालकर हम सभी के मन में बस गए।

दरअसल खेती को लेकर निरूपम भाई की चिंता को सार्वजनिक करने की ज़रूरत है क्योंकि यदि अलग ढंग से खेती करनी है तो हम किसानी समुदाय के लोगों को सामान्य किसानी से हट कर बहुफसली, नकदी और स्थायी फसलों के चक्र को अपनाना होगा। सच कहिए तो निरूपम भाई के आने की वजह से रेणु के गाँव में मूँगफली की खेती देखकर मन मज़बूत हुआ कुछ अलग करने के लिए।

ग़ौरतलब है कि तिलहन फसलों में मूँगफली का मुख्य स्थान है । इसे जहाँ तिलहन फसलों का राजा कहा जाता है वहीं इसे गरीबों के बादाम की संज्ञा भी दी गई है। इसके दाने में लगभग 45-55 प्रतिशत तेल(वसा) पाया जाता है जिसका उपयोग खाद्य पदार्थो के रूप में किया जाता है। इसके तेल में लगभग 82 प्रतिशत तरल, चिकनाई वाले ओलिक तथा लिनोलिइक अम्ल पाये जाते हैं। तेल का उपयोग मुख्य रूप से वानस्पतिक घी व साबुन बनाने में किया जाता है। इसके अलावा मूँगफली के तेल का उपयोग क्रीम आदि के निर्माण में किया जाता है।

पहले कभी इस इलाक़े में रेत वाली मिट्टी में मूँगफली उगाया जाता था। फिर सूरजमुखी की तरफ़ किसान मुड़े लेकिन फिर अचानक नब्बे के दशक में किसानों ने पटसन और इन सभी फ़सलों को एक तरफ़ रखकर मक्का को गले लगा लिया लेकिन अब चेत जाने का वक़्त आ गया है। बहुफ़सलों की तरफ़ हमें मुड़ना  होगा। पारम्परिक खेती के साथ साथ हम किसानी कर रहे लोगों को अब रिस्क उठाना होगा। खेतों के लिए नया गढ़ना होगा। कुल मिलाकर देश भर में हर किसान की एक ही तकलीफ है, वह नक़द के लिए भाग रहा है। घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। सरकारें किसानों के लिए कई ऐलान करने में जुटी हैं, लेकिन साफ है, जमीन पर बड़े बदलाव नहीं हो रहे हैं। आइये हम सब मिलकर बदलाव करते हैं, कुछ अलग किसानी की दुनिया में भी करते हैं।

( प्रभात ख़बर के कुछ अलग स्तंभ में प्रकाशित- 3 मई 2016)

Monday, April 25, 2016

आम फलों का राजा है, लड़ना उसको आता है

पंखुड़ी को जब पढ़ाने बैठता हूं तो वह ढ़ेर सारे सवाल पूछती है। मुझे उसके सवालों से काफ़ी कुछ सीखने को मिलता है। सुबह की बात है, आम को लेकर बात चली तो मैंने कहा- "फ़लों का राजा आम है"। पंखुड़ी ने तुरंत सवाल दागा "पपीता क्यों नहीं? अनार क्यों नहीं?....

पंखुड़ी को जैसे -तैसे समझाकर संतुष्ट कर दिया कि तमाम फलों में आम ही स्वादिष्ट है इसलिए वह राजा है। लेकिन बाद में आम के बारे में सोचने लगा। आख़िर आम राजा क्यों कहलाता है? किसानी करते हुए आम को मैं कितना समझ सका हूँ, इसके बारे में सोचने लगा।

दोपहर में चनका में बग़ीचे में आम के नये फलों को तेज़ धूप और पछिया हवा के झोंकों में अपने ही डंटल से टकराते देखा तो अहसास हुआ कि 'राजा' होना आसान काम नहीं है। पेड़ में मंज़र आते ही उसे पहले तेज़ हवा और बारिश से जूझना पड़ता है, हर साल।

बीस दिन पहले की ही तो बात है, छोटे-छोटे नवातुर आम के फलों को ओलों से लड़ना पड़ा था। सैंकड़ों छोटे-छोटे आम ज़मीन में मिल गये , जो लड़ सके आज पेड़ में हैं। अब भी धूप में वे लड़ रहे हैं।

आम की लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई है। अभी तो आँधी-तूफ़ान का एक दौर बाँकि है, इसमें जो बच जाएँगे वे ही टिक पाएँगे हमारे- आपके लिए।

प्रचंड गरमी की ताप को सहने की शक्ति कोई आम से सीखे। देखने में हरा है, तपती दोपहरी में हमारी आँखों को ठंडक मिलती है इसे देखकर, लेकिन अपने भीतर यह अंगारे को छुपाए हुए है।

आम के पेड़ की पत्तियों में चिटियाँ घर बना लेती है तो कभी मधुमक्खी। गिलहरी तो इसके क़रीब चिपकी रहती है। आम में सहन शक्ति है। इसमें सामूहिकता की कला है। प्रकृति ने इसे सबको संग लेकर चलना सीखाया है।

मैं इस मौसम में जब भी आम को देखता हूं , लगता है कि हम लड़ने से कितना डरते हैं। जबकि आम चार-पाँच महीने लगातार लड़ता रहता है , हमारे -आपके लिए। ऐसे में सबसे बड़े 'लड़ेय्या' तो आम ही है। राजा कोई यूँ ही नहीं कहलाता है, इसके लिए लड़ना पड़ता है। 

Saturday, March 19, 2016

यहाँ सबकुछ है फिर भी...

खेत में फ़सल इस बार अच्छी है। आम -लीची में मंजर भी शानदार हैं। फिर भी बिन आपके यह कैंपस सुना लग रहा है। नीलकंठ चिड़ियाँ , जिसे देखकर आप सबसे अधिक ख़ुश होते थे, कैंपस में झुंड में आई हुई है। आप जब भी इस मौसम में इस चिड़ियाँ को देखते तो कहते थे- "इस बार गेहूं और मकई अच्छी ही होगी। भंडार भर जाएगा।" फिर आप कोई डाकवचन सुनाते थे...

गाम में दोपहर में जब अकेले रहता हूं तब नीलकंठ, ख़ंजन, बुलबुल, पहाड़ी मैना की आवाज़ें मेरे अकेलेपन को दूर करती है लेकिन इन सबके बावजूद लगता है कि आप कहीं आसपास ही हैं। मुझे याद आता है आपका बैठकखाना, जहाँ दोपहर में आप शतरंज खेला करते थे। मुझे तो शतरंज कभी समझ में नहीं आया लेकिन आपकी चालें अब याद आ रही हैं। शतरंज की बात से आप ही याद आते हैं और फिर मैं गुलज़ार का लिखा बुदबुदाने लगता हूं-

"दोपहरें ऐसी लगती हैं
बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल....."

बाबूजी, पुराने गोबर गैस प्लांट के पास आपने जो खजूर का पेड़ लगाया था न वह इस बार भी चहक रहा है। चिड़ियों ने इस पेड़ में घौसला बना लिया है, एकदम ऊँचाई पर। वहीं दरभंगा से आपने जो लक्ष्मेश्वरभोग नामक आम का पौधा लाया था न, इस बार उसमें ख़ूब मंज़र आया है। इन पेड़-पौधों को देखकर आप 'अब नहीं हैं' इस शब्द को ग़लत साबित करने में जुट जाता हूं लेकिन यह जानता हूं कि यह मेरा भरम है, जो टूट चुका है।

ख़ैर, पछिया और पूरबा हवा का असर अब भी है। पश्चिम के खेत में मक्का इस बार ठीक ठाक है लेकिन नहर इस बार भी बिन पानी है। आपकी डायरी पलट रहा था तो पाया कि 70 के दशक में जब नहर में पानी नहीं छोड़ा जाता था तब आप सिंचाई विभाग का चक्कर लगाते थे गाँव वालों के ख़ातिर। डायरी में ढ़ेर सारे आवेदन मिले, किसानी के अलावा आपके काम को देखना मन को सुकून देता है। इस बार के आम बजट में हर खेत तक पानी पहुँचाने की बात कही गयी है, देखते हैं बात कब  रंग लाती है।

मक्का खेत में है तो गाम –घर में अभी उत्सव जैसा माहौल है। किसी न किसी के घर में भगैत या कीर्तन हो रहा है। हालाँकि पंचायत चुनाव की वजह से गाम में अभी चुनावी गणित का हिसाब चल रहा है।

उधर, आम और लीची के पेड़ फलों के लिए तैयार हो रहे हैं। आम के मंजर मन के भीतर टिकोले और आम के बारे में सोचने को विवश कर रहे हैं। मन लालची हुआ जा रहा है। उन मंजरों में किड़ों ने अपना घर बना लिया है, मधुमक्खियां इधर-उधर घूम रही है।

बांस के झुरमुटों में कुछ नए मेहमान आए हैं। बांस का परिवार इसी महीने बढ़ता है। वहीं उसके बगल में बेंत का जंगल और भी हरा हो गया है। लगता है गर्मी की दस्तक ने उसे रंगीला बना दिया है। कुछ खरगोश दोपहर बाद इधर से उधर भागते फिरते मिल जाते हैं, वहीं गर्मी के कारण सांप भी अपने घरों से बाहर निकलने लगा है। जो कुछ देखता हूं आज वो सब आपको सुनाने बैठा हूं बाबूजी।

अरे हाँ, यह तो बताना भूल ही गया, आपके गाम में अब सड़कों का जाल बिछ रहा है। नहर की पगडंडी से इतर अब सड़क दिखने लगी है। बिजली के खम्बे भी अब गिराए जा रहे हैं। गाम - घर की दुनिया अब बदल रही है बाबूजी। इतना कुछ बदल रहा है लेकिन अफ़सोस आप नहीं हैं।

होली से पहले गाँव में आपकी बैठकी को उत्सव कहा जाता था। गीत-नाद का आयोजन होता था। लेकिन आपके बिछावन पर जाने के बाद से सबकुछ कहीं खो गया। वक़्त कितनी तेज़ी से गुज़रता है, अब इसका अहसास हो रहा है। कुछ रूकता कहाँ हैं, बस यादें रह जाती है। बाँकि तो सबकुछ चलता रहता है।

दुर्गा पूजा , दीवाली के बाद अब होली भी आपके बिना होगी। यह सत्य है लेकिन कड़वा लग रहा है। गाम की होली, पूर्णिया की होली.... इस बार से आपके बिना ही होगी। शाम में सफ़ेद-धोती कुर्ता पहनना, बड़ों के पाँव में अबीर लगाकर आशीष लेना, लोगों को आग्रह कर मालपुआ खिलाना ....सब अब यादों की एक मोटी डायरी में बंद हो चुका है। मैं आज यादों की पोटली खोलकर बैठ गया हूं बाबूजी ....मैं कबीर की वाणी के ज़रिए आपको याद करता हूं-

“दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ “

Saturday, February 27, 2016

पोखर के बहाने

पुरनका पोखर इन दिनों सूरज की ताप को महसूस करने लगा है। पोखर का कीचड़ सूखने के कगार पर है। कीचड़ों पर दूब उग आए हैं। वनमुर्गी  झुंड बनाकर दूब के आसपास मँडराती रहती है।

वहीं पोखर के पूरब के खेत में पटवन के बाद कीड़ों को ढूँढने के लिए बगूले आए हुए हैं। कुछ बगूले पोखर में भी ताकाझाँकी कर लेते हैं। जंगली बतकों के बच्चे 'पैक-पैक' करती हुई चक्कर मार रही है। सिल्ली चिड़ियाँ तो पोखर में जहाँ कुछ पानी बचा है उसमें डुबकी लगा रही है।

पोखर के कीचर में कोका के फूल आए हैं। पोखर को देखकर कोसी की उपधारा 'कारी-कोसी' की याद आ रही है। गाम की सलेमपुरवाली काकी कारी कोसी के बारे कहानी सुनाती थी। कहती थी कि डायन -जोगिन के लिए लोग सब कारी कोसी के पास जाते हैं। लेकिन हमें तो चाँदनी रात में कारी कोसी की निर्मल धारा में अंचल की ढेर सारी कहानियाँ दिखती थी।

बंगाली मल्लाहों के गीत सुनने के लिए कारी कोसी पर बने लोहे के पुल पर खड़ा हो जाता था। बंगाल से हर साल मल्लाह यहाँ डेरा बसाते थे और भाँति-भाँति की मछलियाँ फँसाकर बाज़ार ले जाते थे। इस पुल से ढेर सारी यादें जुड़ी हैं। यहाँ से दूर दूर तक परती ज़मीन दिखती है, बीच-बीच में गरमा धान के खेत भी हैं।

क़रीब दस साल पहले तक बंगाली मल्लाह कारी-कोसी के तट को हर साल बसाते थे, धार की जमीन में धान की खेती करते हुए सबको हरा कर देते थे। ये सभी मेहनत से नदी-नालों-पोखरों में जान फूँक देते थे।

गाँव का बिशनदेव उन बंगाली मछुआरों की बस्ती में ख़ूब जाता था और जब लौटकर आता तो  उसके हाथ में चार-पाँच देशी काली मछली और कुछ सफ़ेद मछलियाँ होती थी। यह सब अंगना में बने चूल्हे के पास रखकर वह कहता- 'सब भालो, दुनिया भालो, आमि-तुमि सब भालो, दिव्य भोजन माछेर झोल.....'

बिशनदेव की इस तरह की बातों को सुनकर गाम में सबने उसका नामकरण 'पगला बंगाली' कर दिया था। अब बिशनदेव नहीं है लेकिन आज पुराने पोखर के नज़दीक से गुज़रते हुए कारी-कोसी की यादें ताजा हो गयी।



Wednesday, November 25, 2015

पुरानी कहानी, नया पाठ


चनका गांव के एक तालाब की तस्वीर।
बोली-बानी सब बदल जाती है, बस रह जाती है तो केवल यादें। गांव को नदी बांट देती है, गांव को नहरें बांट देती है. इन सब में जो सबसे कॉमन है वह है पानी। हमारी यादों को दो छोर पे रखने में इस पानी का सबसे अहम रोल है। कोसी के कछार में आकर हम बसते हैं, एक बस्ती बनाते हैं।

उस बस्ती से दूर जहां हमारे अपने लोग बसे हैं
, जहां संस्कार नामक एक बरगद का पेड़ खड़ा है और जहां बसे वहां बांस का झुरमुट हमारे लिए आशियाना तैयार करने में जुटा था। मधुबनी से पूर्णिया की यात्रा में दो छोर हमारे लिए पानी ही है। उस पार से इस पार। कालापानी। कुछ लोग इसे पश्चिम भी कहते हैं। बूढ़े-बुजुर्ग कहते हैं- जहर ने खाउ माहुर ने खाउ, मरबाक होए तो पूर्णिया आऊ (न जहर खाइए, न माहुर खाइए, मरना है तो पूर्णिया आइए)। और हम मरने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए इस पार आ गए।

विशाल परती जमीन
, जिसे हॉलीवुड फिल्मों में नो मेन्स लैंड कहा जा सकता है, हमारे हिस्से आ गई। शहर मधुबनी से शहर-ए-सदर पूर्णिया अड्डा बन गया। मधुबनी जिले के तत्सम मैथिली से पूर्णिया के अप्रभंश मैथिली की दुनिया में हम कदम रखते हैं। हमारी बोली-बानी पे दूसरे शहर का छाप साफ दिखने लगा। सूप, कुदाल खुड़पी सबके अर्थ, उच्चारण, हमारे लिए बदल गए, लेकिन हम नहीं बदले, जुड़ाव बढ़ता ही चला गया, संबंध प्रगाढ़ होते चले गए।

कोसी एक कारक बन गई, पूर्णिया और मधुबनी के बीच। दो शहर कैसे अलग हैं, इसकी बानगी बाटा चौक और भट्टा बाजार है। एक भाषा यदि मधुबनी को जोड़ती है तो वहीं विषयांतर बोलियां पूर्णिया को काटती है, लेकिन एक जगह आकर दोनों शहर एक हो जाता है, वह है सदर पूर्णिया का मधुबनी मोहल्ला। कहा जाता है कि उस पार से आए लोगों ने इस मोह्ल्ले को बसाया। यहीं मैथिल टोल भी बस गया। मधुबनी मोहल्ला घुमने पर आपको बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनका ऑरिजन मधुबनी जिला है।

धीरे-धीरे यहां प्रवासी अहसास भी मैथिल भाषियों को होने लगा, बंगाल से सटे रहने की वजह से बांग्ला महक फैलती ही चली गई। आप उस पार के हैं, यह पूर्णिया में भी मधुबनी से आए लोगों को सुनने को मिलता है। उस पार से आए किसान यहां जमींदार बन गए, निजाम बन गए तो कुछ, कई की आंख की किरकरी (चोखेर बाली) बन गए।

शहर पूर्णिया और शहर मधुबनी में जो अंतर सपाट तरीके से दिखता है वह लोगबाग। कामकाजी समाज आपको मधुबनी मिलेगा लेकिन पूर्णिया में यह अनुभव कुछ ही मोहल्लों में मिलेगा। यह शहर शुरुआत में बड़े किसानों का आउट हाउस था। वे यहां कचहरी के काम से आते थे और कुछ वक्त गुजारा करते थे। उस पढ़ाई के लिए लोग मधुबनी-दरभंगा के कॉलेजों पर ही आश्रित थे। शिक्षा के मामले में मधुबनी-दरभंगा बेल्ट ही मजबूत था बनिस्पत पूर्णिया अंचल।

अब हम धीरे-धीरे शहर से गांव की ओर मुड़ते हैं। इशाहपुर (मधुबनी जिला का गांव) से खिसकते हुए एक अति पिछड़े गांव चनका (पूर्णिया जिला का गांव) पहुंच जाते हैं। धोती से लुंगी में आ जाते हैं। पोखर से धार (कोसी से फुटकर कई नदियां पूर्णिया जिले के गावों में बहती है, जिसमें जूट की खेती होती है) बन जाते हैं। माछ से सिल्ली (पानी में रहने वाली चिडियां, जिसे कोसी के इलाके में लोग बड़े चाव से खाते हैं) के भक्षक बन जाते हैं। मैथिली गोसाइन गीत से भगैत बांचने लगते हैं। धर्म-संस्कार का असर कम होने लगता है तो कुछ लोग डर से इसके (धर्म) और गुलाम बनते चले जाते हैं। 

(जारी है, मधुबनी से पूर्णिया, इशाहपुर से चनका का सफर)

Sunday, November 22, 2015

खेत में फसल से गुफ्तगू

मौसम की मार क्या होती है, तुमसे बेहतर कौन जान सकता है ? माटी में पल बढ़कर तुम हमारे आँगन -दुआर में खुशबू बिखरते हो। भण्डार को एक नई दिशा देकर बाजार में पहुंचकर हमारे कल और आज के लिए चार पैसे देते हो लेकिन ऐसा हर बार हो, यह निश्चित तो नहीं है न ! 

आज सुबह हल्के कुहासे की चादर में अपने खेत के आल पर घुमते हुए जब तुम्हें देख रहा हूँ तो मन करता है कि तुमसे खूब बातचीत करूं, दिल खोलकर, मन भरकर।

तुम्हारी हरियाली ही मुझे हर सुबह शहर से गाँव खींच ले आती है। धान के बाद अब तुम्हारी बारी है । मक्का, अभी तो तुम नवजात हो। धरती मैया तुम्हें पाल-पोस रही है। हम किसानी कर रहे लोग तो बस एक माध्यम है। यह जानते हुए कि प्रकृति तुम्हारी नियति तय करती है लेकिन बतियाने का आज जी कर रहा है तुमसे। महाभारत के उस संवाद को जोर से बोलने का जी करता है- आशा बलवती होती है राजन !

घर के पूरब और पश्चिम की धरती मैया में हमने 18 दिन पहले तुम्हें बोया था। आज तुम नवजात की तरह मुस्कुरा रहे हो। मैंने हमेशा धान को बेटी माना है, इसलिए क्योंकि धान मेरे लिए फसल भर नहीं है, वो मेरे लिए 'धान्या' है। धान की बाली हमारे घर को ख़ुशी से भर देती है। साल भर वो कितने प्यार से हमारे घर आँगन को सम्भालती है। आँगन के चूल्हे पर भात बनकर या दूर शहरों में डाइनिंग टेबल पर प्लेट में सुगंधित चावल बनकर, धान सबका मन मोहती है।

वहीं मेरे मक्का, तुम किसानी कर रहे लोगों के घर-दुआर के कमाऊ पूत हो। बाजार में जाकर हमारे लिए दवा, कपड़े और न जाने किन किन जरूरतों को पूरा करते हो, यह तुम ही जानते हो या फिर हम सब ही। 

बाबूजी अक्सर कहते थे कि नई फसल की पूजा करो, वही सबकुछ है। फसल की बदौलत ही हमने पढ़ाई-लिखाई की। घर-आँगन में शहनाई की आवाज गूंजी। बाबूजी तुम्हें आशा भरी निगाह से देखते थे। ठीक वैसे ही जैसे दादाजी पटसन को देखते थे।

कल रात बाबूजी की 1980 की डायरी पलट रहा था तो देखा कैसे उन्होंने पटसन की जगह पर तुम्हें खेतों में सजाया था। वे खेतों में अलग कर रहे थे। खेत उनके लिए प्रयोगशाला था। मक्का, आज तुम्हें उन खेतों में निहारते हुए बाबूजी की खूब याद आ रही है। 

बाबूजी का अंतिम संस्कार भी मैंने खेत में ही किया, इस आशा के साथ कि वे हर वक्त फसलों के बीच अपनी दुनिया बनाते रहेंगे और हम जैसे बनते किसान को किसानी का पाठ पढ़ाते रहेंगे।

पिछले साल मौसम की मार ने तुम्हें खेतों में लिटा दिया था। तुम्हें तो सब याद होगा मक्का! आँखें भर आई थी। बाबूजी पलंग पर लेटे थे। सैकड़ों किसान रो रहे थे। लेकिन हिम्मत किसी ने नहीं हारी। हम धान में लग गए। मिर्च में लग गए...आलू में सबकुछ झोंक दिया...

आज खेत में टहलते हुए , तुम्हें देखते हुए, बाबूजी के 'स्थान' को नमन करते हुए खुद को ताकतवर महसूस कर रहा हूँ। एक तरफ तुम नवजात होकर भी मुझसे कह रहे हों कि 'फसल' से आशा रखो और बाबूजी कह रहे हैं किसानों को किसानी करते हुए हर चार महीने में एक बार लड़ना पड़ता है, जीतने के लिए। 

Wednesday, September 23, 2015

रेणु ने मांगे थे नाव पर वोट व पाव भर चावल

बिहार में इस वक्त चुनाव की बहार है। राजनितिक दलों में टिकट का बंटवारा लगभग हो चुका है। जिन्हें टिकट मिला वे खुश हैं और जिन्हें नही मिला वे  आगे की रणनीति में जुटे हैं। राजनीति तो यही है, आज से नहीं हजारों बरसों से।

खैर, बिहार में मौसम भी गरम था लेकिन पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है । शायद टिकट बंटवारा का असर हो :)  मौसम बदलते ही आपके किसान को साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन करने लगा। आप सोचिएगा कहां राजनीति और कहां साहित्य। दरअसल हम इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं।

रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था। उनका चुनाव चिन्ह नाव था , हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी लेकिन चुनाव के जरिए उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया। मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे।
रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था।

इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधत्व  अभी तक उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर रहे हैं। हालांकि इस बार भारतीय जनता पार्टी ने उनका टिकट काटकर मंचन केशरी को टिकट दिया है। रेणु के बेटे ने इस सम्बन्ध में फेसबुक पर सवाल भी उठाये हैं। उनके सवाल बहुत लोगों के लिए जायज भी हो सकते हैं। हालांकि राजनीति में जायज और नाजायज में कितना अंतर होता है ये हम सब जानते हैं।

अब चलिए हम 2015 से 1972 में लौटते हैं। उस वक्त फणीश्वर नाथ रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था। 31 जनवरी 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए। 
रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था।

उन्होंने खुद लिखा है-  " मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुझे पाव भर चावल और एक वोट दें। मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां,दोहों का उद्धरण दूंगा। कबीर को उद्धरित करुंगां, अमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगा, गालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करुंगा और लोगों को समझाउंगा। यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पनंत और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-
दूध, दूध  ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अज्ञेय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पन्त
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय

72 के चुनाव के जरिए रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे। उन्होंने कहा था-  “मुझे उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जाएगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है।”

चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरुरी है। उन्होंने कहा था- “लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूं। समाज और तंत्र में आई इन विकृतियों से लड़ना चाहिए।”

रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था। अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा..उनका नारा था- 
" कह दो गांव-गांव में, अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव में, नाव मे, नाव में।।
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....

राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे। राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किए जाने पर वे चिन्तित थे। वे कहते थे- ' धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते , मगर ये समस्याएं उठाएंगे किसानों की ! समस्या उठाएंगे मजदूरों की ! "

गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रियता काफी पहले से थी। साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।

(
प्रभात खबर में प्रकाशित 23 सितंबर 2015)

Tuesday, September 08, 2015

खेती-किसानी, बारिश-बाबूजी

पिता ऐसे पेड़ होते हैं, जिसकी जड़ें इतनी गहरी और मजबूत होती है कि हम उससे लिपटते चले जाते हैं और अंतत: उसमें खो जाते हैं। इस खो जाने का अपना आनंद है। पता नहीं, हर कोई इसमें खोना चाहता होगा कि नहीं लकिन मैं तो ऐसा जरुर चाहता हूं। खेती-किसानी करते हुए इस बारिश के मौसम में जब बाबूजी मुझसे बहुत दूर चले गए हैं तब उनकी जड़ों में लिपटने की चाह और बढ़ गयी है।

आज शहर से अपने गाँव जाते वक्त मेरी नजर एक बूढ़े शख्स पर टिक गयी जो लाठी के सहारे कदम बढ़ा रहा था. उम्र उसकी 80 के करीब होगी। लेकिन इसके बावजूद वो सात -आठ साल के एक लड़के को थामे था। वह बूढ़ा उस लड़के को सहारा दे रहा था कि वह लड़का उस बुजुर्ग को थामे था, यह तो मुझे नहीं पता लेकिन यह अहसास जरूर हुआ कि हम सब जड़ों में लिपटने की जुगत में रहते हैं। यही जुगत शायद जीने की आश को बचाए रखती है।


नहर के एक छोर पर उन दोनों को देखकर मुझे बाबूजी की याद सताने लगी। दरअसल हम सब स्मृति में जीवन तलाशते हैं। स्मृति की दूब हमेशा हरी बनी रहे, हम सब ऐसा सोचते हैं। कोई हमारे बीच से गुजरकर भी मन में एक पगडंडी बनाकर निकल जाता है, जिसकी लकीर पर हम जीवन भर चलते रहने की मंशा पाल बैठते हैं।  

लेकिन नियति जो चाहती, होता तो वही है। कबीर की वाणी ऐसे में मुझे याद आने लगती है। गाम का कबीराहा मठ मुझे खींचने लगता है। मैं खुद ही बुदबुदाने लगता हूं- कबीरा कुआं एक है..और पानी भरे अनेक..।

फिर जीवन में फकीर की खोज में लग जाता हूं तो कबीर का यह लिखा सामने आ जाता है-  "हद-हद टपे सो औलिया..और बेहद टपे सो पीर..हद अनहद दोनों टपे. सो वाको नाम फ़कीर..हद हद करते सब गए और बेहद गए न कोए अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय.... भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं रामभजन से छूटी रे मोरे सर से टली बला..।"  

आज गाम-घर करते हुए यही सब सोचता रहा। इस बीच धूप की दुनिया बादलों में कब बदल गयी पता भी नहीं चला। अचानक खूब बारिश होने लगी। बारिश की कई यादें हैं मन के भीतर, कई कहानियां हैं, कई नायक-नायिकाएं हैं..लेकिन फिलहाल धान के खेत का कैनवास ही मन में घर बनाए हुए है।  

बारिश से धान के खेतों की हरियाली और भी मायावी दिखने लगती है। बाबूजी का अंतिम संस्कार मैंने उन्हीं धान के खेतों के मुंडेर पर किया, जहां वे फसलों से अपनी और हम सबकी दुनिया रचते थे। हमारी साल भर की रोजी-रोटी के लिए जी-तोड़ मेहनत करते थे। ट्रैक्टर से घंटों खेतों को समतल करते थे।

देखिए न उन खेतों में अब धान के संग कदम्ब अपनी कविता-कहानी हमें सुनाने की जिद कर रहा है। इस अहसास के साथ कि बाबूजी भी ये सब सुन रहे होंगे, मैं आंखें बंद कर उन्हें याद कर लेता हूं। यह जानकर कि मेरा यह भरम भी टूट जाएगा एक दिन...  

हर रोज शहर से गांव करते हुए इन दिनों एक साथ ऐसी ही कई चीजें मन में चलती है। तबियत ठीक नहीं रहने की वजह से लिखना कम हो गया है। ड्राइविंग और लेखन से थोड़ी दूरी बनाने को डाक्टर ने कहा है, दोनों ही अति-प्रिय चीज...जा रे जमाना..हर कुछ पर पाबंदी। डाक्टर भी न ..लेकिन करना तो वही होगा..। 

कम बारिश की वजह से खेती-बाड़ी इस बार मन माफिक नहीं होगी, ये पता है लेकिन इसके बावजूद हार मानने वाले हम हैं नहीं। बाबूजी अक्सर कहते थे- ‘ किसानी करते हुए निराशा के बादल खूब मंडारते हैं, उन बादलों को बस बरस जाने दो...।’ 

आज खेती-किसानी और बारिश के बहाने बस इतना ही।

Friday, August 21, 2015

बारिश, धान और सरोद

सरोद वादन
पूर्णिया में आज सुबह से बारिश हो रही है। उधर, अखबारों के पन्नों में चुनाव और दलीय राजनीति की खबरें फैली हुई है। बिहार को विशेष पैकेज का गणित अखबारों के खबरों को अपने जाल में फंसाए हुए है। हर कोई इसी की बात कर रहा है।

वैसे मेरे लिए अभी खबर बारिश ही है। धान को बारिश की जरुरत थी। ऐसे में मूसलाधार बारिश ने धान के खेतों में कुछ असर दिखाया है हालांकि अब काफी देर हो चुकी है।


हम जैसे कई किसान हार मान चुके थे थे और खेत को छोड़ चुके थे। ऐसे में देर ही सही लेकिन बारिश की बूंदों ने कुछ काम किया है। वैसे हम जान रहे हैं कि फसल इस बार मन को हरा नहीं करेगा। ऐसे में मन का एक कोना निराशा के फेर में फंसा हुआ है।
ऐसे में मन को संगीत की तलब लगी है। संगीत वो भी केवल इन्सट्रूमेंटल। वाद्य यंत्र के माध्यम से निकलने वाली आवाज मन को हमेशा से राहत पहुंचाती आई है। ऐसे माहौल में पूर्णिया शहर में स्पिक मैके के एक कार्यक्रम में जाना हुआ। वो भी सरोद सुनने।

पंडित राजीब चक्रवर्ती के सरोद वादन से पहला परिचय हुआ। वैसे सच कहूं तो सरोद के प्रति अपना अनुराग आठ साल पुराना है। पहली बार दिल्ली के पुराने किले में इस वाद्य यंत्र से इश्क हुआ था। वो दिल्ली की सर्द शाम थी। हम कालेज के दोस्तों के संग वहां पहुंचे थे। शाम कब देर रात में बदल गयी पता भी नहीं चला।

तकरीबन 300 साल पुराना यह वाद्य यंत्र मुझे अपने करीब तब तक ला चुका था। हम अपने दोस्तों के संग उस सर्द रात पैदल ही आईटीओ पहुंच गए थे। सरोद मन में बज रहा था। बाद में आईटीओ पर देर रात एक ओटो मिला और हम कुहासे की उस रात गुनगुनाते अपने कमरे पहुंचे थे।

मुझे आज भी याद है, उस शाम उस्ताद अमजाद अली खां ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के लोकप्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ की रसपूर्ण प्रस्तुति के बाद राग दरबारी सुनया था। पत्रकारिता करते हुए बाद में  जाना कि यह खां साब का सबसे प्रिय राग है। राग से अनुराग की एबीसीडी वहीं से शुरु हुई थी शायद।

आज जाने कितने दिनों बाद पूर्णिया के विद्या विहार इंस्टिट्युट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में स्पिक मैके के कार्यक्रम में वो सबकुछ गुजरे दिनों की बातें याद आ रही है। पंडित राजीब चक्रवर्ती ने अपने सरोद वादन से मन मोह लिया। भैरव राग में उन्होंने हम सबको बांध लिया। तबले पर पिंटू दास ने भी हमें आकर्षित किया। लेकिन हमें तो सरोद अपनी ओर खींच रहा था।

संगीत कार्यक्रम के बाद पंडित राजीब चक्रवर्ती ने सवाल जवाब का कार्यक्रम रखा था, जो स्पिक मैके के कार्यक्रमों का नियम है। इंजीनियरिंग कॉलेज के बच्चों के साथ उनके सवाल जवाबों में भी हमें संगीत का संगत देखने को मिला।

बाहर खूब बारिश हो रही थी। मौसम में सर्द का थोड़ा अंश मुझे अनुभव हो रहा था। शायद दिल्ली के पुराने किले की याद का असर है यह। हम फिर बारिश में भिंगते घर लौट आए लेकिन मन में सरोद पर सुना राग मल्हार बजर रहा था...संगीत की ताकत यही है शायद।

Thursday, May 21, 2015

मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता..

बाबूजी, जब तक आप खड़े थे आपसे आँख मिलाकर बात नहीं कर पाया। मेरी आँखें आपके सामने हमेशा झुकी रही। अब जब रोज यह कहना पड़ता है कि बाबूजी आँखें खोलिए, दवा खाइये...तो मैं घंटों तक अंदर से डरा महसूस करता हूँ। आपसे आँख मिलाने की हिम्मत मैं अब भी नहीं कर पा रहा हूँ।

अब जब रोज आपको बिछावन से उठाता हूँ और फिर वहीं लेटाता हूँ तो आपके शरीर को छूने भर से अजीब की शक्ति मिलती है। इस शक्ति को खुद को खुद से लड़ने के लिए बचाकर रख रहा हूँ।

आपके शरीर में जबसे घाव ने अपनी जगह बना ली तो मैं अंदर से टूट गया। मैंने कभी आपके शरीर को इस तरह लाचार नहीं देखा था। धोती-कुर्ते में आपको सलीके से देखता आया। माँ हमेशा आपके घाव को साफ़ करने में लगी रहती है, वही सबकुछ करती हैं। नहीं मालूम कि आप ये सब समझ रहे हैं या नहीं लेकिन हर बार जब आपके घाव पर बेटाडिन दवा लगाई जाती है तो मैं सिहर जाता हूँ।

मैं जानता हूं कि ये दवा घाव के फंगस को हटाने का काम करती है लेकिन दर्द भी तेज करती है कुछ देर के लिए ...इन सब प्रक्रिया में भी आप के चेहरे पर भाव नहीं देखकर आपका दर्द खुद पी लेता हूँ। आपको उठाकर कुर्सी पर नहीं बैठा सकता, क्योंकि बैठते ही आपका बीपी हाई हो जाता है और फिर घंटों मूर्छित पड़े रहते हैं।

आपको स्नान भी नहीं सकता, घाव के डर से। लेकिन इन सबके बावजूद अपना भरम बनाये रखने के लिए आपको घाव सूखने की सबसे ताकतवर दवा बायोसेफ सीवी- 500  देता हूँ कि आप ठीक हो जाएंगे और बेड सोर को हरा देंगे। मैं जानता हूं कि यह सब वक्त का फेर है, जो आपको तंग कर रहा है।

याद है आपको, दसवीं पास करने के बाद जब आपने टाइटन की कलाई  घड़ी दी थी तो क्या कहा था? मुझे याद है, आपने कहा था वक्त बड़ा बलवान होता है। वक्त हर दर्द की दवा भी अगले वक्त में देता है। गणित में कम अंक आने पर आप गुस्सा गए थे। आपने कहा था जीवन गणित है और तुम उसी में पिछड़ गए...फिर आपने 12वीं में कॉमर्स विषय लेने को कहा और चेतावनी दी थी कि इसमें पिछड़ना नहीं है। याद है न आपको  बाबूजी! मैंने आपके भरोसे को बनाये रखा था तो आपने गिफ्ट में हीरो साइकिल दी थी। फिर दिल्ली भेज दिया, कॉलेज की जिंदगी जीने।

जब भी पैथोलॉजिकल जांच में आपका सोडियम गिरा हुआ और सूगर लेवल हाई देखता हूँ तो मैं खुद चक्कर खा जाता हूँ। इलोकट्रेट इम्बैलेंस आपके लिए अब नई बात नहीं रही लेकिन मैं डर जाता हूं। हमेशा अपने कन्धे पर भार उठाने वाले शख्स को इस कदर लाचार देखकर मेरा मन टूट जाता है। लेकिन तभी आपकी एक चिट्ठी की याद आ जाती है जो आपने मुझे 2003 में भेजी थी दिल्ली के गांधी विहार पते पर। रजिस्ट्रड लिफाफे में महीने के खर्चे का ड्राफ्ट था और पीले रंग के पन्ने पर इंक कलम से लिखी आपकी पाती थी।

आपने लिखा था कि “बिना लड़े जीवन जिया ही नहीं जा सकता। लड़ो ताकि जीवन के हर पड़ाव पर खुद से हार जाने की नौबत न आए।“ आपकी इन बातों को जब याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि आप क्यों नहीं अपने घाव से लड़ रहे हैं। आप क्यों हार रहे हैं।

मैं आपको फिर से खड़ा देखना चाहता हूँ। बाबूजी, मुझे आप लेटे हुए अच्छे नहीं लगते। मुझे आपसे कार ड्राइव करना सीखना है। दीदी ने जब कार दी तो पहली बार स्टेयरिंग पर हाथ रखा तो आपकी वो बात याद आई – “जब कार लाओगे तो मैं क्लच- ऐक्सिलेटर-गियर का खेल तुम्हें सिखाऊंगा ....” लेकिन वो भी नहीं हो सका और यही वजह है कि मैं आज भी कार चलाने से झिझकता हूँ। मैं हर बात सबको कह नहीं पाता, बहुत कुछ मन में ही रख लेता हूं। जानता हूं ये ठीक नहीं है लेकिन आदत से मजबूर हूं।

जब भी चनका जाता हूं तो आपका केसरिया रंग का वो दोनों एस्कार्ट ट्रेक्टर याद आ जाता है, जिसे आप हाफ पेंट , जूता और हेट पहनकर खेत में निकालते थे..आप तो देवघर , दरभंगा सबजगह ट्रेक्टर से पहुंच जाते थे या फिर अपनी काले रंग की राजदूत से। कितनी यात्राएं की आपने। याद है न आपको दिल्ली के बसंतकुंज स्थित फोर्टिस अस्पताल में डाक्टर दीपक ने क्या कहा था – आपने ड्राइव बहुत किया है, लंबी दूरी मोटरसाइकिल से तय की है...इतना नहीं चलाना चाहिए था...। जब भी मैं लंबी दूरी बाइक से तय करता हूं तो आप याद आ जाते हैं।

जानते हैं जब आपके लिए व्हील चेयर खरीदकर लाया था तो रास्ते में रूककर खूब रोया था। मैंने कभी भी आपको सहारा लेकर चलते नहीं देखा था ...सहारा देते हुए ही देखा। बिजली के बिछावन पर लेटे देखकर भी मेरा यही हाल होता है। सच कहूँ तो अब डाक्टरों से डर लगता है। डाक्टरी जांच से भय होता है। मैं खुद साउंड एपिलेप्सी का मरीज बन गया..मेडिकल फोबिया का शिकार हो गया हूँ। अस्पताल जाने के नाम पर पसीने छूट जाते हैं। पहले गूगल कर लेता हूं कि फलां रोग का इलाज क्या है...

आप जानते हैं बाबूजी, मेरी एक किताब आ रही है राजकमल प्रकाशन से। आपने कहा था न कि हिंदी में राजकमल प्रकाशन का स्तर ऊंचा है और जब भी लिखना तो उम्मीद रहेगी कि राजकमल से ही किताब आए... बाबूजी, मेरी किताब उसी प्रकाशन से आ रही है।  आप यह सुनकर क्यों नहीं खुश हो रहे हैं ? आप सुनिए तो...

चनका में आपकी अपनी एक लाइब्रेरी थी न जहां  राजकमल प्रकाशन की किताबें रखने के लिए काठ वाली एक आलमारी थी अलग से! आपने दादाजी के नाम से वह लाइब्रेरी तैयार की थी। मुझे कुछ कुछ याद है। लाइब्रेरी की सैंकडों किताबें आपने बांट दी। आप लोगों को  किताब पढ़ाते थे।

एक बार जब मैंने आपसे पूछा कि किताबें जो लोग ले जाते हैं वो तो लौटा नहीं रहे हैं? आपने कहा था- “किताब और कलम बांटनी चाहिए। लोगों में पढ़ने की आदत बनी रहे, यह जरुरी है। देना सीखो, सुख मिलेगा। “ अब जब मेरी किताब की बातें हो रही है तो आप चुप हैं ..इसलिए मैं सबकुछ करने के बाद भी खुद से खुश नहीं हूँ क्योंकि आप मेरे लिखे में गलती नहीं निकाल रहे हैं।  आप मेरे आलोचक हैं, प्रथम पाठक हैं.. आप समझ क्यों नहीं रहे हैं।

किताब को लेकर जब भी राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम से बात होती है तो मैं अपना दुःख छुपा लेता हूँ। मैं उन्हें कैसे बताऊँ अपने भीतर की पीड़ा...एक एक शब्द लिखते वक्त अंदर का संत्रास झेलता हूँ। यह दुःख मैं शेयर नहीं कर पा रहा हूँ ...किसी से नहीं। जब भी सत्यानन्द निरूपम से किताब आदि को लेकर बात करता हूँ तो बस मुस्कुरा देता हूँ ताकि अंदर की पीड़ा और आंसू बाहर न आ जाए।

सत्यानंद निरुपम सर को  कैसे कहूँ कि बाबूजी के लिए ही लिखता रहा हूँ लेकिन अबकी बार वे कुछ नहीं समझ पा रहे हैं। मैं भीड़ में अकेला हो चला हूँ। फिर सोचता हूँ कि शायद मन के तार सत्यानंद से कभी न कभी जुड़ जाएंगे तो उन्हें सब बातें बताऊंगा।

बाबूजी, आपको तो रवीश की रिपोर्ट बहुत पसंद है न। आपने तो उसीके लिए ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में केबल का तार लगाया था ..याद है न। अयोध्या पर रवीश की एक रपट आई थी तो आपने फोन किया था कि रिपोर्टिंग को इस अंदाज में करना चाहिए। बाबूजी, हाल ही में रवीश ने अपने रिपोर्ट में मेरा लिखा पढकर सुनाया था,  दुःख की ही घड़ी में लेकिन सुनाया था। आपने उसे भी नहीं देखा...क्यों ..? रवीश आपका हालचाल पूछते हैं और आप है कि जवाब भी नहीं देते। कुछ तो कहिये....

बाबूजी, सुशांत झा आपको याद हैं न ! विरंची जी के बेटे, मधुबनी वाले। आप उनकी बात खूब सुनते थे न जब वे पूर्णिया आये थे। वे भी आपका हाल चाल लेते हैं। आपने उनके बारे में कहा था कि इनके संपर्क में रहिये, इनके पास इतिहास - भूगोल की कथाएँ हैं। इनसे बहुत कुछ सीखने की बात आपने कही थी। हां बाबूजी , मैं सुशांत भाई के संपर्क में रहता हूँ, उनसे सीखता रहता हूं। वे तो आपके चनका के बारे में भी बात करते रहते हैं। मेरे सभी दोस्त आपके बारे में पूछते रहते हैं लेकिन आप है जो खामोशी का चादर ओढ़ लिए हैं।

जानते हैं आपकी खामोशी की वजह से है कि मैं परेशान रहता हूँ। जबसे आपने बिछावन पकड़ा है, कहां कुछ कहा मुझसे। अब तो साल होने जा रहे हैं। कुछ तो बोलिए..डांट ही लगाइए..लेकिन कुछ तो कहिए।

एक बात जानते हैं, इस बार आंधी बारिश के तांडव में भी आपके हाथ से लगाये लीची और कटहल गाछ फल से लदे हैं। दोपहर में गाम के बच्चे उसमें लूदके रहते हैं , चमगादरों की तरह ...मैं बस उन्हें हँसते खिलखिलाते देखता रहता हूँ। आप सबके लिए कुछ न कुछ लगाकर लेट गए हैं ..अब उठिए और मुझे भी यह तरकीब सीखा दीजिये न बाबूजी.....आप मेरी बात सुनिए न ...।

Tuesday, May 19, 2015

किसानों के अन्न बैंक ‘बखारी’ की कहानी

girindra nath jhaमुझे याद है जब बचपन में धान की तैयारी होती थी तो घर के सामने महिलाएं एक गीत गाती थीं. ‘सब दुख भागल कि आइलअगहनमा, धनमा के लागल कटनिया, भर लो कोठारी, देहरियो, भरल बा, भरल बाटे बाबा बखरिया अबकी बखारी में भरी-भरी धनमा, छूटी जइहें बंधक गहनमा।” इस गीत में बखारी और धान के संबंध के बारे में विस्तार से बताया गया है। बखारी, जो किसानों का अन्न बैंक होता है लेकिन अब यह बैंक गायब होने के कगार पर है और ऐसे में इस तरह के गीत भी सुनने को नहीं मिलते हैं।

अन्नदाताओं की जिन्दगी को जब आप नजदीक से देखेंगे तो पाएंगे कि वे गाँव घर में ही दुनिया की सारी खूबियों को समाकर रखते आए हैं। ये कोई नई कहानी नहीं है बल्कि बरसों पुरानी है। उनका अपना एक अन्न बैंक होता है। गोदाम संस्कृति तो अब आई है लेकिन अन्न रखने की उनकी अपनी शैली है, जिसे कोसी इलाके में बखारी कहते हैं।
bkhari 

गाँव से जुड़ाव रखने वाले यह बात जानते होंगे कि किसानी कर रहे लोग सालभर के लिए अन्न जमाकर रखते हैं। जब गोदाम संस्कृति का आगमन गाँव में नहीं हुआ था तब बड़े-बड़े किसान तो अपने घरों के सामने कई बखारी बनाकर रखते थे, जहां गाँव के छोटे और सीमांत किसान अपना अन्न रखते थे। गाँव के आपसी समन्वय को इस छोटी सी बात से आप समझ सकते हैं।


”धान के पान, मोरो पिया खइहें पान।” इस कहावत का अर्थ यह है कि यदि धान का ही पान है तो, मेरे पिया भी खाएंगे पान। यानी धान कोई महंगी वस्तु नहीं। दुर्लभ भी नहीं। कहावत भी उस समय बनी होगी जब किसान के घरों में पैसा नहीं होता था। कहावत में धान को गरीब का साथी बताया गया है। धान से ही पान मिलेगा तोए मेरा पिया भी पान खाएगा। ऐसे में बखारी ही उस समय किसानों का बैंक हुआ करता था।अन्नदाताओं और उसके भंडारण का महत्व हमारे यहां कि इस कहावत से आप समझ सकते हैं।


बखारी या अन्नागार में अन्न को भंडारित किया जाता है। प्राचीन काल में मिट्टी के बर्तनों में अन्न भंडारित किया जाता था। कुछ किसान कच्ची मिट्टी और भूसे से अन्नागार बनाते थे जिसको ‘डेहरी’ कहा जाता था। इसे ‘अन्न की कोठी’ भी कहते हैं।

बांस और घास-फूस की मदद से बखारी बनाया जाता है। बखारी को मिट्टी से लेपकर उसे खूबसूरत बना देते हैं किसानी करने वाले लोग। कई बखारी में लोक कलाओं को शामिल किया जाता है। बखारी किसानों की लोक कला संस्कृति का बेजोड़ नमूना है। माटी से अन्न का जुड़ाव भंडारण की देसी पद्धति का सबसे नायाब उदाहरण है। उत्तर बिहार के ग्रामीण इलाकों में एक समय में आपको हर घर के सामने बखारी देखने को मिल जाता, लेकिन समय के साथ-साथ बखारी की संख्या कम होती चली गई। इसके पीछे कई कारण हैं। बखारी मतलब अनाज के लिए बना भंडारगृह, जहां धान-गेहूं रखे जाते हैं।


बखारी शब्द का प्रयोग ग्रामीण इलाकों में कई मुहावरों में किया जाता है। मसलन गे गोरी तोहर बखारी में कतै धान। (ओ, गोरी तेरे भंडार में है कितना धान) बखारी बांस और फूस के सहारे बनाया जाता है। यह गोलाकार होता है और इसके ऊपर फूस (घास) का छप्पर लगा रहता है। इसके चारों तरफ मिट्टी का लेप लगाया जाता है। (जैसे झोपड़ी बानई जाती है) बखारी का आधार धरती से लगभग पांच फुट ऊपर रहता है, ताकि चूहे इसमें प्रवेश नहीं कर पाएं।


उत्तर बिहार के ग्रामीण इलाकों में अभी भी बखारी आसानी से देखे जा सकते हैं। हर किसान के घर के सामने बखारी बना होता है। जिस किसान के घर के सामने जितना बखारी, मानो वही है गाँव का सबसे बड़ा किसान। कई के घर के सामने तो 10 से अधिक बखारी भी होते हैं, हालांकि स्टोर परम्परा के आने के बाद पुरानी बखारी परम्परा कमजोर हो गई है।


इन बखारियों से अन्न निकला भी अलग तरीके से जाता है। इसके ऊपर में जो छप्पर होता है, उसे बांस के सहारे उठाया जाता है और फिर सीढ़ी के सहारे लोग उसमें प्रवेश करते हैं और फिर अन्न निकालते हैं। एक बखारी में कितना अनाज है, इसका अंदाजा किसान को होता है।

हर एक का अलग साइज होता है। इसे मन (40 किलोग्राम-एक मन) के हिसाब से बनाया जाता है। बखारी की दुनिया ऐसी ही कई कहानियों से भरी पड़ी है।


कुछ किसान तो अपने आंगन में छोटी बखारी भी बनाकर रखते थे। इन बखारियों को खासकर महिलाओं के लिए बनाया जाता था। इसकी ऊंचाई कम हुआ करती थी, ताकि आसानी से महिलाएं अन्न निकाल सके। धान और गेहूं के लिए जहां इस तरह की बखारी बनाई जाती थी वहीं चावल के लिए कोठी बनाया जाता था।

कोठी पूरी तरह से माटी का होता था। इसे महिलाएं और पुरुष कारीगर खूब मेहनत से बनाते थे। धीरे-धीरे गाँव घर से यह सारी चीजें गायब होती जा रही हैं। ग्राम्य संस्कृति इन चीजों के बिना हमें अधूरी लगती है।

Friday, May 08, 2015

जब शहर हमारा सोता है...

हल्की हल्की हवा चल रही है। आसमान में बादलों के संग तारे टिमटिमा रहे हैं। टेबल पर खालिद हुसैनी की किताब द काइट रनर है लेकिन मन अचानक चनका-पूर्णिया से दिल्ली पहुँच गया है। हवा के झोंके की तरह मन दिल्ली की गलियों में गोता खाने लगा।

मुखर्जी नगर और गांधी विहार से मन के तार अचानक जुड़ गए हैं। बत्रा सिनेमा से कुछ कदम आगे आईसीआईसीआई बैंक का एटीएम और उसके सामने मैंगो-बनाना सैक वाले सरदार जी का स्टॉल याद आ रहा है, पता नहीं ये दोनों अब वहां हैं या नहीं और हैं तो किस रूप में।

रोशनी में डूबे मुखर्जीनगर में हम शाम ढलते ही एक घंटे के लिए आते थे। इधर –उधर कभी कभार घुमते थे। दरअसल हम आते थे गर्मी में सरदार जी के स्टाल पर जूस पीने और उसके सामने चारपाई पर बिछी पत्र पत्रिकाओं में कुछ देर के लिए खोने के लिए।

 20 रुपये में एक ग्लास जूस पीते थे और फिर मुफ्त में हफ्ते की हर पत्रिका पर नजर घुमा लेते। उस वक्त नौकरी नहीं थी, पढ़ने के लिए पैसे मिलते थे। इसलिए खर्च को लेकर बेहद सतर्क रहना पड़ता था। कथादेश पत्रिका से मेरा पहला इनकाउंटर उसी चारपाई वाले बुक स्टॉल पर हुआ था।

आज पता नहीं एक साथ इतना कुछ क्यों याद आ रहा है ? सचमुच मन बड़ा चंचल होता है। मुखर्जीनगर का वो चावला रेस्तरां याद आ  रहा है जहां बिहार के होस्टल वाली जिंदगी से निकलने के बाद पहली दफे चाइनीज व्यंजनों का मजा उठाया था। उस वक्त लगा कि यह रेस्तरां नहीं बल्कि पांच सितारा होटल है। हम पहली बार किसी रेस्तरां में खाए थे।

चावला रेस्तरां के बगल से एक गली आगे निकलती थी। कहते थे कि इस गली में इंडियन सिविल सर्विसेज का कारखाना है, मतलब कोंचिग सेंटर । उस गली में खूब पढ़ने वाले लोगों का आना जाना हमेशा लगा रहता था।  ऐसे लोगों को हम सब 'बाबा' कहते थे उस वक्त। पता नहीं अब क्या कहा जाता है :)

मैं इस वक्त खुद को 2002 यानि की 13 साल पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया है। फेसबुक का वह काल नहीं था..वो तो बस मौखिक काल था..हम आमने सामने बैठकर चैट करते थे तब :)

मैं याद करता हूं तो स्मृति में  मुखर्जी नगर और गांधी विहार के बीच एक पुलिया आ जाती है। बदबूदार पुलिया। लेकिन उस बदबू में भी अपना मन रम जाता था। पूरे दिल्ली में उस वक्त केवल मेरे लिए, एक वही जगह थी जहां पहुंचकर मैं सहज महसूस करता था।

दरअसल उस पुलिया पर मुझे गाम के कोसी प्रोजेक्ट नहर का आभास होता था। भीतर का गाँव वहां एक झटके में बाहर निकल पड़ता और मैं मन ही मन खुश हो जाता था।

इस वक्त मुझे 81 नंबर की बस याद आ रही है, फटफट आवाज करते शेयर वाले ऑटो, रंगीन रिक्शे...ये सब आँखों के सामने तैर रहे हैं इस वक्त। मैं अब इंदिरा विहार की तरफ पहुँच जाता हूँ वहां एक बस स्टॉप था, जिसका नाम था- मुखर्जी नगर मोड़। मैं उस मोड़ पर 912 नंबर की बस का इंतजार करता था, सत्यवती कालेज जाने के लिए।

बसों के नंबर से उस वक्त हम दिल्ली को जीते थे। तब मेट्रो नहीं आया था। धुआं उड़ाती बसों का आशियाना था दिल्ली। मेरा वैसे तो अंक गणित कमजोर रहा है लेकिन बस के अंकों में कभी हम मात नहीं खाए :)

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान मुखर्जी नगर के आसपास का इलाका हमारा गांव हो गया था, जिसके मोहल्ले, गलियां, पार्क .. ये सब मेरे लिए गाम के टोले की तरह हो चले थे। सब जगह अपने इलाके के लोग मिल जाते। इसलिए उस शहर ने कभी भी मेरे भीतर के गांव को दबाने की कोशिश नहीं की क्योंकि हम बाहर-बाहर शहर जीते थे और भीतर-भीतर गांव को बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हुए अंचल की सांस्कृतिक स्मृति को मन की पोथी में संजोते हुए शहर को जी रहे थे...

Tuesday, May 05, 2015

जिला पुरैणिया की कहानी-कुछ किंवदंतिया, कुछ इतिहास

मूलत: मधुबनी से ताल्लुक रखनेवाले सुशांत झा युवा पत्रकार, अनुवादक और राजनीतिक विश्लेषक हैं। उन्होंने रामचंद्र गुहा की पुस्तकों ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ और ‘गांधी बिफोर इंडिया’ का पेग्विन के लिए अनुवाद किया है। साथ ही उन्होंने पेट्रिक फ्रेंच की किताब ‘इंडिया ए पोर्ट्रेट’ का भी अनुवाद किया है। दूरदर्शन और इंडिया न्यूज में कार्य, एसपी सिंह युवा पत्रकारिता सम्मान-2014 से सम्मानित और सोशल मीडिया में सक्रिय सुशांत ने आईआईएमसी, नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढाई है। पूर्णियां पर उनका यह आलेख पढ़ा जाए। 
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आधुनिक पूर्णिया जिला भारत के सबसे पुराने जिलों में से एक है और इसकी स्थापना 14 फरवरी 1770 को हुई थी। ये वो जमाना था जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने पलासी(1757) और बक्सर(1764) की लड़ाई में बंगाल के नवाब, मुगल बादशाह और अवध के नवाब को पराजित कर दिया था और  मुगल सम्राट से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अपने नाम करा ली थी।

पुराने पूर्णिया जिले में आज के पूर्णिया, अररिया, कटिहार और किशनगंज जिले तो थे ही, साथ ही बंगाल में दार्जिलिंग तक का इलाका था। पूर्णिया जिले की स्थापना कब और किस प्रक्रिया से हुई इसे खोजने का श्रेय पूर्णिया के ही प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ(प्रो) रामेश्वर प्रसाद को जाता है जिन्होंने कई सालो के अथक मेहनत के बाद उसकी सही तारीख और उस जमाने की इमारतों के स्थल तक खोज निकाले। यह लेख मुख्यत: डॉ प्रसाद से हुई बातचीत के पर ही आधारित है।

पूर्णिया का नाम पूर्णिया कैसे पड़ा इसके पीछे कई तरह की किंवदंतियां हैं लेकिन वैज्ञानिक प्रमाण किसी का उपलब्ध नहीं है। मुगल बादशाह अकबर के समय भारत में जो पहला आधुनिक सर्वे टोडरमल के द्वारा हुआ था(संभवत: 1601) उसमें पुरैनिया शब्द का जिक्र है। यानी पुरैनिया का नामकरण आज से करीब 400 साल पहले  हो चुका था।

 कुछ लोग इसे पूरण देवी मंदिर से जोड़कर देखते हैं जिसके पीछे संत हठीनाथ और संत नखीनाथ की कहानी है। लेकिन संत हठीनाथ का काल बहुत पुराना नहीं है। वो समय आज से करीब 250 साल पहले का है-लेकिन टोडरमल का सर्वे 400 साल पुराना है-जिसमें पूर्णिया का जिक्र आ चुका है। लेकिन जनमानस में पूरण देवी मंदिर की जो श्रद्धा है उसे देखते हुए कई लोग ऐसी बात जरूर करते हैं।

एक मान्यता यह भी है कि पूर्णिया के इलाके में कभी घनघोर जंगल था, जिस वजह से लोग इसे पूर्ण अरण्य कहते थे। ऐसा संभव है क्योंकि पूर्णिया की अधिकांश बसावट नयी है और आबादी बहुत पुरानी नही है। यहां के जलवायु की वजह से यहां की आबादी ज्यादा नहीं थी और स्वभाविक है कि यहां घना जंगल था। पूर्ण अरण्य यानी पूरा जंगल होने की वजह से लोग इसे पूर्णिया कहने लगें हो तो कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन इस बात का भी कोई लिखित दस्तावेज नहीं है।

एक तर्क यह है कि यह इलाका पहले काफी दलदली था और यहां नालों, धारों और जलाशयों में काफी ‘पुरनी’ के पत्ते होते थे। पुरनी का पत्ता तालाब या नदी में खिलनेवाले कमल के पत्ते होते हैं-जिसका इस्तेमाल पारंपरिक भोजों में खाने के लिए किया जाता था। भारी तादाद में पूरनी के पत्ता के उत्पादन होने की वजह से हो सकता है कि लोग इस इलाके को पुरैनिया कहने लगें हो-जो बाद में अपभ्रंश होकर पूर्णिया बन गया।

जहां तक पूरण देवी के मंदिर का सवाल है सन् 1809 में पूर्णिया के बारे में हेमिल्टन बुकानन ने एक रिपोर्ट लिखी थी- एन अकांउट ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ पूर्णिया। इसमें इलाके का काफी बारीक विवरण है। लेकिन उस रिपोर्ट में पूरण देवी मंदिर का जिक्र नहीं है, हां उस रिपोर्ट में हरदा के कामाख्या मंदिर का जिक्र जरूर है! यानी ऐसा संभव है कि पूरण देवी मंदिर का निर्माण उस समय तक न हुआ हो!

खैर, उस जमाने के पुरैनिया(जो बाद में पूर्णिया बना-अंग्रेजी में तो कई-कई बार स्पेलिंग बदल गया!) पहला अंग्रेज सुपरवाइजर-कलक्टर बहाल हुआ 14 फरवरी 1770 को और उसी दिन को आधुनिक पूर्णिया जिले का स्थापना दिवस माना जाता है। उस कलक्टर का नाम था-गेरार्ड डुकेरेल। डुकेरल साहब जब कलक्टर बनकर यहां आए तो इलाके में घने जंगल थे, आबादी कम थी और बसने लायक इलाका नहीं था। इतने बड़े इलाके में(आज के तीनों जिले और बंगाल का इलाका मिलाकर) बहुत कम आबादी थी-महज 4 लाख के करीब।

उसी समय बंगाल में भयानक अकाल पड़ा था जिसमें बंगाल की एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गई थी। यह बात इतिहास में दर्ज है। पूर्णिया की आबादी के 4 लाख में से 2 लाख लोग मर गए। लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए अपनी जमीन, अपने जानवर यहां तक की अपने बाल-बच्चों-औरतों तक को बेच डाला था। उस समय डुकरैल को यहां का कलक्टर बनाया गया था। स्थिति वाकई गंभीर थी। नए कलक्टर को आबादी बसानी थी, व्यवस्था कायम करनी थी और हजारों-लाखों लाशों की आखिरी व्यवस्था करनी थी। डुकरैल ने वो सब काम पूरी मुस्तैदी से किया और प्रशासनिक ढ़ाचा खड़ा किया।

लेकिन डुकरैल का नाम इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया। डुकरैल को उसके अच्छे कामों के लिए बहुत याद नहीं किया गया-जिसका वो हकदार था। दरअसल, डुकरैल से जुड़ी हुई एक कहानी है जो बहुत कम लोगों को पता है। डुकरैल जब पूर्णिया का कलक्टर बनकर आया तो उसे पता चला कि किसी नजदीक के गांव में एक स्त्री विधवा हो गई है और लोग उसे सती बनाने जा रहे हैं।

 इतना सुनते ही डुकरैल सिपाहियों के साथ घोड़े पर सवार हुआ और उसने उस विधवा की जान बचाई। इतना ही नहीं, डुकरैल ने उस विधवा से विवाह कर लिया और सेवानिवृत्ति के बाद उसे अपने साथ लंदन ले गया। उस महिला से डुकरैल के कई बाल-बच्चे हुए। कई सालों के बाद अबू तालिब नामका एक यात्री जब लंदन गया तो उसने बुजुर्ग हो चुके डुकरैल और उसकी पत्नी के बारे में विस्तार से अपने वृत्तांत में लिखा।

 ये घटना उस समय की है जब भारत में सती प्रथा पर रोक लगाने संबंधी कानून नहीं बना था। वो कानून उसके बहुत बाद सन् 1830 में में राजा राम मोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंटिक के जमाने में बना-जबकि डुकरैल की कहानी 1770 की है। यानी सती प्रथा कानून से करीब 60 साल पहले की। लेकिन डुकरैल को कोई किसी ने सती प्रथा के समय याद नहीं किया, न ही उसे बाद में वो जगह मिली जिसे पाने का वो सही में हकदार था।

 *डॉ रामेश्वर प्रसाद ने बिहार सरकार और पूर्णिया के कलक्टर से ये आग्रह भी किया कि कम से कम पूर्णिया में एक सड़क का नाम या पुराने कलक्ट्रिएट से लेकर मौजूदा कलेक्ट्रिएट तक की सड़क का नाम ही डुकरैल के नाम पर रख दिया जाए-लेकिन अपने अतीत से कटी हुई, अनभिज्ञ और बेपरवाह सरकार ने इस मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया।

कल्पना कीजिए, अगर किसी दूसरे मुल्क में ऐसा कोई सुधारक हुआ होता तो वहां के लोगों ने क्या किया होता! लेकिन ये भारत है जिसे अपने अतीत पर कोई गौरव नहीं, न ही उसे सहेजने की उसे चिंता है।
डुकरैल के नाम पर अररिया(तत्कालीन पूर्णिया जिला) में आज भी एक गांव है! इसे लोग स्थानीय भाषा में डकरैल भी कहते हैं जो मूल नाम का अपभ्रंश है।

पूर्णिया के भूगोल पर कोसी का भी असर रहा है। एक जमाना था जब कोसी इस इलाके से बहती थी, कभी बहुत सुदूर अतीत में कोसी के ब्रह्मपुत्र में भी मिलती थी। लेकिन ये आज पश्चिम की तरफ खिसककर सुपौल से होकर बहती है और बाद में नीचे गंगा में मिल जाती है। पूर्णिया के इलाके से कोसी कोई डेढ सौ साल पहले बहती थी और जगह-जगह इसके अवशेष नदी की छारन के रूप में अभी भी दिख जाएंगे-जब आप पूर्णिया से पश्चिम की तरफ बढ़ेंगे। लेकिन कोसी एक दिन में खिसककर यहां से सुपौल की तरफ नहीं गई। उसमें सैकड़ों साल लगे और लोगों ने अपने आपको उसकी धारा के हिसाब से ढ़ाल लिया। लोग नदियों के साथ जीना जानते थे, इसीलिए कोसी को लेकर किसी के मन में कभी दुर्भाव नहीं पनपा। कोसी हमेशा उनके लिए मैया ही बनी रही-जो लोकगीतों, आख्यानों और किंवदंतियों में दर्ज है।

पूर्णिया की आबादी अभी भी कम है . पहले और भी कम थी। लेकिन इतनी कम आबादी होने की आखिर क्या वजह थी?  इसका जवाब पूर्णिया के जलवायू और कुछ प्राकृतिक परिवर्तनों में छुपा है।

हम पहले  ही लिख चुके हैं कि पूर्णिया में घने जंगल थे और इसकी वजह आबादी का लगभग न होना था। मिथिला और बिहार के अन्य इलाकों में पूर्णिया को कालापानी कहा जाता था-यानी मौत का घर। कुछ लोकोक्तियां इस बात का सबूत है जो हजारों सालों में आमलोगों ने अपने अनुभवों के आधार पर गढे हैं। एक लोकोक्ति है-‘जहर खो, ने माहुर खो, मरै के हौ त पुरैनिया जो’। यानी अगर मरना है तो जहर-माहुर नहीं खाओ...पूर्णिया चले जाओ!

आज से करीब 100 साल पहले तक पूर्णिया का पानी पीने लायक नहीं था और उससे तरह-तरह की बीमारियां हो जाती थी। पूरा इलाका जंगली और दलदली था। ऐसे में आबादी कैसे रहती? लेकिन सन् 1899 और 1934 के बड़े भूकंप ने कुछ ऐसी भूगर्भीय हलचलें की कि यहां के पानी में बदलाव आया और इलाका थोड़ा रहने लायक हो गया। उस समय तक आसपास के जिलों में आबादी का बोझ बढ़ने लगा था और जमीन पर दबाव भी बढ़ गया था। लोग नए इलाके की खोज में पूर्णिया आने लगे। यहीं वो समय था जब बड़े पैमाने पर केंद्रीय मिथिला, बंगाल और मगध के इलाके के लोगों ने यहां प्रवेश किया और ब़ड़ी-बड़ी जमींदारियां कायम की। इसलिए कहा जा सकता है कि पूर्णिया की बसावट अपेक्षाकृत नयी है और यहां का हरेक आदमी कुछ पीढ़ियों में आया हुआ प्रवासी है। पूर्णिया में आज अपेक्षाकृत कम आबादी, खुला-खुला इलाका और हरियाली जो दिखती है उसका कारण यहीं है।  

पूराने पुर्णिया में करीब 28 बड़ी जमींदारियां थीं जिसमें सबसे बड़ी जमींदारी गढबनैली(बनैली राज) का था जिसके बाद में करीब पांच टुकड़े हुए और जिसका बिहार और बंगाल में शिक्षा, कला आदि क्षेत्रों में काफी योगदान रहा। एक जमींदारी रवींद्रनाथ टैगोर की भी थी, जिसे टैगोर इस्टेट कहा जाता था।  अररिया का ठाकुरगंज इलाका उन्हीं  जमींदारी थी, जो उन्हीं के परिवार के नाम पर पड़ी थी। फनीश्वरनाथ रेणु की पुस्तकों में जिन जमींदारियों का जिक्र है, वे सब अपने मूल रूप में उस जमाने में थीं।
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यह आलेख हमारा पूर्णिया साप्ताहिक और इंडिया अनलिमिटेड पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है।

*(डॉ(प्रो) रामेश्वर प्रसाद ने ऑक्सफोर्ड, भागलपुर और बीन एन मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा में अध्यापन किया है। पूर्णिया पर शोध को लेकर देश विदेश में चर्चित। बिहार के स्वतंत्रता सेनानियों के ऊपर डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी का लेखन। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से इंटरनेशनल मैन ऑफ द ईयर पुरस्कार से सम्मानित। संप्रति पूर्णिया में ही रहते हैं)

Thursday, April 30, 2015

एक किसान की कहानी, रवीश कुमार की जुबानी


किसान गिरीन्द्र का पूरा ब्लॉग पढ़ें

मैं गिरीन्द्र। दो साल पहले तक दिल्ली और कानपुर में खबरों की दुनिया में रमा रहने वाला एक शख्स, जिसके लिए खबर की दुनिया ही रोजी रोटी थी, लेकिन उसके भीतर अपना एक गांव था, जिसमें रेणु की एक बस्ती थी...उनका मैला आंचल था...परती परिकथा थी।


उसी गांव ने मुझे महानगरीय जीवन से कोसों दूर अपनी परती जमीन की ओर ले जाने का काम किया और पेशे से पत्रकार गिरीन्द्र पहुंच गया सूबा बिहार के पूर्णिया जिला। अपने गाम-घर। खेती बारी करने। वही पूर्णिया जिला, जो इन दिनों तूफान की तबाही के कारण आप लोगों के जेहन में है। जहां के बारे में फणीश्वर नाथ रेणु कहते थे- आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान.. । यह सब एक झटके में नहीं हुआ था, इसके पीछे मन से हमने पांच साल तक लड़ाई लड़ी। तब जाकर मन राजी हुआ, गांव लौटने के लिए।

अब तो किसानी करते हुए दो साल हो गए हैं, मतलब कुल जमा 730 दिन। गिनती के इन दिनों में हमने ढेर सारे उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन साल 2015 मेरे जैसे किसानी कर रहे लोगों की परीक्षा ले रहा है। मार्च के अंत में हमने बिन मौसम बारिश का तांडव देखा। गेंहू और सरसों की फसलों को आंखों के सामने तबाह होते देखा, लेकिन पिछले मंगलवार को यानी 21 अप्रैल को प्रकृति की मार ने हमारी रही सही कमर भी तोड़ दी।

तूफान की चपेट में हमने सब कुछ गंवा दिया। मक्का की फसल चौपट हो गई। कहते हैं कि पूर्णिया जिले में घासफूस के घर में रहने वाले किसान मक्का की फसल से पक्का मकान का सफर तय करते हैं। खूब आमदनी होती है इसकी खेती से, लेकिन वक्त के आगे किसी की नहीं चलती है।

मंगल की रात आधे घंटे का तूफान ने हमारी जिंदगी को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है, जिसके आगे घुप्प अंधेरा है।  पिछले चार दिनों से बिजली हमसे दूर है। बिजली जो रोशनी देती है, वह भी हमसे दूर हो गई है। पता नहीं किसानी की किस्मत का गणित जोड़ घटाव करते हुए कैसे सब कुछ बांट देता है। गणित के उस सवाल की तरह जिसमें भाग करते हुए हमारे हिस्से में केवल शून्य ही नसीब होता है। शायद यही जीवन है। किसानी करते हुए हमने जीवन का इतना उलझा गणित नहीं देखा था।

कल तक जिस खेत में मक्के का जवान पौधा अपनी जवानी पर इठला रहा था, उसे हमने अपनी नजरों के आगे धरती मैया के गोद में रोते बिलखते देखा। खेती करते हुए हमने जाना कि हर फसल हमारे लिए संतान है। धान मेरे लिए बेटी की तरह है तो मक्का मेरा बेटा है, जो मुझे साल भर का राशन पानी देता है। उस मक्के को जब मैंने खेत में लुढके देखा तो मन के सारे तार एक साथ टूट गए।

जब मैं वातानुकूलित कैबिन वाले ऑफिस में पत्रकारिता किया करता था तो लंच टाइम में हम गांव देहात की बातें करते थे। आह ग्राम्य जीवन!  जैसे जुमले से गांव घर की बातें करते थे। हमारे लिए गांव उस वक्त एक ऐसी दंतकथा की तरह था, जिसमें केवल सुख ही सुख होता है। हम अंचल की सांस्कृतिक स्मृति में हरी दूब की तलाश किया करते थे, लेकिन जब किसानी करने धरती पर उतरे तो जान गया कि इस धरती पर किसानी ही एक ऐसा पेशा है जहां हम सौ फीसदी प्रकृति पर निर्भर होते हैं और यहां सुख की तलाश में दुख से रोज मिलनाजुलना होता है।

प्रकृति की बदौलत दौलत बनाते हैं और उसी की बदौलत दौलत को पानी में बहते भी देखते हैं। गाम की सुलेखा काकी का आंगन मंगल की रात तबाह हो गया। आंगन के चूल्हे में रात में रोटी पकी थी, दूध उबला था। खाने के बाद सब जब सोने गए तभी हवा का जोर बारिश के संग तबाही की पटकथा लिखकर आ चुका था और आंगन-घर सब कुछ उड़ाते हुए निकल गया और छोड़ दिया सुलेखा काकी को बस रोने के लिए।

सूबे के मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से ऊपर से देखकर निकल लिए। मुआवजा की मौखिक बारिश करते हुए वे शांत-चित्त मुद्रा में अखबारों –चैनलों पर अवतरित हुए लेकिन सुलेखा काकी जैसे लोगों का दुख बांटने जमीन पर कोई नहीं आना चाहता। गाम के अलाउद्दीन चच्चा कहते हैं-“ तुम तो खेती किसानी करते हुए लिखते पढ़ते भी हो न! तब तो तुम्हें पता होना चाहिए कि सूबे में चुनाव होने वाले हैं। अब तो तूफान भी सियासी करने वालों के लिए वक्त पर आने लगा है...। “ इतना कहने के बाद चच्चा की आंखें भर आईं और वे मुझे अपनी बंसबट्टी दिखाने लगे जहां बांस उखड़े पड़े हैं..।

किसानी करते हुए हम सुनहरे भविष्य का सपना देखते रहते हैं। फसल बेचकर जीवन की गाड़ी को और आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। देखिए न, इस बार उम्मीद थी कि फसल अच्छी होगी तो बाबूजी को एक बार फिर दिल्ली ले जाएंगे। वहां किसी अनुभवी न्यूरो सर्जन से दिखाएंगे। इस आशा के साथ कि वे फिर खड़े हो जाएं और मुझे समझाएं कि फलां खेत में आलू लगाना तो पूरब के खेत में गरमा धान। बाबूजी की तबीयत को लेकर मैं खुद को एक भरम में रखता आया हूं इस आशा के साथ कि वह ठीक हो जाएंगे। पिछले दो साल से मक्का की फसल मेरे उस भरम को मजबूत करता रहा है, लेकिन इस बार वो भरम भी टूट गया।


ये अनुभव केवल मेरा नहीं बल्कि मेरे जैसे सैंकड़ों किसानों का होगा, जिसने इस बार तूफान की तबाही को भोगा है। कल रात रेडियो पर सुना कि लोकसभा में शून्यकाल के दौरान संसद में तूफान से हुई तबाही का मुद्दा छाया रहा। मेरे जैसे किसान की गुजारिश बस इतनी है कि किसानी-मुद्दे को राजनीति की किताब का कवर पेज न बनाया जाए। पूर्णिया और प्रभावित जिले के किसानों तक सहायता पहुंचे।

उस किसान के बारे में दिल्ली में बैठे लोग सोचने की कोशिश करें, जिनके घर में मातम फैला है, उन घरों के बारे में सोचें जहां कि छत हवा में उड़कर कहीं दूर चली गई और बिलखते बच्चे धूप में रो रहे हैं। यह सब आंखों से देख रहा हूं। कैमरे का लैंस तस्वीरें लेने से मना कर रहा है।

मन के भीतर बैठा खुद का संपादक दुख की मार्केटिंग करने से मना कर रहा है, वह कहता है शब्दों के जरिये लोगों तक अपनी बातें पहुंचाओ। शब्द की ताकत ऐसी होती है कि वह दिल को छू लेता है। मन की बात सुनकर मैं सहम जाता हूं और एक नजर फिर अपने खेत की ओर देता हूं और फिर मुड़कर बिछावन पर लेटे बाबूजी को देखने लगता हूं। सोचता हूं कि यदि वे ठीक रहते तो मुझे समझाते- “डरो मत, लड़ो। किसानी करते हुए लड़ना पड़ता है और फिर वे कुछ मुहावरा सुनाते और कहते कि जाओ घुमो और तबाही के मंजर को महसूस करो ताकि तुम्हें अपना दुख कम दिखने लगे क्योंकि तुमसे भी ज्यादा क्षति और लोगों की हुई है।“

किसानी करते हुए खुद का दुख मैं शब्दों के जरिये बयां करता हूं। इस बार की तबाही मुझे सुखर कर रही है। तबाही का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। किसानी के मुद्दों से राजनीति की रोटी सेंकने वाले लोगों से डर भी लग रहा है। मुआवजा का बंदरबांट होना अभी बाकी है। लोगों तक मुआवजे की राशि कब पहुंचेगी या कितनी पहुंचेगी, ये भी एक कहानी होगी। हम सब उस कथा के चरित्र होंगे, जिसे बाद हर कोई हमें भूला देगा। लेकिन याद रखिए, रोटी के लिए गेहूं , चावल के लिए धान और मल्टीप्लेक्स में आपके पॉपकार्न के लिए मक्का हम सब ही उपजाते हैं। यदि एक आंधी हमें बरबाद कर सकती है तो याद रखिए एक अच्छा मानसून हमें बंपर फसल भी देगा। हम हार नहीं मानेंगे। हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में हैं। आंधी और बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेगा ये तो हमें पता नहीं, लेकिन इतना तो जरूर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मौसम की मार सहने के बाद हिम्मत जुटाकर फिर से खेतों में लग जाना है। केवल अपने और परिवार के पेट के लिए नहीं बल्कि आप सबों के डाइनिंग टेबल के लिए भी।

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'खेत में सन्नाटा है, ये ख़ामोशी डराती है..'



'मंगल की रात कोसी के किसानों के लिए अमंगल साबित हुई. पूर्णियों में हम जिस फ़सल को चार महीेने से पाल रहे थे, वो आधे घंटे में चौपट हो गई. मेरी किसानी एक झटके में मेरी आँखों के सामने लुढ़क गई.''
ये कहना है गीरिन्द्र झा का जो पेशे से किसान हैं और बिहार के पूर्णियां ज़िले में रहते हैं.
पूर्णियां उन कई ज़िलों में से है जहां मंगल की रात आए भयंकर तूफ़ान में 65 लोगों की मौत हो गई, लगभग 2000 घायल हैं और लाखों का नुक़सान हुआ है.

गिरिन्द्र झा का दर्द उन्हीं की ज़ुबानी

"मार्च के आख़िरी दिनों में हमने गेहूं को बर्बाद होते देखा था और अप्रैल के आखिरी दिनों में हमने तैयार खड़ी मक्के के फसल को काल के मुख में जाते देखा.
अब रोने के सिवा हमारे पास कोई विकल्प नहीं.
'डर खेत की ख़ामोशी से ..'
खेत में सन्नाटा पसरा है. सच कहूँ तो खेत की इस चुप्पी से डर लग रहा है.
फसल से हमें उम्मीदें थीं. फसल ही हमारी रोज़ी रोटी है.
धरती मैया को कुछ और ही मंज़ूर था!
शायद वो इस बार हमारी जीवठता की कठिन परीक्षा लेना चाहती है.
कल से ही हम सब बिन बिजली के हैं. ऐसा लगता है मानो रोशनी भी हम लोगों से जी चुराना चाहती है.
कल आसमान में जब मुख्यमंत्री का हेलीकाप्टर उड़ते गाँववालों ने देखा तो मेरे गांव के श्रवण मुर्मू ने कहा कि सरकार हमें और हमारी खेतों को शायद ऊपर से ही देख रही है!
इतना कहने के बाद वो फफक फफक कर रोने लगा.

'मुआवज़े का दर्द किसान ही जाने'

दरअसल मुआवज़ा जैसे सरकारी जुमले से हम किसान आजिज़ आ चुके हैं. साल 2011 में जो मक्के की फसल बर्बाद हुई थी उसका मुआवजा मुझे 2013 में मिला.
ऐसे में मेरे ग्रामीण श्रवण का दर्द आप समझ सकते हैं.
हम ऋण लेकर किसानी करते हैं. मक्का से हमारी उम्मीद थी. सोचा था फ़सल बेचकर बैंक का बकाया चुकता करेंगे.
बाबूजी के बेहतर इलाज के लिए बाहर जाएंगे, लेकिन उम्मीदें बस उम्मीदें ही रह गईं!
लीची और आम की फ़सल भी इस तूफ़ान में हमसे दूर हो गयी. आम के टिकोलों से लदे गाछ टूट गए, ऐसे जैसे बच्चों के खिलौने टूटते हैं.
बहुत कुछ गवां गए हम सब. किसानी का दर्द शायद दुनिया का सबसे ला-इलाज दर्द होता है. कोई दर्द निवारक दवा काम नहीं करती है.
गाँव की उन बस्तियों को हमने ताश की पत्तियों की तरह उड़ते देखा जहां घर टीन और चदरे से बने थे. घर के सामने फ़सल रखे थे, तैयार करने के लिए....पानी और हवा के तांडव ने उसे भी अपने पेट में रख लिया.

सच होती पुरानी कहावतें

अब हम जाएँ तो कहाँ जाएँ!
पूर्णिया ज़िले के लिये कभी एक कहावत प्रचलित थी - "जहर नै खाऊ, माहुर नै खाऊ, मारबाक होये त पूर्णिया आऊ."
मंगल की रात आये तूफ़ान ने हमें इस कहावत पर सोचने पर मजबूर कर दिया.
गाँव के युवा तबक़े के लोग कह रहे हैं कि वे अब निकल जाएंगे मजदूरी करने दिल्ली-पंजाब.
मज़दूरी के सिवा उनके पास अब कोई चारा नहीं बचा. नियति पर विश्वास करने वाले हम जैसे किसान अब बस यही कह सकते हैं - सबहि नचावत राम गोसाईं.
गाँव के 20-25 साल के लड़कों की बातें सुनने के बाद मैं अपने उजड़े खेत के सामने खड़ा ख़ुद से पूछ रहा हूँ कि कहाँ जाऊं मैं?
मुझे कबीर याद आ रहे हैं, उनकी एक वाणी है - कहाँ से आये हो कहाँ जाओगे?
पहले गेहूं और अब मक्का, आम और लीची गवांने के बाद मैं यही सब सोच रहा हूँ लेकिन इस उम्मीद के साथ कि उजाला तो होगा!
धरती मैया हमारी पुकार तो सुनेगी एक दिन .. उजड़े खेतों में अगली बार मक्का भी लहलहाएगा और गेहूं भी! आम भी होगा और लीची भी!
किसानी करते हुए हमने यही जीवठता सीखी है अपने गाँव से.
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