Monday, March 04, 2024

रेणु और गाम-घर

खेत में जब भी फसल की हरियाली देखता हूँ तो लगता है कि फणीश्वर नाथ रेणु खड़ें हैं, हर खेत के मोड़ पर। उन्हें हम सब आंचलिक कथाकार कहते हैं लेकिन सच यह है कि वे उस फसल की तरह बिखरे हैं जिसमें गांव-शहर सब कुछ समाया हुआ है। उनका कथा संसार आंचलिक भी है और शहराती भी। यही कारण है कि रेणु आंचलिक होकर भी स्थानीय नहीं रह जाते।


रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा।
गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूँ, बतियाता हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु का लिखा रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणु की जड़े दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है।
रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है 2005 में सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब Sadan Jha सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुँचा रहे थे।
अब जब पिछले दिनों को याद करता हूँ तो खुद से पूछता हूँ कि रेणु मेरे जीवन में कब आए? शायद 2002 में। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर की वजह से!
रेणु के बारे में बाबूजी कहते थे कि “ रेणु जी को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु जी को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन लैंस से गाम घर को देखना होगा।”
फिर मैं 2024 की शुरुआती महीने को याद करने लगता हूँ। सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत सदन झा सर पूर्णिया आते हैं, पुराने पूर्णिया जिला और फणीश्वर नाथ रेणु की दुनिया को देखने-बुझने। एक बार फिर उनकी वजह से अंचल के करीब होने का मौका मिला और हम फिर बन गए इस अंचल के विद्यार्थी।
गाँव के लोगों से उनकी ही कहानी सुनने लगा, गीत, कथा, उत्सव... यह सब सुनते हुए लग रहा है कि मानो रेणु का लिखा कुछ पढ़ रहा हूँ, एकदम ताजा-ताजा!
रेणु को केवल हम साहित्य से जोड़कर देखने की भूल न करें, रेणु की किसानी, रेणु का स्थानीय लोगों से जुड़ाव, जमीन-जगह और इस अंचल में उनकी पहुंच को समझने की भी जरूरत है। एक व्यक्ति किस तरह से खुद को केंद्र में रखकर एक अंचल का गाड़ीवान बन गया, यह भी तो एक कहानी है। और हम हैं कि उन्हें एक फ्रेम में रखकर दुनिया जहान को मैला आंचल और उनकी कृतियों में बांध देते हैं जबकि रेणु को उनके ही एक पात्र सुरपति राय की नजर से भी देखना होगा...
रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला।” इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए, यहाँ आइए, यहाँ ढूंढ़ना है और पाना है..।
इन दिनों जब पूर्णिया जिला के संथाली बस्ती को समझने की थोड़ी बहुत कोशिश कर रहा हूँ तो लगता है कि रेणु ने कुछ काम हम सबके लिए भी छोड़ रखा है, बस अंचल की आवाज को सुनने की जरूरत है, लोगों से गुफ्तगू करने की आवश्यकता है। रेणु के फ्रेम से निकलकर रेणु के ही पात्रों को, सामाजिक चेतना को फिर से समझने की जरूरत है।
यदि आप रेणु के पाठक रहे हैं तो समझ सकते हैं कि परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गांव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों में गढ़ देते हैं। गांव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं। लेकिन इन सबके बीच वह बहुत कुछ एक अलग रंग में भी लिख जाते हैं, उस रंग में छूपे असल रंग को देखने के लिए आपको पुराने पूर्णिया जिला को खंगालना होगा।
रेणु की यूएसपी की यदि बात की जाए तो वह है उनका गांव। वे अपने साथ गांव लेकर चलते थे। इसका उदाहरण 'केथा' है। वे जहां भी जाते केथा साथ रखते। बिहार के ग्रामीण इलाकों में पुराने कपड़े से बुनकर बिछावन तैयार किया जाता है, जिसे केथा या गेनरा कहते हैं। रेणु जब मुंबई गए तो भी 'केथा ' साथ ले गए थे। दरअसल यही रेणु का ग्राम है, जिसे वे हिंदी के शहरों तक ले गए। उन्हें अपने गांव को कहीं ले जाने में हिचक नहीं होती थी। वे शहरों से आतंकित नहीं होते थे. रेणु एक साथ देहात -शहर जीते रहे, यही कारण है कि मुंबई में रहकर भी औराही हिंगना को देख सकते थे और चित्रित भी कर देते थे। रेणु के बारे में लोगबाग कहते हैं कि वे ग्रामीणता की नफासत को जानते थे और उसे बनाए रखते थे।
पिछले कुछ महीनों से लिखना लगभग छूट सा गया था, लेकिन 4 मार्च एक ऐसी तारीख है अपने लिए कि एक फिल्ड रिपोर्ट तो लिखा ही चला जाता है, अनुभव गावै सो गीता की तरह।
खेती-बाड़ी करते हुए इस धरती के धनी कथाकर-कलाकार, समृद्ध किसान से मेरी अक्सर भेंट होती है, आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन जब भी डायरी लिखने बैठता हूँ तो लगता है सामने फणीश्वर नाथ रेणु खड़े हैं। छोटे-छोटे ब्योरों से लेखन का वातावरण गढ़ने की कला उनके पास थी। रेणु को पढ़ते हुए हम जैसे लोग गांव को समझने की कोशिश करते हैं। शुरुआत में रेणु साथ होते हैं और फिर एक दिन वे दूर चले जाते हैं ...अकेला छोड़कर और तब लगता है अंचल की दुनिया को अपनी नजर से भी देखने की जरूरत है।
रेणु पर लिखते हुए या फिर कहीं बतियाते हुए अक्सर एक चीज मुझे चकित करती रही है कि आखिर क्या है रेणु के उपन्यासों - कहानियों में जो आज के डिजिटल युग में भी उतना ही लोकप्रिय है ।
आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ। कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार, सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री, किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए। एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं।

Sunday, January 21, 2024

ठंड, हवा और गाम घर का बथुआ साग

धूप को देखना ख्वाब ही तो है! जलावन धू धू कर जल रहा है। लोगबाग दुआर और आंगन में आग के सहारे हैं। 
मोबाइल के युग में तापमान भी खबर बन गया है। हवा की रफ़्तार और अधिकतम - न्यूनतम तापमान की बात अलाव तापते हुए लोग कर रहे हैं। ठंड की वजह से आलू की पैदावार कम हुई है। वहीं मौसम की मार उन किसानों को उठानी पड़ रही है, जिन्होंने अक्टुबर के दूसरे हफ्ते में मक्का लगाया था। 

अभी चावल तैयार करने वाला ट्रैक्टर घर-घर घूम रहा है। उसकी आवाज़ दूर तक जाती है। घर तक चावल का मिल पहुँच गया है। किसान परिवार इस काम में भी लगा हुआ है। वैसे हवा का जोर जुलूम ढ़ा रहा है। 

खेत में अभी साग भी है, बथुआ साग। अंचल का बहुत ही लोकप्रिय साग। इसे बुना नहीं जाता है, धरती मईया किसान को अपने आँगन से यह साग देती है, इसके लिए किसान को कुछ भी खर्च करना नहीं पड़ता है।
बथुआ के संग भांग भी दिख जाता है। मित्र मिथिलेश कुमार राय की एक  कविता की पंक्ति है-  
'जीवन जैसे बथुआ का साग, जैसे सरदी की भोर! '

आग तापते हुए आज बथुआ पर लिखने का मन है। दरअसल बथुआ का अपना अर्थशास्त्र है, जिसकी व्याख्या बहुत ही कम हुई है। बथुआ मुफ्त में ही लोगों को मिलता है, शायद अधिकांश किसान इसके लिए पैसे नही वसुलते। यह एक वीड्स की तरह मक्का, गेंहुँ और सरसों की खेतों मे अपने आप उग जाता है और नवम्बर से फरवरी तक मौजूद रहता है। गाम घर में लोग खेत जाते हैं और बथुआ तोड़ कर ले आते हैं। 

बथुआ उखाड़ा नहीं जाता है, बल्कि बथुआ को तोड़ना पड़ता है।  यह भी कला है। अंगुठे और तर्जनी अंगुली को बथुए के जड़ तक आप ले जाइए और इन दोनों अंगुलियों के नाखून को कैंची की तरह इस्तेमाल करते हुए उसे काट दीजिए। बथुआ का जड़ जमीन मे ही रह जाएगा और खाने वाला हिस्सा आपको मिल जाएगा।

पांच दशक पहले तक बथुआ बिकता नहीं था, लेकिन अब बाजार में बथुआ बिक रहा है, यह गाँव का बाज़ार कनेक्शन है। बथुआ को लेकर एक और कथा गाँव घर में सुनने को मिलती है कि गाँव की बहुएँ बथुआ तोड़ने नहीं जाती है बल्कि गाँव की बेटियाँ ही बथुआ तोड़ती हैं! इस कहानी का सिरा पकड़ना होगा। 

फेसबुक पर मौजूद रूपम मिश्र जी एक कविता है, इसी विषय पर : 

"ये लड़कियां बथुआ की तरह उगी थीं!
जैसे गेंहूँ के साथ बथुआ
बिन बोये ही उग जाता है
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ,
बेटों की चाह में अनचाहे ही उग आती हैं।"

वैसे मुझे बथुआ के अर्थशास्त्र में रुचि है। किसान के खेत के इस उत्पाद का अपना समाजवादी मॉडल है। मतलब खेत में उपजता है लेकिन मुफ़्त में तोड़ा जा रहा है और गाम घर में मुफ़्त में ही थाली तक पहुँच रहा है! 

खैर, आज पछिया हवा जुलूम ढ़ा रहा है। सर्दी के इस मौसम में बथुआ राम जी हैं, हर दर्द की दवा! 

Sunday, December 24, 2023

अभिनय का ' रंग '

प्रिय Jitendra Nath Jeetu और युवा फिल्मकार सुनील पाल की शार्ट फिल्म है 'रंग'। कहने को फिल्म छोटी है, लेकिन बात बड़ी कह रही है। 
एक ऐसे दौर में जब राजनीति का रंग सिर चढ़कर बोल रहा हो, उस दौर में जीतू भाई की लिखी इस स्क्रिप्ट को देखी जानी चाहिए। 

रंग में मुख्य भूमिका में Manwendra Tripathy  हैं। आप कह सकते हैं कि यह मानवेंद्र के अभिनय का ' रंग ' है! 

फिल्म में साइकिल के जरिये मानवेंद्र आते हैं, देश के सहज नागरिक की तरह। केवल 15 मिनट की यह फिल्म है लेकिन मानवेंद्र भाई ने इन 15 मिनट में रंग दिखा दिया। 

रंग का कारोबार क्या है, इसे आप उनके अभिनय से देख सकते हैं, समझ सकते हैं!

Saturday, December 23, 2023

किसान दिवस की किसानी पीड़ा

आज किसान दिवस है! किसानों का भी दिन होता है, पता नहीं किसानी समाज इससे वाकिफ है कि नहीं ? अपना मानना है कि किसानों का दिन हो महज तारीख नहीं। 
बिहार में हूँ तो बात बिहार के किसानी समाज की ही करूँगा। आप उस परिवार से बात करें जो पहले 10-15 एकड़ जमीन पर खेती करता था। पहले घर के बच्चे पढ़ने के लिए बाहर जाते हैं, फिर नौकरी करते हैं और इसके बाद अपने माता - पिता को साथ ले आते हैं। वह खेती वाली जमीन को गांव में छोड़ बस जाते हैं शहर में। यह एक अजीब तरह का पलायन है। 

जमीन पर जो खेती करते हैं, वे किराया देते हैं। बात का एक सिरा यहां उस किराया देने वाले किसान से भी जुड़ा है। वह भी दरअसल माइग्रेंट लेबर ही है। फसल लगाकर वह भी निकल जाता है दूसरे राज्य में दिहाड़ी करने। वह हर साल कमाने के लिए बाहर जाता है, क्योंकि उसे खेती के लिए पैसा चाहिए।

मेरा मत है कि बिहार के सभी जिले से किसान गायब हैं, मतलब एब्सेंट फार्मर। यह शब्द कुछ वैसा ही है जैसा Absentee landlord होता है। ऐसे में जो बिहार में किसानी कर रहा है, उनकी संख्या अब कम ही बची है। 
आप उन लोगों से बात करिए, जिनके घर में पहले खेती बाड़ी हुआ करती थी, वह आपको बताएंगे कि पलायन केवल श्रमिक वर्ग का ही नहीं हुआ है बल्कि जमीन मालिक किसान परिवारों का भी हुआ है। बिहार में पिछले दो दशकों में बड़ी संख्या में ऐसे लोगों का खेती से मोह भंग हुआ है जिनका घर परिवार खेती बाड़ी से ही चलता था।

पलायन की जब भी बात होती है तो हम श्रमिक की बात करते हैं जो पंजाब, दिल्ली या अन्य राज्यों में दिहाड़ी करने जाते हैं, जो स्किल्ड लेबर कहलाते हैं। लेकिन हम किसान परिवार के पलायन पर एक शब्द नहीं लिखते हैं या कोई आंकड़ा जारी नहीं करते हैं। हमें इस पलायन को समझना होगा।

बिहार में किसान का कोई भी मोर्चा नहीं होने की एक वजह यह भी है। दरसअल गाम का गाम खाली पड़ा है। बड़े जोतदार नौकरी पेशा हो गए हैं और उनकी जमीन पर जो फसल उगाता है, वह शायद खुद को किसान मानता ही नहीं है। बिहार में किसानी की असल पीड़ा यही है, कटु है लेकिन सत्य यही है।

आप मंडी, भाव आदि की बात करते रहिए लेकिन किसान के नाम पर बिहार में आंदोलन राजनीतिक दल के लोग ही करेंगे, किसान चुप ही रहेगा। दिल्ली, पटना में बैठे लोग जो आंकड़ा जारी कर दें लेकिन बिहार में किसानी करने वाले चुप ही रहेंगे। 

खैर, किसान दिवस की शुभकामनाएं! आज डिनर के टेबल पर किसान को याद कर लीजियेगा।

#ChankaResidency
#FarmersDay

Monday, December 04, 2023

रुक चुका बिहार!

बिहार पग- पग पर रुका हुआ है। एक ने पूछा पिछले एक दशक में बिहार कितना बदला है? मैंने शहर से गाँव की तरफ देखा, सबकुछ रुकता हुआ नज़र आया।

फिर सवाल आया, बिहार को लेकर नेगेटिव क्यों? जवाब आया, बिहार एक ऐसी नदी है, जो बस कागज पर है, जमीन पर उसे प्लॉट बनाकर बेच दिया गया है! यदि सच नेगेटिव है तो उस सच को पॉजिटिव तो नहीं कहा जा सकता है न! 

सच कहिये, अगले पाँच दशक तक बिहार ऐसा ही रहने वाला है। इस रुकतापुर राज्य को मजबूत इच्छाशक्ति वाले मुख्यमंत्री की जरूरत है, जो उद्योग लगा सके, शहर से गाँव तक लोगों को उद्योग आधारित नौकरी दे सके। यदि बिल्डिंग बना देने से विकास आ जाता तो हर सरकारी स्कूल और अस्पताल मुस्कुराता नज़र आता। 

हम उस थमते, ठहरते सूबे के वोटर हैं, जहाँ खेतिहर मजदूर को भी मजदूरी करने के लिए दूसरे राज्य में जाना पड़ता है। 

हम उस रुकते हुए राज्य में रहते हैं, जहाँ के बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए अन्य राज्य में जाना पड़ता है। 

बिहार ऐसा राज्य है जहाँ के मरीज को भी दिल्ली ही नज़र आता है! इस हकीकत पर बोलने की जरूरत है। 

बिहार को बस उद्योग बचा सकता है, देश के बड़े उद्योगपतियों को बिहार में संभावना दिखनी चाहिए, यह काम केवल बिहार सरकार कर सकती है, जो राज्य सरकार करेगी नहीं! तो कैसे कहें कि बिहार बदल जायेगा... 

Monday, November 27, 2023

कहानी बिहार के 'बड़ीजान' गाँव की

बिहार को पूर्वोत्तर के राज्यों से जोड़ने वाली एक सड़क है, जो पूर्णिया- किशनगंज होते गुवाहाटी से आगे निकल जाती है। इन इलाकों में आप मक्का - धान से आगे चाय, सुपारी तक की खेती देख सकते हैं। 
इतिहास के पन्नों को खुद में समेट लेने का साहस रखने वाला यह इलाका कोसी से लेकर महानंदा - ब्रह्मपुत्र नदी के स्वभाव से वाक़िफ़ है। इसी क्षेत्र में एक गाँव है ' बड़ीजान', जो बिहार के किशनगंज जिला में आता है, जो पुरातत्व विभाग की उपेक्षा का शिकार है। 

धर्म- जाति की राजनीति में उलझे रहने वाले हम सब इतिहास के इस महत्वपूर्ण इलाके को रद्दी कागज की तरह छोड़ चुके हैं मानो यह घर का कबाड़ खाना हो ! 

यह कहानी किशनगंज जिला के कोचाधामन प्रखंड के बड़ीजान गांव की है। यह गांव अपने अंदर हजारों साल के पुराने दास्तां को समेटे हुए है। लेकिन न तो सरकार और न ही पुरातत्व विभाग इस ओर अपनी रूचि दिखा रहा है। यहां आज भी पाल वंश युगीन सूर्य देव के काले पत्थर वाली मूर्ति अपनी दास्तां खुद सुना रही है। 

बड़ीजान गाँव लोनसबरी नामक एक बरसाती नदी के निकट बसा हुआ है। जो प्राचीन छाड़ नदी का किनारा है। लोनसबरी नदी कनकई नदी में मिलकर महानंदा नदी में समा जाती है। लिंग पुराण के अध्याय 51 के श्लोक 27-30 में कनकंदा नदी का उल्लेख है।

इसी नदी के दक्षिणी पूर्वी कोण में जंगली जानवर और विविध पक्षियों से व्याप्त एक घना जंगल हुआ करता था। जिसमें सदा शिव निवास करते थे। इस घने जंगल में साम्ब सदा शिव की प्रतिमा अपने गुणों के साथ पूजित थी। इस घने जंगल की पहचान बड़ीजान क्षेत्र से की जा सकती है।
आज के दौर में जब जमीन मतलब खरीदने और बेचने की चीज बन गई है, जिसे सरकारी भाषा में राजस्व कहा जाने लगा है, तब इस क्षेत्र को बड़ीजान दुर्गापुर कहा गया है। अंग्रेज सर्वे अधिकारी बुकानन के अनुसार राजा वेण के वंशज ने बड़ीजान में एक किला बनवाया था। जिसमें करीब 28 तालाब थे। जो एक ही रात में खोदे गए थे। वर्तमान में उक्त जगह पर मात्र चार तालाब हैं। बुकानन ने इस बड़ीजान गांव के बारे में अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है। 
निरंतर कृषि कार्य होने के कारण इन टीलों की ऊंचाई अब समाप्त हो गई है। जिसके नीचे प्राचीन भगवान सूर्य का मंदिर और आवासीय क्षेत्र दबे हुए है। बड़ीजान हाट में पिपल वृक्ष के नीचे भगवान सूर्य की विशाल प्रतिमा रखी हुई है, जो दो टुकड़ों में खंडित है। 

भगवान सूर्य की प्रतिमा की ऊँचाई पांच फीट छह इंच तथा चौड़ाई दो फीट 11 इंच है। बड़ीजान गांव के सीमावर्ती क्षेत्रों मे प्रस्तर से निर्मित मंदिर मे प्रवेश द्वार पर लगाया गया एक विशाल लिंटेल मंदिर भी भव्यता को दर्शाता है। लिंटेल मंदिर बेसालू पत्थर से निर्मित है इसकी माप 12 फीट दो इंच है। 
बड़ीजान अब पंचायत है, यहाँ के वार्ड संख्या आठ में मंदिर का अवशेष बिखरा पड़ा है लेकिन सरकार से लेकर विभाग तक जबरदस्त चुप्पी साधे हुए है! 

Monday, October 16, 2023

किताब 'पूर्णिया' के बहाने पूर्णिया !

1969 की बात है, एक बड़े मराठी लेखक अनिल अवचट पूर्णिया आए थे तब उन्होंने 'पूर्णिया' के नाम से एक यात्रा वृतांत लिखा था। किताब मराठी में है और जल्द ही यह हिंदी में भी उपलब्ध होगी। 

आप पूछ सकते हैं कि आखिर 50 साल बाद किताब का जिक्र करने के पीछे वजह क्या है? दरअसल इसके पीछे एक बड़ी रोचक कहानी है। दो दिन पहले की बात है, स्व.अनिल अवचट जी की बेटी यशोदा वाकांकर जी पूर्णिया आईं थी, अपने पिता की लिखी किताब की कर्मभूमि देखने!

कुछ दिन पहले ही उनसे परिचय हुआ था। हालांकि किताब के बारे Pushya Mitra  भैया ने कुछ साल पहले विस्तार से बताया था। बाद में चनका रेसीडेंसी पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार Sunil Tambe 
सुनील तांबे जी ने भी इस किताब के बारे में बताया था। 

लेकिन सच कहूँ इसके बारे में सोचा नहीं था कि कोई बेटी यूँ ही खोजती- खंगालती पहुँच जायेगी अपने पिता की लिखी किताब की कर्म भूमि देखने! मुझे यशोदा जी की बातें सुनकर फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ' परती परिकथा ' की याद आ गई। 

" कोसी मैया बेतहासा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते में नदियों को, धाराओं को छोटे बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेड़, ख़ैर, साँहुड़, पनियाला, तीनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बंद करती छिनमताही भागी जा रही है..."

एक बेटी, अपने पिता के लिखे किताब के बहाने पहुँच जाती है, उस माटी को समझने बुझने, जहाँ उसका अपना कोई नहीं है! यह घटना मुझे निजी तौर पर रोमांचित करती है। 

यशोदा जी से मिलकर महसूस हुआ कि हम सब माटी के ही लोग हैं! वह पिता के शब्दों को पूर्णिया की माटी में ढूंढ रहीं थी और मैं बाबूजी और रेणु के बहाने पूर्णिया को! दरअसल हम सब निमित्त मात्र ही हैं! 

यशोदा जी अपनी सहेली जानी मानी पेंटर व लेखिका अदिती हर्डिकर के साथ पूर्णिया पहुंची थी। 

यशोदा जी खुद लेखिका हैं। उन्होंने एपिलेप्सी जैसे कठिन विषय पर किताब लिखी है। वह फिलहाल पुणे स्थित दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर के न्यूरोलॉजी विभाग में काम कर रही हैं।