tag:blogger.com,1999:blog-237411932024-03-16T12:38:41.929+05:30अनुभवमुझे आदमी का सड़क पार करना
हमेशा अच्छा लगता है
क्योंकि इस तरह
एक उम्मीद - सी होती है
कि दुनिया जो इस तरफ है
शायद उससे कुछ बेहतर हो
सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंहGirindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.comBlogger814125tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-66723626547820123772024-03-04T18:25:00.002+05:302024-03-04T18:25:23.732+05:30रेणु और गाम-घर <div class="xdj266r x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">खेत में जब भी फसल की हरियाली देखता हूँ तो लगता है कि फणीश्वर नाथ रेणु खड़ें हैं, हर खेत के मोड़ पर। उन्हें हम सब आंचलिक कथाकार कहते हैं लेकिन सच यह है कि वे उस फसल की तरह बिखरे हैं जिसमें गांव-शहर सब कुछ समाया हुआ है। उनका कथा संसार आंचलिक भी है और शहराती भी। यही कारण है कि रेणु आंचलिक होकर भी स्थानीय नहीं रह जाते। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGFGDricW8vWufD5Rxt5s-Z-l3-CxLypG_4RBmISWgmSgGWIRREu3hilstgDypFfi39bgjQqHSDLMRjmk_EXR7b31jq4Rc7qEuQyXd4CvuiPFo8DXezIPaRKyYisiPkeF_-7bh5G7RxoPNCc2-N-m-Kxe0qfxp8nkmAN0hEdidY2a8wJEWTA/s960/%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%81.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGFGDricW8vWufD5Rxt5s-Z-l3-CxLypG_4RBmISWgmSgGWIRREu3hilstgDypFfi39bgjQqHSDLMRjmk_EXR7b31jq4Rc7qEuQyXd4CvuiPFo8DXezIPaRKyYisiPkeF_-7bh5G7RxoPNCc2-N-m-Kxe0qfxp8nkmAN0hEdidY2a8wJEWTA/s320/%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%81.jpg" width="240" /></a></div><br /><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूँ, बतियाता हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु का लिखा रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणु की जड़े दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है 2005 में सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब <span style="font-family: inherit;"><a class="x1i10hfl xjbqb8w x1ejq31n xd10rxx x1sy0etr x17r0tee x972fbf xcfux6l x1qhh985 xm0m39n x9f619 x1ypdohk xt0psk2 xe8uvvx xdj266r x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r xexx8yu x4uap5 x18d9i69 xkhd6sd x16tdsg8 x1hl2dhg xggy1nq x1a2a7pz xt0b8zv x1fey0fg xo1l8bm" href="https://www.facebook.com/sadan.jha?__cft__[0]=AZXO0EgVvIf9fwrKPlx6Kk5-3F0yAdSfW2MjhO8fUErNcFd_S58t4a_UWArXl4Igq2Br1tW5r1eXyAevvMpTmA-dsd_j_cosnkFJRATEocKxi1FXmbNTtWVVQOjbUVI9xVbPQfN3Hzc1Z47-WX8QDBswJx_ehFkTsk5DCjv1GA87gg&__tn__=-]K-R" role="link" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; background-color: transparent; border-style: none; border-width: 0px; box-sizing: border-box; cursor: pointer; display: inline; font-family: inherit; list-style: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-align: inherit; text-decoration-line: none; touch-action: manipulation;" tabindex="0"><span class="xt0psk2" style="display: inline; font-family: inherit;">Sadan Jha</span></a></span> सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुँचा रहे थे। </div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब जब पिछले दिनों को याद करता हूँ तो खुद से पूछता हूँ कि रेणु मेरे जीवन में कब आए? शायद 2002 में। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर की वजह से!</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु के बारे में बाबूजी कहते थे कि “ रेणु जी को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु जी को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन लैंस से गाम घर को देखना होगा।”</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">फिर मैं 2024 की शुरुआती महीने को याद करने लगता हूँ। सूरत स्थित सेंटर फ़ॉर सोशल स्टडीज़ में एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत सदन झा सर पूर्णिया आते हैं, पुराने पूर्णिया जिला और फणीश्वर नाथ रेणु की दुनिया को देखने-बुझने। एक बार फिर उनकी वजह से अंचल के करीब होने का मौका मिला और हम फिर बन गए इस अंचल के विद्यार्थी। </div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">गाँव के लोगों से उनकी ही कहानी सुनने लगा, गीत, कथा, उत्सव... यह सब सुनते हुए लग रहा है कि मानो रेणु का लिखा कुछ पढ़ रहा हूँ, एकदम ताजा-ताजा!</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु को केवल हम साहित्य से जोड़कर देखने की भूल न करें, रेणु की किसानी, रेणु का स्थानीय लोगों से जुड़ाव, जमीन-जगह और इस अंचल में उनकी पहुंच को समझने की भी जरूरत है। एक व्यक्ति किस तरह से खुद को केंद्र में रखकर एक अंचल का गाड़ीवान बन गया, यह भी तो एक कहानी है। और हम हैं कि उन्हें एक फ्रेम में रखकर दुनिया जहान को मैला आंचल और उनकी कृतियों में बांध देते हैं जबकि रेणु को उनके ही एक पात्र सुरपति राय की नजर से भी देखना होगा...</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला।” इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए, यहाँ आइए, यहाँ ढूंढ़ना है और पाना है..। </div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इन दिनों जब पूर्णिया जिला के संथाली बस्ती को समझने की थोड़ी बहुत कोशिश कर रहा हूँ तो लगता है कि रेणु ने कुछ काम हम सबके लिए भी छोड़ रखा है, बस अंचल की आवाज को सुनने की जरूरत है, लोगों से गुफ्तगू करने की आवश्यकता है। रेणु के फ्रेम से निकलकर रेणु के ही पात्रों को, सामाजिक चेतना को फिर से समझने की जरूरत है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यदि आप रेणु के पाठक रहे हैं तो समझ सकते हैं कि परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गांव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों में गढ़ देते हैं। गांव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं। लेकिन इन सबके बीच वह बहुत कुछ एक अलग रंग में भी लिख जाते हैं, उस रंग में छूपे असल रंग को देखने के लिए आपको पुराने पूर्णिया जिला को खंगालना होगा।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु की यूएसपी की यदि बात की जाए तो वह है उनका गांव। वे अपने साथ गांव लेकर चलते थे। इसका उदाहरण 'केथा' है। वे जहां भी जाते केथा साथ रखते। बिहार के ग्रामीण इलाकों में पुराने कपड़े से बुनकर बिछावन तैयार किया जाता है, जिसे केथा या गेनरा कहते हैं। रेणु जब मुंबई गए तो भी 'केथा ' साथ ले गए थे। दरअसल यही रेणु का ग्राम है, जिसे वे हिंदी के शहरों तक ले गए। उन्हें अपने गांव को कहीं ले जाने में हिचक नहीं होती थी। वे शहरों से आतंकित नहीं होते थे. रेणु एक साथ देहात -शहर जीते रहे, यही कारण है कि मुंबई में रहकर भी औराही हिंगना को देख सकते थे और चित्रित भी कर देते थे। रेणु के बारे में लोगबाग कहते हैं कि वे ग्रामीणता की नफासत को जानते थे और उसे बनाए रखते थे।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पिछले कुछ महीनों से लिखना लगभग छूट सा गया था, लेकिन 4 मार्च एक ऐसी तारीख है अपने लिए कि एक फिल्ड रिपोर्ट तो लिखा ही चला जाता है, अनुभव गावै सो गीता की तरह। </div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">खेती-बाड़ी करते हुए इस धरती के धनी कथाकर-कलाकार, समृद्ध किसान से मेरी अक्सर भेंट होती है, आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन जब भी डायरी लिखने बैठता हूँ तो लगता है सामने फणीश्वर नाथ रेणु खड़े हैं। छोटे-छोटे ब्योरों से लेखन का वातावरण गढ़ने की कला उनके पास थी। रेणु को पढ़ते हुए हम जैसे लोग गांव को समझने की कोशिश करते हैं। शुरुआत में रेणु साथ होते हैं और फिर एक दिन वे दूर चले जाते हैं ...अकेला छोड़कर और तब लगता है अंचल की दुनिया को अपनी नजर से भी देखने की जरूरत है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">रेणु पर लिखते हुए या फिर कहीं बतियाते हुए अक्सर एक चीज मुझे चकित करती रही है कि आखिर क्या है रेणु के उपन्यासों - कहानियों में जो आज के डिजिटल युग में भी उतना ही लोकप्रिय है । </div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ। कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार, सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री, किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए। एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं।</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-67720278797692881462024-01-21T15:29:00.001+05:302024-01-21T15:29:42.051+05:30ठंड, हवा और गाम घर का बथुआ साग<div><div>धूप को देखना ख्वाब ही तो है! जलावन धू धू कर जल रहा है। लोगबाग दुआर और आंगन में आग के सहारे हैं। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</a>
</div><br></div><div>मोबाइल के युग में तापमान भी खबर बन गया है। हवा की रफ़्तार और अधिकतम - न्यूनतम तापमान की बात अलाव तापते हुए लोग कर रहे हैं। ठंड की वजह से आलू की पैदावार कम हुई है। वहीं मौसम की मार उन किसानों को उठानी पड़ रही है, जिन्होंने अक्टुबर के दूसरे हफ्ते में मक्का लगाया था। </div><div><br></div><div>अभी चावल तैयार करने वाला ट्रैक्टर घर-घर घूम रहा है। उसकी आवाज़ दूर तक जाती है। घर तक चावल का मिल पहुँच गया है। किसान परिवार इस काम में भी लगा हुआ है। वैसे हवा का जोर जुलूम ढ़ा रहा है। </div><div><br></div><div>खेत में अभी साग भी है, बथुआ साग। अंचल का बहुत ही लोकप्रिय साग। इसे बुना नहीं जाता है, धरती मईया किसान को अपने आँगन से यह साग देती है, इसके लिए किसान को कुछ भी खर्च करना नहीं पड़ता है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</a>
</div><br></div><div>बथुआ के संग भांग भी दिख जाता है। मित्र मिथिलेश कुमार राय की एक कविता की पंक्ति है- </div><div>'जीवन जैसे बथुआ का साग, जैसे सरदी की भोर! '</div><div><br></div><div>आग तापते हुए आज बथुआ पर लिखने का मन है। दरअसल बथुआ का अपना अर्थशास्त्र है, जिसकी व्याख्या बहुत ही कम हुई है। बथुआ मुफ्त में ही लोगों को मिलता है, शायद अधिकांश किसान इसके लिए पैसे नही वसुलते। यह एक वीड्स की तरह मक्का, गेंहुँ और सरसों की खेतों मे अपने आप उग जाता है और नवम्बर से फरवरी तक मौजूद रहता है। गाम घर में लोग खेत जाते हैं और बथुआ तोड़ कर ले आते हैं। </div><div><br></div><div>बथुआ उखाड़ा नहीं जाता है, बल्कि बथुआ को तोड़ना पड़ता है। यह भी कला है। अंगुठे और तर्जनी अंगुली को बथुए के जड़ तक आप ले जाइए और इन दोनों अंगुलियों के नाखून को कैंची की तरह इस्तेमाल करते हुए उसे काट दीजिए। बथुआ का जड़ जमीन मे ही रह जाएगा और खाने वाला हिस्सा आपको मिल जाएगा।</div><div><br></div><div>पांच दशक पहले तक बथुआ बिकता नहीं था, लेकिन अब बाजार में बथुआ बिक रहा है, यह गाँव का बाज़ार कनेक्शन है। बथुआ को लेकर एक और कथा गाँव घर में सुनने को मिलती है कि गाँव की बहुएँ बथुआ तोड़ने नहीं जाती है बल्कि गाँव की बेटियाँ ही बथुआ तोड़ती हैं! इस कहानी का सिरा पकड़ना होगा। </div><div><br></div><div>फेसबुक पर मौजूद रूपम मिश्र जी एक कविता है, इसी विषय पर : </div><div><br></div><div>"ये लड़कियां बथुआ की तरह उगी थीं!</div><div>जैसे गेंहूँ के साथ बथुआ</div><div>बिन बोये ही उग जाता है</div><div>ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ,</div><div>बेटों की चाह में अनचाहे ही उग आती हैं।"</div><div><br></div><div>वैसे मुझे बथुआ के अर्थशास्त्र में रुचि है। किसान के खेत के इस उत्पाद का अपना समाजवादी मॉडल है। मतलब खेत में उपजता है लेकिन मुफ़्त में तोड़ा जा रहा है और गाम घर में मुफ़्त में ही थाली तक पहुँच रहा है! </div><div><br></div><div>खैर, आज पछिया हवा जुलूम ढ़ा रहा है। सर्दी के इस मौसम में बथुआ राम जी हैं, हर दर्द की दवा! </div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-21236837613980845452023-12-24T21:21:00.001+05:302023-12-24T21:21:59.252+05:30अभिनय का ' रंग '<div><div>प्रिय Jitendra Nath Jeetu और युवा फिल्मकार सुनील पाल की शार्ट फिल्म है 'रंग'। कहने को फिल्म छोटी है, लेकिन बात बड़ी कह रही है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjr12VrbS8MdZbT28kjxv2ir9GzWg_0HL4_GgfioNOn-Xvlez_sm6JpPT3sJuxhwAuF0BUOhn_cOYxkRuqyKzYnv8IIbOASQf80g0MQ1rlTrheFXh6bkkjooM3q8pZHuWz5Gu51c5rhj25_C3yDY4urvDaozv79IVbHLMbxf81txasEUOe6JQ" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div>एक ऐसे दौर में जब राजनीति का रंग सिर चढ़कर बोल रहा हो, उस दौर में जीतू भाई की लिखी इस स्क्रिप्ट को देखी जानी चाहिए। </div><div><br></div><div>रंग में मुख्य भूमिका में Manwendra Tripathy हैं। आप कह सकते हैं कि यह मानवेंद्र के अभिनय का ' रंग ' है! </div><div><br></div><div>फिल्म में साइकिल के जरिये मानवेंद्र आते हैं, देश के सहज नागरिक की तरह। केवल 15 मिनट की यह फिल्म है लेकिन मानवेंद्र भाई ने इन 15 मिनट में रंग दिखा दिया। </div><div><br></div><div>रंग का कारोबार क्या है, इसे आप उनके अभिनय से देख सकते हैं, समझ सकते हैं!</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-31559367916394453762023-12-23T20:05:00.001+05:302023-12-23T20:05:27.161+05:30किसान दिवस की किसानी पीड़ा आज किसान दिवस है! किसानों का भी दिन होता है, पता नहीं किसानी समाज इससे वाकिफ है कि नहीं ? अपना मानना है कि किसानों का दिन हो महज तारीख नहीं। <div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhtB5cZbzY03IJFBBrxzJJbBq32WsQktdZnvWyXMkEyWFK-Sjk0xT5Sp6IK0UJqm06zcKlF_MR5IkkxNfVjpiwOff6YDxiPTIkyeJ_QUxXYMS3o-08qiigoiNCCUDol0dREFtsPxln4280T30qVksoZZ5RrirSRyUNsCC29-o1a_EG6Y5AsyQ" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>बिहार में हूँ तो बात बिहार के किसानी समाज की ही करूँगा। आप उस परिवार से बात करें जो पहले 10-15 एकड़ जमीन पर खेती करता था। पहले घर के बच्चे पढ़ने के लिए बाहर जाते हैं, फिर नौकरी करते हैं और इसके बाद अपने माता - पिता को साथ ले आते हैं। वह खेती वाली जमीन को गांव में छोड़ बस जाते हैं शहर में। यह एक अजीब तरह का पलायन है। </div><div><br></div><div>जमीन पर जो खेती करते हैं, वे किराया देते हैं। बात का एक सिरा यहां उस किराया देने वाले किसान से भी जुड़ा है। वह भी दरअसल माइग्रेंट लेबर ही है। फसल लगाकर वह भी निकल जाता है दूसरे राज्य में दिहाड़ी करने। वह हर साल कमाने के लिए बाहर जाता है, क्योंकि उसे खेती के लिए पैसा चाहिए।</div><div><br></div><div>मेरा मत है कि बिहार के सभी जिले से किसान गायब हैं, मतलब एब्सेंट फार्मर। यह शब्द कुछ वैसा ही है जैसा Absentee landlord होता है। ऐसे में जो बिहार में किसानी कर रहा है, उनकी संख्या अब कम ही बची है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div>आप उन लोगों से बात करिए, जिनके घर में पहले खेती बाड़ी हुआ करती थी, वह आपको बताएंगे कि पलायन केवल श्रमिक वर्ग का ही नहीं हुआ है बल्कि जमीन मालिक किसान परिवारों का भी हुआ है। बिहार में पिछले दो दशकों में बड़ी संख्या में ऐसे लोगों का खेती से मोह भंग हुआ है जिनका घर परिवार खेती बाड़ी से ही चलता था।</div><div><br></div><div>पलायन की जब भी बात होती है तो हम श्रमिक की बात करते हैं जो पंजाब, दिल्ली या अन्य राज्यों में दिहाड़ी करने जाते हैं, जो स्किल्ड लेबर कहलाते हैं। लेकिन हम किसान परिवार के पलायन पर एक शब्द नहीं लिखते हैं या कोई आंकड़ा जारी नहीं करते हैं। हमें इस पलायन को समझना होगा।</div><div><br></div><div>बिहार में किसान का कोई भी मोर्चा नहीं होने की एक वजह यह भी है। दरसअल गाम का गाम खाली पड़ा है। बड़े जोतदार नौकरी पेशा हो गए हैं और उनकी जमीन पर जो फसल उगाता है, वह शायद खुद को किसान मानता ही नहीं है। बिहार में किसानी की असल पीड़ा यही है, कटु है लेकिन सत्य यही है।</div><div><br></div><div>आप मंडी, भाव आदि की बात करते रहिए लेकिन किसान के नाम पर बिहार में आंदोलन राजनीतिक दल के लोग ही करेंगे, किसान चुप ही रहेगा। दिल्ली, पटना में बैठे लोग जो आंकड़ा जारी कर दें लेकिन बिहार में किसानी करने वाले चुप ही रहेंगे। </div><div><br></div><div>खैर, किसान दिवस की शुभकामनाएं! आज डिनर के टेबल पर किसान को याद कर लीजियेगा।</div><div><br></div><div>#ChankaResidency</div><div>#FarmersDay</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-57106385878521259842023-12-04T18:00:00.001+05:302023-12-04T18:00:54.193+05:30रुक चुका बिहार! बिहार पग- पग पर रुका हुआ है। एक ने पूछा पिछले एक दशक में बिहार कितना बदला है? मैंने शहर से गाँव की तरफ देखा, सबकुछ रुकता हुआ नज़र आया।<div><br></div><div>फिर सवाल आया, बिहार को लेकर नेगेटिव क्यों? जवाब आया, बिहार एक ऐसी नदी है, जो बस कागज पर है, जमीन पर उसे प्लॉट बनाकर बेच दिया गया है! यदि सच नेगेटिव है तो उस सच को पॉजिटिव तो नहीं कहा जा सकता है न! <div><div><br></div><div>सच कहिये, अगले पाँच दशक तक बिहार ऐसा ही रहने वाला है। इस रुकतापुर राज्य को मजबूत इच्छाशक्ति वाले मुख्यमंत्री की जरूरत है, जो उद्योग लगा सके, शहर से गाँव तक लोगों को उद्योग आधारित नौकरी दे सके। यदि बिल्डिंग बना देने से विकास आ जाता तो हर सरकारी स्कूल और अस्पताल मुस्कुराता नज़र आता। </div><div><br></div><div>हम उस थमते, ठहरते सूबे के वोटर हैं, जहाँ खेतिहर मजदूर को भी मजदूरी करने के लिए दूसरे राज्य में जाना पड़ता है। </div><div><br></div><div>हम उस रुकते हुए राज्य में रहते हैं, जहाँ के बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए अन्य राज्य में जाना पड़ता है। </div><div><br></div><div>बिहार ऐसा राज्य है जहाँ के मरीज को भी दिल्ली ही नज़र आता है! इस हकीकत पर बोलने की जरूरत है। </div><div><br></div><div>बिहार को बस उद्योग बचा सकता है, देश के बड़े उद्योगपतियों को बिहार में संभावना दिखनी चाहिए, यह काम केवल बिहार सरकार कर सकती है, जो राज्य सरकार करेगी नहीं! तो कैसे कहें कि बिहार बदल जायेगा... </div></div><div><br></div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-74351065041005064262023-11-27T07:59:00.000+05:302023-11-27T08:00:12.356+05:30कहानी बिहार के 'बड़ीजान' गाँव की<div><div>बिहार को पूर्वोत्तर के राज्यों से जोड़ने वाली एक सड़क है, जो पूर्णिया- किशनगंज होते गुवाहाटी से आगे निकल जाती है। इन इलाकों में आप मक्का - धान से आगे चाय, सुपारी तक की खेती देख सकते हैं। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div>इतिहास के पन्नों को खुद में समेट लेने का साहस रखने वाला यह इलाका कोसी से लेकर महानंदा - ब्रह्मपुत्र नदी के स्वभाव से वाक़िफ़ है। इसी क्षेत्र में एक गाँव है ' बड़ीजान', जो बिहार के किशनगंज जिला में आता है, जो पुरातत्व विभाग की उपेक्षा का शिकार है। </div><div><br></div><div>धर्म- जाति की राजनीति में उलझे रहने वाले हम सब इतिहास के इस महत्वपूर्ण इलाके को रद्दी कागज की तरह छोड़ चुके हैं मानो यह घर का कबाड़ खाना हो ! </div><div><br></div><div>यह कहानी किशनगंज जिला के कोचाधामन प्रखंड के बड़ीजान गांव की है। यह गांव अपने अंदर हजारों साल के पुराने दास्तां को समेटे हुए है। लेकिन न तो सरकार और न ही पुरातत्व विभाग इस ओर अपनी रूचि दिखा रहा है। यहां आज भी पाल वंश युगीन सूर्य देव के काले पत्थर वाली मूर्ति अपनी दास्तां खुद सुना रही है। </div><div><br></div><div>बड़ीजान गाँव लोनसबरी नामक एक बरसाती नदी के निकट बसा हुआ है। जो प्राचीन छाड़ नदी का किनारा है। लोनसबरी नदी कनकई नदी में मिलकर महानंदा नदी में समा जाती है। लिंग पुराण के अध्याय 51 के श्लोक 27-30 में कनकंदा नदी का उल्लेख है।</div><div><br></div><div>इसी नदी के दक्षिणी पूर्वी कोण में जंगली जानवर और विविध पक्षियों से व्याप्त एक घना जंगल हुआ करता था। जिसमें सदा शिव निवास करते थे। इस घने जंगल में साम्ब सदा शिव की प्रतिमा अपने गुणों के साथ पूजित थी। इस घने जंगल की पहचान बड़ीजान क्षेत्र से की जा सकती है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiHyade3_lqJDOteOTpkGzshvVCGB94fJ8y1BUai1PbSxlT5qeoHM295MhFpvVztJKDqYdooRaSltp5P5qLXH0rqvv8GvE9HByV2TatMQI94hc73oLX-nPokUFmxeXNKHYEkTQ-ckSoCMnfTepc_hjXtwj0ojsYjm40_kU2Fd8JIHXj9XCnGA" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>आज के दौर में जब जमीन मतलब खरीदने और बेचने की चीज बन गई है, जिसे सरकारी भाषा में राजस्व कहा जाने लगा है, तब इस क्षेत्र को बड़ीजान दुर्गापुर कहा गया है। अंग्रेज सर्वे अधिकारी बुकानन के अनुसार राजा वेण के वंशज ने बड़ीजान में एक किला बनवाया था। जिसमें करीब 28 तालाब थे। जो एक ही रात में खोदे गए थे। वर्तमान में उक्त जगह पर मात्र चार तालाब हैं। बुकानन ने इस बड़ीजान गांव के बारे में अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div>निरंतर कृषि कार्य होने के कारण इन टीलों की ऊंचाई अब समाप्त हो गई है। जिसके नीचे प्राचीन भगवान सूर्य का मंदिर और आवासीय क्षेत्र दबे हुए है। बड़ीजान हाट में पिपल वृक्ष के नीचे भगवान सूर्य की विशाल प्रतिमा रखी हुई है, जो दो टुकड़ों में खंडित है। </div><div><br></div><div>भगवान सूर्य की प्रतिमा की ऊँचाई पांच फीट छह इंच तथा चौड़ाई दो फीट 11 इंच है। बड़ीजान गांव के सीमावर्ती क्षेत्रों मे प्रस्तर से निर्मित मंदिर मे प्रवेश द्वार पर लगाया गया एक विशाल लिंटेल मंदिर भी भव्यता को दर्शाता है। लिंटेल मंदिर बेसालू पत्थर से निर्मित है इसकी माप 12 फीट दो इंच है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div>बड़ीजान अब पंचायत है, यहाँ के वार्ड संख्या आठ में मंदिर का अवशेष बिखरा पड़ा है लेकिन सरकार से लेकर विभाग तक जबरदस्त चुप्पी साधे हुए है! </div></div><div><br></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-91939986105817856212023-10-16T08:57:00.000+05:302023-10-16T08:58:01.109+05:30किताब 'पूर्णिया' के बहाने पूर्णिया ! <div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi9yzu4WxtG_VpH2sCfkjEmI2zlmmiAr1rSto_DY4LUbTP1HdGsbu_OwQtG5tjkQuB311IqcyrjJJozNWh3r3z8vtjq9NxuSo150AVNpwzcTV-pdexab8GsOYCLJ9eUg-s8V7gOxmpBpP4_N-yhuWwEl-2G0BXcu2oGgU_5Z9x_WJu7YdkLQw" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div>1969 की बात है, एक बड़े मराठी लेखक अनिल अवचट पूर्णिया आए थे तब उन्होंने 'पूर्णिया' के नाम से एक यात्रा वृतांत लिखा था। किताब मराठी में है और जल्द ही यह हिंदी में भी उपलब्ध होगी। </div><div><br></div><div>आप पूछ सकते हैं कि आखिर 50 साल बाद किताब का जिक्र करने के पीछे वजह क्या है? दरअसल इसके पीछे एक बड़ी रोचक कहानी है। दो दिन पहले की बात है, स्व.अनिल अवचट जी की बेटी यशोदा वाकांकर जी पूर्णिया आईं थी, अपने पिता की लिखी किताब की कर्मभूमि देखने!</div><div><br></div><div>कुछ दिन पहले ही उनसे परिचय हुआ था। हालांकि किताब के बारे Pushya Mitra भैया ने कुछ साल पहले विस्तार से बताया था। बाद में चनका रेसीडेंसी पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार Sunil Tambe </div><div>सुनील तांबे जी ने भी इस किताब के बारे में बताया था। </div><div><br></div><div>लेकिन सच कहूँ इसके बारे में सोचा नहीं था कि कोई बेटी यूँ ही खोजती- खंगालती पहुँच जायेगी अपने पिता की लिखी किताब की कर्म भूमि देखने! मुझे यशोदा जी की बातें सुनकर फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ' परती परिकथा ' की याद आ गई। </div><div><br></div><div>" कोसी मैया बेतहासा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते में नदियों को, धाराओं को छोटे बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेड़, ख़ैर, साँहुड़, पनियाला, तीनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बंद करती छिनमताही भागी जा रही है..."</div><div><br></div><div>एक बेटी, अपने पिता के लिखे किताब के बहाने पहुँच जाती है, उस माटी को समझने बुझने, जहाँ उसका अपना कोई नहीं है! यह घटना मुझे निजी तौर पर रोमांचित करती है। </div><div><br></div><div>यशोदा जी से मिलकर महसूस हुआ कि हम सब माटी के ही लोग हैं! वह पिता के शब्दों को पूर्णिया की माटी में ढूंढ रहीं थी और मैं बाबूजी और रेणु के बहाने पूर्णिया को! दरअसल हम सब निमित्त मात्र ही हैं! </div><div><br></div><div>यशोदा जी अपनी सहेली जानी मानी पेंटर व लेखिका अदिती हर्डिकर के साथ पूर्णिया पहुंची थी। </div><div><br></div><div>यशोदा जी खुद लेखिका हैं। उन्होंने एपिलेप्सी जैसे कठिन विषय पर किताब लिखी है। वह फिलहाल पुणे स्थित दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर के न्यूरोलॉजी विभाग में काम कर रही हैं।</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-18756055953186480512023-10-11T18:32:00.001+05:302023-10-11T18:32:36.008+05:30किसानी <div>आज फेसबुक मेमोरी में अपना ही स्टेटस मोहक लग रहा है ! आज के ही दिन फेसबुक को अपना परिचय दिया था - 'खेती - बाड़ी, कलम स्याही'! </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEisem1_0qZosNTqL3r3dIeeni_Is9yrJ3sVBBNLKrMZAlx9VReTS8mlqN5JJUeYeg_PYAS2FdsNfJyKqyrg2e_HXHbDtRAks0S2syqPNUvKFTV8CUuFO3JWnLQ-xD0oIWhMC3dodlvDLbTCd4NGjlmV4cVLvToT-CAYftRoU6Xh-gnuXiJZQg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>किसानी करते हुए आठ साल गुजर गए। इन आठ वर्षों में जीवन इंद्रधनुष की माफिक हो गया। कितना कुछ बदल गया। एक से बढ़कर एक लोग मिलते रहे, कारवां बनता जा रहा है। </div><div><br></div><div>गुजरे आठ साल में बहुत कुछ खोया भी, बहुत कुछ पाया भी। आप जब अपने काम-धाम का लेखा-जोखा करने बैठते हैं तो आपका मन शिक्षक की भूमिका में सामने खड़ा हो जाता है। वही बताता है कि आपने क्या खोया, क्या पाया! </div><div><br></div><div>गाम -घर और खेती-बाड़ी, जीवन का हर रंग दिखाने में कामयाब रहा और यह चेतावनी भी देता रहा कि अभी बहुत कुछ करना बांकी है, पड़ाव आते रहेंगे, लेकिन वह हमारी मंजिल नहीं होगी।</div><div><br></div><div>इन आठ वर्षों में धान, मक्का, गाछ-वृक्ष, जल-जंगल-जमीन, सबकुछ किताब के पन्नों की तरह जीवन में समा चुका है। किसान की आवाज़ अंदर-भीतर रियाज़ करता रहता है। 'एक ऋतु आये एक ऋतु जाए' की सीख इसी पेशे में मिली।</div><div><br></div><div>धान के मौसम में किसानी करते हुए इन गुजरे आठ साल का हिसाब करने बैठा हूँ तो धान की हरियाली और भी मोहक लगने लगी है। खेत को देखता हूँ लगता है कि कबीर लाठी लिए सामने खड़े हैं और चेतावनी दे रहे हैं कि मन के भीतर कितना मैल बैठ गया है, पहले उसे तो साफ करो! तभी सूरदास की यह पाती याद आ जाती है- </div><div><br></div><div>"मो सम कौन कुटिल खल कामी।</div><div>पापी कौन बड़ो है मोसे, </div><div>सब पतितन में नामी।</div><div>सूर, पतित कों ठौर कहां है, </div><div>सुनिए श्रीपति स्वामी॥"</div><div><br></div><div>दरअसल खेती - बाड़ी, कलम स्याही करते हुए हर दिन कई लोगों से मुलाकात होती है, हर कोई कुछ न कुछ न सीख देकर ही जाते हैं। किसानी के पेशे में आने के बाद इस बात को लेकर मन और मजबूत हुआ कि वक्त सबसे बड़ा शिक्षक है, वही सम्पादक है, वही साथी है, वह सबकुछ सीखा देता है। </div><div><br></div><div>इन गुजरे आठ साल में बाबूजी की छाया भीतर पानी की तरह समाने लगी है, वे हर दिन कुछ नया दे जाते हैं ताकि संघर्ष जारी रहे। एक बार उन्होंने पूछा था - "झिंगुर की 'झीं-झीं' और गिरगिट की 'ठीक-ठीक' आवाज़ को पहचान सकते हो?" उस वक्त उनके सवाल को समझ न सका था, वे भीतर की शांति को समझने की सलाह दे रहे थे। दरअसल भीतर की शांति मन को धो देती है। </div><div><br></div><div>खेती बाड़ी करते हुए लोगबाग से करीबी बढ़ती जा रही है, खेत की माया गाछ-वृक्ष की छाया में समाते जा रही है, नाटक की तरह। </div><div><br></div><div>गुजरे वर्षों में गाँव भी बदला है, बहुत कुछ बदला। लेकिन किसानी के पेशे में आने के बाद जिस चीज ने मुझे मजबूत बनाया है वह संघर्ष ही है, रेणु की बोली में- 'तेरे लिए मैंने लाखों के बोल सहे...'</div><div><br></div><div>अभी बहुत कुछ करना बांकी है, यात्रा जारी है, हम सब यात्री बने रहें...</div><div><br></div><div>#ChankaResidency</div><div>#kisaan</div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-65403365163937502202023-08-30T15:39:00.001+05:302023-08-30T15:39:21.099+05:30ओल की सब्जी का स्वाद! <div>'कबकब' समझते हैं? मुझे तो 'कबकब' एक स्वाद का नाम लगता है। तो पूछिये कि यह स्वाद मिलेगा कहाँ? तो जवाब है कि यह स्वाद देसी ओल अपने पास रखता है। हाइब्रिड ओल को इस स्वाद से वंचित रहना पड़ता है। </div><div><br></div><div>ओल का चौखा और सब्जी बनाना हँसी-ठट्ठा का काम नहीं है। जतन से बने तो इसके आगे सारी सब्जियां पानी भरती नजर आती हैं। नहीं तो मुंह मे लेते ही 'कबकब' !</div><div><br></div><div>और यदि 'कबकब' स्वाद को और भी स्वादिष्ट बनाना है तो ओल की सब्जी में जम्बीरी नींबू डाल दीजिए! इससे ओल का सन्ना(चोखा) और ओल का रसदार दोनों बन जायेगा मजेदार। </div><div><br></div><div>हमारे तरफ़ ओल को पूस-माघ में रोपा जाता है और भादो और आसिन तक यह फसल तैयार। मैथिली में हमारे यहां एक पुरानी कहावत है-</div><div>कियो-कियो खाइये भादवक ओल....की खाय राजा, की खाय चोर!</div><div><br></div><div>[अर्थ: भादो का ओल किसी-किसी को नसीब है, या तो राजा को या चोर को!]</div><div><br></div><div>तो बात 'कबकब' से शुरू हुई थी तो अब जब बात खत्म करने की वेला आई तो मैथिली के बड़े साहित्यकार और हास्य सम्राट हरिमोहन झा की याद आ गई है। उन्होंने ओल के 'कबकब' स्वाद का अपनी एक कविता में जिक्र किया है, हरिमोहन बाबू लिखते हैं -</div><div><br></div><div>'टन-टन-टन-टन बाजथि कनियां सेदल ढोल जकां, </div><div>'बोली हुनकर लागि रहल अछि कब-कब ओल जकां'</div><div><br></div><div>[अर्थ: नई नबेली-बहू गरम ढोल से निकली आवाज की तरह टन-टन बोल रही है और लोगों को उसकी बोली 'कबकब' ओल की तरह लग रही है! ]</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjoTdB1GUYDsB8abu2OW6biaocrBTwnRocLaCIisDNAnpMKtZjxpjqRenWz8ptG5Sx2yymdSgo5a8uu-iAZw0TDFtbvKLqA7kP8cpuUnKuNIC37e4zIk_2oAQyn4F3aweOkfj2274Bkl7uf6daTFVNQKC1qALj8QlOqyDvWPL0JCw_aq4qPAw" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-18482817603200516202023-08-14T08:55:00.002+05:302023-08-14T08:56:49.499+05:30पंकज त्रिपाठी : एक सहज अभिनेता #OMG2<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjYJm-Ld2RnWROKfSK422p8kl8ZgWZ37GR2yrvWHIlnk3nQoJjDwrFO_13w1BgPBhjGhDk9KwW-cUPCDf558GrbOkgbQhTtN-z1WFfEwlG0Qlc9amxoeHna-N-n5r3V_Pg5nD-t5i1HLrrMRFcBB1TJ8MnKN-V2sgomtqWqN24RbPlrWZR4Gw" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>लगभग दो साल पहले, ठंड के मौसम में पश्चिम बंगाल के किसी चाय बगान में पंकज त्रिपाठी भैया से मुलाकात हुई थी। जाते वक्त उन्होंने उज्जैन के महाकाल मंदिर की अगबत्ती हाथ में थमा दी और कहा, “इसकी खुश्बू कमाल है, जीवन में सुगंध बनी रहनी चाहिए।”</div><div><br></div><div>आज इस अगरबत्ती की बात इसलिए कर रहा हूँ कि क्योंकि इसका जुड़ाव उनकी फिल्म 'ओएमजी 2' से है। </div><div><br></div><div>फिल्म ‘ओएमजी 2’ के जरिये पंकज त्रिपाठी ने अपनी अभिनय यात्रा का एक पड़ाव पूरा किया है। हर बार जब भी उन्हें पर्दे पर देखता हूँ तो लगता है कि अपने अंचल का कोई 'संवदिया' है। </div><div><br></div><div>फणीश्वर नाथ रेणु अपनी कहानी 'संवदिया' में लिखते हैं - "संवाद पहुंचाने का काम सभी नहीं कर सकते. आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बनकर आता है. संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना, सहज काम नहीं... "</div><div><br></div><div>'ओएमजी 2' में पंकज त्रिपाठी हमें संवदिया के रंग में दिखते हैं। उन्होंने मालवा की बोली को आत्मसात करते हुए फिल्म को धार दी है। </div><div><br></div><div>वहीं इस फिल्म के निर्देशक अमित राय को ' ओएमजी 2' लिए आने वाले समय में ट्रेंड सेटर फिल्मकार के रूप में याद किया जाएगा।</div><div><br></div><div>#OMG2</div><div><br></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-6325717725502760272023-04-18T20:48:00.001+05:302023-04-18T20:48:19.626+05:30रात और पेड़- पौधों की बात <div>इस मौसम की रात बड़ी अलग होती है। शाम ढलते ही अहाते में खड़ा हर पेड़, हर छोटा पौधा कुछ न कुछ सुनाता है। अभी कुछ टिकोले गिरने की आवाज़ सुनाई दी, धप्प! </div><div><br></div><div>नीम का किशोरवय पेड़ रात में इस कदर लगता है, मानो तैयार होकर कहीं निकलना हो। दिन भर की तपती गरमी के बाद हल्की सी हवा चली है, ऐसे में नीम की पत्तियाँ हिलती दिख रही है, मानो किसी ने बाल में कंघी कर दी हो! </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjwGpU0ISqcs5CDYBsXLXDjnXHwcCwgZ-VDE1ghdeDC1l4i7A93GPqdV_jPXN461Coa9JpqH-K9ZABiJuLCJaV7yTMR3ZzDOFhZZptGmrHs8Hlg4gCY8AXRsl-9WPS3EKo9yu81U8-GHMh4LJCyKjMRLXctoUk5orzFlflYYzIxyt5rW7M" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div>फूलबाड़ी में सबसे अधिक इठलाती है बेली। इसे शाम से पहले चाहिए पेट भर पानी! प्यास मिट जाने के बाद शाम ढलते ही अहाते को खुशबू देने का काम बेली ही करती है। इस फूल की पत्तियाँ भी कम मोहक नहीं होती, मोटी लेकिन पान के छोटे पत्ते की तरह। फूल की तो बात ही छोड़िये, एक फूल को बस एक गिलास पानी में रख दीजिये! </div><div><br></div><div>उधर, कटहल का पेड़ मजबूती से खड़ा है, आसमां को निहार रहा है। इस पेड़ की टहनी फल के भार से झुकती नहीं है, और भी विनम्र हो जाती है फल देने के बाद। कोई चिड़ियाँ इस पेड़ पर आशियाना बनाई हुई है। </div><div><br></div><div>बगल में ही अमरूद का पेड़ है। इसमें फूल आया है, एकदम दूध की तरह सफेद। दिन में इस पेड़ को गिलहरियाँ घेरे रहती है। शाम से इसे आराम मिला है। अहाते की शांति में यह पेड़ चाँद - तारों से गुफ़्तगू कर रहा है। </div><div><br></div><div>दो बरख पहले अहाते में लीची का पौधा लगाया था, इस साल फल देने की तैयारी में है। चमगादर का एक झुंड साँझ में इसके आसपास मंडराने लगता है। लाल चिटियाँ भी इस पेड़ से चिपकी रहती हैं।</div><div><br></div><div>इस मौसम में गाम की रात कई चीजें सिखाती है। मक्का की तैयारी भी कहीं कहीं चल रही है। कहीं किसी मंदिर में लोगबाग गीत गा रहे हैं तो कहीं थ्रेसर से फसल की तैयारी चल रही है। कवि अरुण कमल की कविता ' एकालाप ' की यह पंक्ति याद आ रही है -</div><div>" आदमी धान का बिजड़ा तो नहीं </div><div>कि एक खेत से उखाड़ कर दूसरे में रोप दे कोई! "</div><div><br></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-55748494645044741892023-03-10T16:43:00.001+05:302023-03-10T16:43:45.697+05:30हम सब निमित्त मात्र हैं! कई चीजें एक साथ चलती रहती है, संग चलना भी तो कला ही है। चलते चलते जब हम थक जाते हैं तो किनारा पकड़ लेते हैं। कुछ यार-दोस्त वहाँ भी साथ हो जाते हैं। ऐसे बेपरवाह दोस्त सबके नसीब में कहाँ होता है! दरअसल ऐसे दोस्त एकतरफा स्नेह देते रहते हैं, बाहें फैलाये! <div><br></div><div>कमरे से बाहर हम सब अपने अपने हिस्से की दुनिया बनाते हैं, जहाँ हम चलते हैं, रुकते हैं। इस दुनिया में अपना पड़ाव होता है, कुछ उस पड़ाव को मंज़िल समझते हैं, कोई उस पड़ाव से आगे निकल जाता है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-yZAk997nQ3EjfQAMCUlTIKe6o2vED4vd5bTWkW3nxESGbrxHtyIqS2PqcQx2eAB15NEUvT82sDf1fyW3dIBbTus_jzAjk6KBKGUT4uoirmKqvlFVLAXLDyxS5KXIXMnWMQ/s1600/1678446816668159-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</a>
</div><br></div><div>हम सब भीड़ में भीड़ बनकर एक नाटक रचते हैं। कंधों का सहारा लेते हैं और फिर उस कंधे को छोड़, भीड़ में खो जाते हैं। हम सब असल में हर पल नाटक ही तो करते हैं। लेकिन हम इस भरम में रहते हैं कि नाटक अपना है, हम ही इस नाटक के पटकथा लेखक-निर्देशक हैं। जबकि सच तो कुछ और ही होता है। सब कुछ नियति के हाथ का खेला होता है, हम सब निमित्त मात्र हैं! </div><div><br></div><div>अपने हिस्से की दुनिया में हम उम्मीद के बीज बोने की शुरुआत करते हैं, जीने के लिए तमाम तरह के प्रपंच रचते हैं। और एक दिन अचानक नाटक में अपना किरदार पूरा हो जाता है!</div><div><br></div><div>यह 'अचानक' ही हम सबका सच है, इसी सच में रंग है, इसी सच में सबकुछ है, कभी सुख ही सुख तो कभी दुख का पहाड़!</div><div><br></div><div>आइये, उस 'अचानक' को स्वीकार करते हैं, अपने भीतर के रंग को पहचानने की कोशिश करते हैं, खुद को खुद से रिहा करने की कोशिश करते हैं... </div><div><br></div><div>[ सतीश कौशिक के निधन की खबर सुनने के बाद आत्मलाप]</div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-20187392480935520192023-03-04T08:05:00.002+05:302023-03-04T08:05:41.102+05:30रेणु की दुनिया<p><span lang="HI" style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">आज अपने रेणु का जन्मदिन है। फणीश्वरनाथ रेणु,
जिन्होंने गाम की बोली-बानी</span><span style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">कथा-कहानी</span><span style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">गीत</span><span style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: inherit; font-size: large; line-height: 115%;">चिडियों की आवाज, धान-गेंहू
के खेत, इन सभी को शब्दों में पिरोकर हम सबके सामने रख दिया और हम जैसे पाठक उन
शब्दों में अपनी दुनिया खोजते रह गए।</span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने
लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले
उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा। </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> <br /></span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">किसानी करने का जब फैसला लिया</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">तब भी रेणु ही मन में अंचल
का राग सुना रहे थे और मैं उस राग में कब ढल गया</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">पता भी नहीं चला। गाम में रहते हुए रेणु से लगाव
और भी बढ़ गया। पिछले एक दशक से लगातार रेणु की माटी-पानी में हूँ। एक दशक में
बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव कभी-कभी चौंकाता भी है लेकिन बदलाव तो सत्य है।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUpUtAoNJxHtibUP6Ez5xG0zcCxGJZaM3jueRXTI6Ob1FPyIdd5Fro0cxvTF3RUf7rrILDq6-Ru4FO9tFxrJliq0IDl8HQMJSsCa97IfeEM18Ir2-M65dpz-DTRhj0EFuiwmKySSJuNGsKLTuJmkJvbivJ7xSmZHv06jppCxNPWj75XYk/s1299/%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%811.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="1299" height="158" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUpUtAoNJxHtibUP6Ez5xG0zcCxGJZaM3jueRXTI6Ob1FPyIdd5Fro0cxvTF3RUf7rrILDq6-Ru4FO9tFxrJliq0IDl8HQMJSsCa97IfeEM18Ir2-M65dpz-DTRhj0EFuiwmKySSJuNGsKLTuJmkJvbivJ7xSmZHv06jppCxNPWj75XYk/s320/%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%811.jpg" width="320" /></a></span></div><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><br /></span><p></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूंँ, बतियाता
हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु के रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणुकी जड़े दूर तक
गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है। ठीक आँगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">जिस पर पैर रखते ही हम
फिसल जाते हैं..) की तरह।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने
तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली
गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था </span><span style="line-height: 115%;">– “</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">जिदन संकु-संगेन </span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">इमिन रेयो-लं सलय-एला।</span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">”</span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">यहाँ आइए</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">यहाँ ढूंढ़ना है और पाना
है..</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">सच कहूँ तो रेणु की यह पंक्ति मुझे गाम के जाल
में उलझाकर रख देती है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">मैं इस जाल से बाहर जाना अब नहीं चाहता</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">आखिर जिस सुख की खोज में हम दरबदर भाग रहे थे</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">उसका पता तो गाम ही है। आप
इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन मैं इसे अपने हिस्से का <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सच मानता हूँ।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">हाल ही में पटना स्थित रेणु के आवास की स्थिति का जिक्र कई
जगह पढ़ा। कई लोगों ने कहा कि सरकार को रेणु के घर, उनके सामानों को संभालकर रखना
चाहिए। ऐसी बातों को सुनकर लगा कि यह सब देखकर रेणु क्या कहते। दरअसल सरकार पर
इतना भरोस क्यों किया जाए, क्या समाज का कुछ दायित्व नहीं है। रेणु हम सबके हैं,
हम सब मिलकर चाहें तो कुछ भी हो सकता है। </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">खैर, रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का
महत्व समझ पाया। मुझे याद है सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब
टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">तब सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">शायद वे रेणु की बात हम तक
पहुँचा रहे थे। पिछले दिनों को याद करता हूँ तो लगता है कि रेणु जीवन में कब आए</span><span style="line-height: 115%;">? <span lang="HI">2002 में शायद। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर।
बाबूजी कहते थे कि </span></span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">“
</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">रेणु को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा
सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी
लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन
लैंस से गाम घर को देखना होगा।</span><span style="line-height: 115%;">”<span lang="HI"><o:p></o:p></span></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">दरअसल रेणु छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने
की कला जानते थे। अपने ब्योरों</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे। मक्का की खेती और आलू उपाजकर
जब मैं की-बोर्ड पर टिपियाना शुरु करता हूँ तो तब अहसास होता है कि फिल्ड नोट्स को
इकट्ठा करना कितना बड़ा काम होता है। और यह भी अहसास होता है कि अनुभव<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>को लिखना कितना कठिन काम है।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">हर दिन गाम-घर करते हुए लगता है मानो रेणु की
दुनिया आंखों के सामने आ गयी है। दरअसल उनका रचना संसार हमें बेबाक बनाता है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">हमें बताता है कि जीवन सरल
है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">सुगम है, इसमें दिखावे का
स्थान नहीं के बराबर है। रेणु अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते
थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं-</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span style="line-height: 115%;">“</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया
यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">गाड़ीवानी करते हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">पहलवानी करते हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">ठेकेदार है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">शिक्षक है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">एमएलए हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">भूतपूर्व क्रांतिकारी और
वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">वकील हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">मुहर्रिर हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते
हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर
कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">सो वहां वाली बात है न </span><span style="line-height: 115%;">?” (</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">पांडुलेख से)</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता
चला कि मनुष्य की आकृति</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">रूप-रंग</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">बोलचाल</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न ही बड़ी-बड़ी इमारतों से देश
की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">उनमें मनुष्यता की ऐसी
चिनगारी छिपी रहती है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र
को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी की है- </span><span style="line-height: 115%;">“</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">दो आजाद देशों की</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">हिंदुस्तान और पाकिस्तान
की ईमानदारी को</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया।</span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">”</span><span style="line-height: 115%;"> (</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">मैला आंचल पृष्ठ संख्या
320)</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ।
कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका
रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ
रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार,
सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री,
किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए।
एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं। परती
परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गाँव की बदलती
हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी
कथा होती है</span><span style="line-height: 115%;">,
</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>में गढ़ देते हैं। गाँव की कथा बांचते हुए रेणु
देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">एक पाठक<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>के तौर पर रेणु की कृति </span><span style="line-height: 115%;">'</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">परती परिकथा</span><span style="line-height: 115%;">' </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">मुझे सबसे अधिक पसंद है।
दरअसल इस किताब में ज़िंदगी धड़कती है। इस कथा का हर पात्र मुझे नायक दिखता है।
भवेश</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">सुरपति</span><span style="line-height: 115%;">,
</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">मेरी</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">ताजमनी</span><span style="line-height: 115%;">,
</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">जितेंद्र ..इन सबकी अपनी-अपनी दृष्टियां हैं। कथा के भीतर कथा रचने की कला
रेणु<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>के पास थी। कथा में वे मन की परती
तोड़ते हैं</span><span style="line-height: 115%;">,
</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">यही मुझे खींच लेती है। दरअसल खेती करते हुए हम यही करते हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">परती तोड़ते हैं।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;"><o:p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">और अंत में रेणु की ही वाणी- </span><span lang="EN-US" style="line-height: 115%;">“</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">दुहाई गांधी बाबा....!
गांधी बाबा अकेले क्या करें! देश के हरेक आदमी का कर्त्तव्य है...! </span><span style="line-height: 115%;">”</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span style="line-height: 115%;"><br /></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 115%;">(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गाँव
में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु
तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">फसल</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">किसानी</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 115%;">गाँव-देहात की बातें करते
हैं। )</span></span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-ascii-theme-font: minor-bidi; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-theme-font: minor-bidi;"><o:p></o:p></span></p>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-3383656933588259312023-01-10T19:41:00.001+05:302023-01-10T19:41:19.774+05:30पिता, अब जहाँ हैं! <div><div>पिता की स्मृति अपने लिए आत्मालाप है। पिता जीवन में नायक की तरह दाखिल होते हैं, जो दुनिया को देखने का साहस देते हैं, अपनी नज़र से।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsWee9GFZgoCGMigXQ5m-nkhIXZNRJZmFEOTonr46VzLU_nAcWYPnBa_VmH2SP0r5Od3pYBUi15dFOxmvihnH8WCC-TLD_EsegR5hiJbS_7QyaSKawwGPJZ7M29ONyIG2AKg/s1600/1673359876033463-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsWee9GFZgoCGMigXQ5m-nkhIXZNRJZmFEOTonr46VzLU_nAcWYPnBa_VmH2SP0r5Od3pYBUi15dFOxmvihnH8WCC-TLD_EsegR5hiJbS_7QyaSKawwGPJZ7M29ONyIG2AKg/s1600/1673359876033463-0.png" width="400">
</a>
</div><br></div><div>पिता जो अब हैं नहीं, लेकिन हैं, आसपास। श्याम तुलसी, कुछ फलदार पेड़, फूल - पत्ती और पानी की दुनिया के बीच वे स्थिर भाव से सबकुछ देखते नज़र आते हैं। उस जगह, जहाँ पिता हैं, वहाँ आम का पौधा, जो अब पेड़ बनने की राह पर आ चुका है, बाँह फैलाये मुस्कुरा रहा है। <br></div><div><br></div><div>ठंड के इस मौसम में तालाब का पानी दोपहर में बड़ा मायावी दिखता है, दो दिन बाद धूप जो नसीब हुआ है। उधर, धूप उगते ही पक्षियों की चहचहाहट बढ़ सी गई है। </div><div><br></div><div>पिता के जाने के बाद एक भाव आता है, जो कुछ कुछ पिता जैसा ही होता है, संयम का भाव! यह भाव जब आता है, एकांत का अहसास होता है। </div><div><br></div><div>पिता के जाने के बाद स्मृति में ढेर सारी कहानियाँ आती- जाती रहती हैं। उन कहानियों में एक पगडंडी होती है, जिस पर चलते चलते कभी दिख जाते हैं पिता! भरम ही सही लेकिन वो दिख जाते हैं, मुस्कुराते, कुछ कहते- समझाते... </div><div><br></div><div>पिता अब जहाँ हैं, उसके आसपास हरी- हरी दूब पर दिख जाती है कभी-कभी नीलकंठ चिड़िया। गुजरे आठ सालों में बाबूजी की दुनिया और भी बड़ी हो चली है। वे दिखा रहे हैं ढेर सारी पगडंडियां, जिस पर चलते हुए मिल जाते हैं लोगबाग। </div><div><br></div><div>मान्यताओं से इतर, एक राह होती है, जिसके सहारे हम पहुँचने की कोशिश करते हैं, पिता की स्मृति के समीप। पिता सब देखते हैं, अपने उन दिनों की कहानी सुनाते हैं, जिसमें माटी और माटी से जुड़े लोग होते हैं, हर रंग के... </div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-3421457651631478962022-12-02T14:35:00.001+05:302022-12-02T14:40:37.033+05:30एकांत<div><div>कई बार लगता है कि एकांत ही आत्मालाप का सबसे बढ़िया रास्ता है, ठीक उस पगडंडी की तरह जिस पर लोगों की लगातार आवाजाही होती रहती है लेकिन असल में वह पगडंडी अकेला होता है। यदि आप गाम घर के पगडंडी को ध्यान से देखेंगे तो उसके एकांत को महसूस कर पाएंगे। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-gWWYftwQ1Kp7i9kQbx9VXer9kOThzGBRKrvCe_aJ_KJiTHqXzpEFJMaj8Eti5ErrM9Uuz-v6sknS17rig8joIf_CijwPeArkDoigD4BDiH5HasP20obXoggRr4JdUgV6sA/s1600/1669971947300818-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-gWWYftwQ1Kp7i9kQbx9VXer9kOThzGBRKrvCe_aJ_KJiTHqXzpEFJMaj8Eti5ErrM9Uuz-v6sknS17rig8joIf_CijwPeArkDoigD4BDiH5HasP20obXoggRr4JdUgV6sA/s1600/1669971947300818-0.png" width="400">
</a>
</div><br></div><div>दोपहर में जब खेत का काम लगभग खत्म हो चुका है, धूप मध्यम हो चुका है, तब चिड़ियों की आवाजें तेज हो गई है। इस मौसम में खेत सज संवर कर तैयार है। तैयार खेत के आल पर गिलहरियों की आवाजाही देखने वाली होती है। चंचल गिलहरियों को देखना असल में आत्मालाप ही है। खेत के आल पर चिड़ियों के बीच गिलहरियों को दौड़ते भागते देखना किसी योग की तरह है। आपको स्थिर मन से इन जीवों की चंचलता को अनुभव करना होगा। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYyukgaV4kfcEp2sPK25HXVS4_-_EWLGQCsX1wmpCS8ksCnxd1u_0HYyr5f1E6a8rgUyCR0H4cUjwkdo_ffA0bpMo5jmElz-h07JlYLHkO8ay9FqKhZ_Vjj4271LYRWv84lA/s1600/1669972231476672-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>उधर, खेत से इतर आवासीय परिसर में पहाड़ी मैना और नीलकंठ चिड़ियाँ अपनी आवाज़ों से जुगलबंदी कर रही है। आसपास कहीं बच्चे खेल कूद रहे हैं। बिजली के खंबे पर गिलहरियाँ कूद फ़ान रही है। आसपास जब इतनी चीजें एक साथ होती दिखती है, तब लगता है असल एकांत यही है, जहाँ हर एक जीव जीने की जुगत में कुछ न कुछ जरूर कर रहा है।</div><div><br></div><div> फूलबारी में सफेद और गुलाबी रंग के गुलाबों पर तितलियाँ मंडरा रही हैं। इन सबको देखते हुए मन में कोई संगीत बजने लगा है, स्मृति में दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस में किसी साल देखे स्पिक मैके की संगीत संध्या की याद ताज़ा हो चली है। हवा में गुलाबी ठंड का अहसास सरोद वादक अयान अली बंगश के करीब पहुंचा रही है। जीवन संगीत का आलाप ही तो है, हर कोई रियाज़ में लगा है, अपने- अपने एकांत में। #ChankaResidency</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-28546656822043057752022-10-28T21:21:00.001+05:302022-10-28T21:21:59.417+05:30कथावाचक पंकज त्रिपाठी<div><div><br></div><div>मुझे जिस तरह फणीश्वर नाथ रेणु का साहित्य अपनी ओर खींचता है, ठीक उसी तरह अभिनेता पंकज त्रिपाठी की बोली बानी भी आकर्षित करती है। सच यह है कि मुझे किस्सागो लोग सबसे अधिक पसंद हैं। और अपने पंकज त्रिपाठी भैया भी कमाल के किस्सागो हैं। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHn5FP2MYYpL9AohJpp0YyIeAJvm4h_SifPRKCInTs8yjbFZ77jANpMyb2eZiLdDw-PkeSpkWKAjwGtuSAMmmseFWicFo9B-SaxaTpJAWbRvGWMr8Ho9GDEnAi0_ibZMIXcA/s1600/1666972313806654-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHn5FP2MYYpL9AohJpp0YyIeAJvm4h_SifPRKCInTs8yjbFZ77jANpMyb2eZiLdDw-PkeSpkWKAjwGtuSAMmmseFWicFo9B-SaxaTpJAWbRvGWMr8Ho9GDEnAi0_ibZMIXcA/s1600/1666972313806654-0.png" width="400">
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</div><br></div><div>उनसे आप जब कोई सवाल पूछेंगे तो जवाब की रेखा ऐसी होगी मानो कोई पेंटिंग हो। वे बातों ही बातों में आपको अपने गाम-घर लेकर चले जायेंगे और फिर खेत-पथार के बीच छोड़ देंगे। उनकी बातों में आसपास के ढेर सारे लोग होते हैं, कई चरित्र नायक होते हैं। वे कहानियों में कहानी खोज लाते हैं। कल्पना की बात करते हैं, आसमां की बात करते हैं। सच पूछिए तो मुझे वे तो खेतिहर अभिनेता लगते हैं, जिसे पता होता है कि धान की खेती कैसे होगी, गेंहू में कितनी पटवन की आवश्यकता है। </div><div><br></div><div>अभी यूट्यूब पर उनकी एक बातचीत सुन रहा था, ऋचा अनिरूद्ध जी के साथ। इसमें वे एक जगह कहते हैं- "हम आम, महुआ, परवल, टमाटर के बीच के अभिनेता हैं। "</div><div><br></div><div>उनकी यह बात सुनकर मुझे रेणु की कहानी रसप्रिया को याद आ गई। यह कहानी मुझे बहुत पसंद है। कहानी की शुरुआत इस वाक्य से होती है- “धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नयी झलक झिलमिला गयी- अपरूप –रूप ! ”</div><div><br></div><div>दरअसल पंकज भैया का अभिनय और उनका किस्सागो चरित्र सचमुच ‘रेणु की रसप्रिया’ ही है। आप उनकी कोई बातचीत सुन लें, हर बातचीत में गाँव सबसे अधिक मुखर होता है। मुझे वे मुंबई में एक देहाती लगते हैं, जो अपने संग गाम - घर लिए चलता - फिरता रहता है। यदि आप फणीश्वर नाथ रेणु के साहित्य में रुचि रखते हैं तो उनके उपन्यास ' परती परिकथा' से भी परिचित होंगे। इस उपन्यास में एक भिम्मल मामा हैं। रेणु का यह पात्र कोई गैरवाजिब बात नहीं कहता लेकिन, उसको अपने ढंग से सुनाता है। यही पंकज त्रिपाठी भैया का अंदाज है। </div><div><br></div><div>ऋचा जी के कार्यक्रम Zindagi with Richa में पंकज भैया मुझे रेणु के किसी स्केच की तरह लग रहे थे, जिसकी आँखों में गाँव है और आँखें भी कैसी, मानो वह गाँव से निकल रहा हो...</div><div><br></div><div>दो घंटे से अधिक लंबी इस बातचीत को सुनते हुए आप अनुभव कर सकते हैं कि पंकज त्रिपाठी भैया असल में कमाल के कथावाचक हैं। एक ऐसा कथावाचक जो पल भर में आपको हँसा देगा तो दूसरे ही पल आपको रूला भी देगा। </div><div><br></div><div>पंकज जी के इस इंटरव्यू को देखते हुए मुझे रेणु जी का लिखा बिदापत-नाच याद आने लगा। बिदापत नाच में रेणु लिखते हैं-</div><div>“दुखी - दीन, अभावग्रस्तों ने घड़ी भर हँस-गाकर जी बहला लिया, अपनी जिंदगी पर भी दो-चार व्यंग्य बाण चला दिये, जी हल्का हो गया। अर्धमृत वासनाएं थोड़ी देर के लिए जगीं, अतृप्त जिंदगी के कुछ क्षण सुख से बीते। मिहनत की कमाई मुट्ठी भर अन्न के साथ-साथ आज इन्हें थोड़ा सा ‘मोहक प्यार’ भी मिलेगा, इसमें संदेह नहीं। आप खोज रहे हैं – आर्ट, टेकनीक और न जाने क्या-क्या और मैं आपसे चलते-चलाते फिर भी अर्ज करता हूँ कि यह महज बिदापत नाच था।”</div><div><br></div><div>और फिर चलते-चलते यही कहूंगा कि अभिनय के क्षेत्र में पंकज त्रिपाठी जो भी हों, असल में वे रेणु के स्केच हैं...</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-82032805818757146952022-10-02T09:38:00.001+05:302022-10-02T09:38:46.004+05:30गांधी जी के नाम पर झूठ! <div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrwM9snYq_kPNqwPpcmLII3Ti6PS81IhOZIpaHd77HlByLa8-qAoDngIriStv3-deq4XRRbkLwK_XYGt9cHrWK94qleUlJwkLQpNYWtBIT6QeSbcJDHtZ6mluXTRp_C3Rs_g/s1600/1664683720937411-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div>आज बापू की जयंती है। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि हम सबसे अधिक झूठ बापू के ही नाम पर बोलते हैं। अब दो अक्टूबर को आयोजित होने वाले ग्राम सभा को ही लीजिये! यह भी एक झूठ है। जबकि यह लिखते हुए मुझे गांधी जी का यह लिखा याद आ रहा है - "अगर हिंदुस्तान के हर एक गांव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूंगा, जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी।”</div><div><br></div><div>पिछले एक दशक से बिहार के ग्रामीण इलाके में हूँ और सच कह रहा हूँ ' ग्राम सभा' का मजाक देख रहा हूँ। एक कॉपी या कहिये एक रजिस्टर में ग्राम सभा आयोजित होती है और उस कॉपी के पन्ने पर गांधी जयन्ती लिख कर झूठ का व्यापार किया जाता है।दरअसल यहीं से 'गांधी' नाम पर घोटाले की शुरुआत होती है। </div><div><br></div><div>यह कटु सच है कि हम सबकी चुप्पी गांधी जी के नाम पर होने वाले झूठ के व्यापार को बढ़ावा देती आई है। इसके लिए हम सब दोषी हैं क्योंकि यह देश की संसद की बात नहीं, हमारे आपके पंचायत - वार्ड की है। </div><div><br></div><div>आप दिल्ली- पटना या किसी भी सूबे के प्रधान को बड़ी आसानी से दो बात कह देते हैं लेकिन आँख के सामने घर-दुआर - पंचायत में होने वाली गलतियों पर गज़ब की चुप्पी साध लेते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो ग्राम सभा में एक चुप्पी रहती है और फिर उस चुप्पी के एवज में लम्बा व्यापार चलता है। </div><div><br></div><div>हमें इस चुप्पी की ही सजा मिल रही है। गांधी हमें अन्याय सहने की बात नहीं कह गए हैं। कम से कम गाँव में चुनाव के जरिये जिन्हें चुनते हैं, उनसे तो सवाल करिये। </div><div><br></div><div>बापू की सादगी से सीखने का यह समय है। निजी तौर पर मुझे उनकी सादगी ही खिंचती है। कोई आदमी इतनी ऊँचाई पर पहुँचने के बाद इस तरह की सादगी कैसे बनाए रखा होगा, यह एक बड़ा सवाल है। महात्मा ने सादगी कोई दिखाने या नाटक करने के लिए नहीं अपनाई थी। यह उनकी आत्मा से उपजी थी। तो आइये, सादगी से ही सही सवाल करिये! </div><div><br></div><div>#GandhiJayanti</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-30384651724453745122022-09-24T08:51:00.001+05:302022-09-24T08:51:01.010+05:30पितृपक्ष और बाबूजीपितृपक्ष शब्द ही खुद में एक शास्त्र है। इस दौरान हम अपने पुरखों को याद करते हैं, उनकी स्मृति में कुछ न कुछ जरूर करते हैं। मेरे लिए पितृपक्ष शक्ति पूजा की तरह है। मेरे लिए पितृपक्ष की अलग अलग तिथि पूर्वजों का आशीष है। <div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdpZGWSd7ADp19ege_zpd32kQ6-hE_oIVxJ6JV8qDpMyg8kR-mbe2u0u3KEo0DJBxqkfMUHAYPkdSlWhsWs6sd103vKxikz72EnFajkRW3oo8h7lMe6XZ3BfgJtT3H2wsA-g/s1600/1663989655522669-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>बाबूजी हर दिन तर्पण करते थे, वे पुरखों को याद करते थे। तर्पण की परम्परा हमने बाबूजी से ही सीखी। वे नियम से तर्पण करते थे। शास्त्रीय - धार्मिक पद्धति के अलावा वे एक काम और किया करते थे, वह था अपने पूर्वजों के बारे में बच्चों को जानकारी देना। दादाजी की बातें वे बड़े नाटकीय अन्दाज़ में सुनाते थे। वे उसमें वे शिक्षा, व्यवहार के संग खेती- बाड़ी को जोड़ते थे। सबसे बड़ी बात वे किसी की भी निंदा नहीं करते थे। उनके भीतर जो चलता हो लेकिन बाहर वे किसी की निंदा करने से बचते थे। अपने किये के प्रचार से वे हमेशा दूर रहे। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि हमने ये किया.. वे सबकुछ 'अपने पिता का किया' कहते थे। </div><div><br></div><div>पितृपक्ष की परंपरा को समझने- बूझने के दौरान आज बाबूजी की बहुत याद आ रही है। लगता है वे आसपास कहीं टहल रहे हैं। हर दिन जब संघर्ष का दौर बढ़ता ही जा रहा है और सच पूछिए तो चुनौतियों से निपटने का साहस भी बढ़ता ही जा रहा है, ऐसे में लगता है कि बाबूजी ही मुझे साहस दे रहे हैं। अक्सर शाम में पूरब के खेत में घूमते हुए लगता है कि वे सफेद धोती और बाँह वाली कोठारी की गंजी में मेरे संग हैं।</div><div><br></div><div>लोग पितृपक्ष में परंपराओं के आधार पर बहुत कुछ करते हैं, मैं कोई अपवाद नहीं। लेकिन मैं उन चीज़ों से मोहब्बत करने लगा हूं, जिसे बाबूजी पसंद किया करते थे। खेत, पेड़-पौधे, ढ़ेर सारी किताबें, डायरी में लिखा उनका सच और उनकी काले रंग की राजदूत।</div><div><br></div><div>बाबूजी की पसंदीदा काले रंग की राजदूत को साफ़ कर रख दिया है, साइड स्टेण्ड में नहीं बल्कि मैन स्टेण्ड में। वे साइड स्टेण्ड में बाइक को देखकर टोक दिया करते थे और कहते थे : " हमेशा सीधा खड़े रहने की आदत सीखो, झुक जाओगे तो झुकते ही रहोगे..."</div><div><br></div><div>सच कहूं तो अब अपने भीतर, आस पास सबसे अधिक बाबूजी को महसूस करता हूं। पितृपक्ष में लोगबाग कुश-तिल और जल के साथ अपने पितरों को याद करते हैं। लेकिन मैं अपनी स्मृति से भी अपने पूर्वजों को याद करता हूं क्योंकि स्मृति की दूब हमेशा हरी होती है और इस मौसम में सुबह सुबह जब दूब पर ओस की बूँदें टिकी रहती है तो लगता है मानो दूब के सिर पे किसी ने मोती को सज़ा दिया है।</div><div><br></div><div>आज बाबूजी से जुड़ा सबकुछ याद आ रहा रहा है। उनका अंत कष्ट से भरा रहा। जीवन के अंतिम दो साल मानो वे कष्ट के हर रंग को देखना चाहते थे। पितृपक्ष में मुझे बाबूजी की दवा, बिछावन, व्हील चेयर, किताबों वाला आलमीरा...सबकुछ याद आता है, मेरे लिए स्मृति भी एक तरह का तर्पण ही है। </div><div><br></div><div>मैं हर दिन सबकुछ उन्हें अर्पित करता हूं। वे मेरे लिए एक जज्बाती इंसान थे लेकिन यह भी सच है कि वे ऊपर से एक ठेठ-पिता थे, जिसने कभी अपना दुख साझा नहीं किया, जिसने अपनी पीड़ा को कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया।</div><div><br></div><div>आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्त्वपोऽञ्जलिम्।।</div><div>ॐ पितरस्यस्तृप्यन्ताम्।।</div><div><br></div><div><br></div><div><br></div><div><br></div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-69816765507697058522022-08-13T18:30:00.001+05:302022-08-13T18:30:58.075+05:30जीवन चलता ही रहता है! <div><div>जीवन चलता ही रहता है ! लेकिन स्मृति में बिछड़ गए लोग बने रहते हैं, हर मोड़ पर वह मुस्कुराते मिल जाते हैं। ऐसे लोग हमेशा संग में बने रहते हैं।</div><div><br></div><div>स्मृति ऐसी चीज है, जिसमें हम अपने को खोज ही लेते हैं, कहीं भी! कहीं बजते किसी गीत के बोल में, किसी पेंटिंग - स्केच में तो किसी बहते पानी में... </div><div><br></div><div>बिछड़े लोग कुछ न कुछ सीख देकर ही बिछड़ते हैं। बिछड़ कर वे गुरु की माफिक हो जाते हैं, जो दुःख भी देते हैं तो कुछ सिखाने के लिए ही। उम्र से परे हो जाते हैं बिछड़े लोग, मानो आसमां में उमड़-घुमड़ रहे हों। उनका बरस जाना हमें भीतर से भींगो देता है। आँख जब भर आती है तो लगता है, कन्धे पे हाथ दिये वह मुस्कुरा रहा हो... </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6n42B7AaJWG4wOJ9amCfX3Z3GjuAJstTQFxN4xLcjGlbXlErBLwWTH3WGtdNbhdTx_cfV2JWTtcMMSxhgOwLVLln0mLNsb4s4o3kxB4LjmxF4v-GhhGBq5aEyKYpG52HyWQ/s1600/1660395652828551-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>किसी के चले जाने का दुःख कोई बयां नहीं कर सकता। हम दुःख में अपने बिछड़े को याद करते रोते हैं, दिन काटते हैं लेकिन आसपास सबकुछ चलता रहता है, तेज़ रफ्तार में...</div><div><br></div><div>जीवन यही है! हमारा दुःख हमारा होता है, हमें ही ख़ुद को संभालना होता है, आसपास सबकुछ चलता रहता है, बहता रहता है, गंगा नदी की तरह, जिसमें सबकुछ है, पत्थर भी, माटी भी, पूर्णिमा भी अमावस भी।</div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-81890503919554965902022-07-20T11:34:00.001+05:302022-07-20T11:34:36.618+05:30खेत उजड़ता दिख रहा है<div>खेत उजड़ता दिख रहा है। बारिश इस बार धरती की प्यास नहीं बुझा रही है। डीजल फूँक कर जो धनरोपनी कर रहे हैं और जो खेत को परती छोड़कर बैठे हैं, दोनों ही निराश हैं। किसानी कर रहे हमलोग परेशान हैं। फ़सल की आश जब नहीं दिख रही है, तब ऋण का बोझ हमें परेशान कर देता है। नींद ग़ायब हो जाती है। खेती नहीं कर रहे लोग ऐसे वक़्त में जब ‘क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए’ का ज्ञान देते हैं तो लगता है कि उन्हें कहूँ कि बस एक कट्ठा में खेती कर देख लें। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijghXygI3awlZJ7w5IRHhHAbFy5FgYuIVNIjBB_04YXzWgV_q2SM5xEl8dEZqLYKk2eCSKdoMXy3Iy3-DZwDoOoFBpRctRspZAEOUxGYkrxD35MY3VnfH29wk1Ttavm8yJ5Q/s1600/1658297072440582-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijghXygI3awlZJ7w5IRHhHAbFy5FgYuIVNIjBB_04YXzWgV_q2SM5xEl8dEZqLYKk2eCSKdoMXy3Iy3-DZwDoOoFBpRctRspZAEOUxGYkrxD35MY3VnfH29wk1Ttavm8yJ5Q/s1600/1658297072440582-0.png" width="400">
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</div><br></div><div>दरअसल किसानी का पेशा प्रकृति से जुड़ा है, लाख वैज्ञानिक तरीक़े का इस्तेमाल कर लें लेकिन माटी को तो इस मौसम में बारिश ही चाहिए। </div><div>सुखाड़ जैसी स्थिति आ गयी है। </div><div><br></div><div>डीज़ल फूँक कर धनरोपनी नहीं कराने का फ़ैसला डराता भी है लेकिन क्या करें ? सरकार तमाम तरह की बात करती है, योजनाएँ बनाती हैं लेकिन किसान को मज़बूत करने के बजाय उसे मजबूर बना रही है।</div><div><br></div><div>योजना का लाभ उठाने के लिए हमें इतनी काग़ज़ी प्रक्रियाओं से जूझना पड़ता है कि हम हार जाते हैं। डीज़ल अनुदान लेने के लिए जिस तरह की प्रक्रिया प्रखंड-अंचल मुख्यालय में देखने को मिलती है तो लगता है इससे अच्छा किसी से पैसा उधार लेकर खेती कर ली जाए। यही हक़ीक़त है। </div><div><br></div><div>किसान बाप के बेटे-बेटी को, जिसकी आजीविका खेती से चलती है उसे अपनी ही ज़मीन लिए बाबू सब के दफ़्तरों का चक्कर लगाना पड़ता है। </div><div><br></div><div>बारिश के अभाव ने मन को भी सूखा कर दिया है। किसानी का पेशा ऐसे समय में सबसे अधिक परेशान करता है।</div><div><br></div><div>उधर, मानसून सत्र को लेकर मुल्क मगन है और इधर हम धनरोपनी और पानी का रोना रो रहे हैं। हमारी समस्या में ग्लैमर नहीं है, हमारी परेशानी में ख़बर का ज़ायक़ेदार तड़का नहीं है, हमारी बात न्यूज़रूम की टीआरपी नहीं है, हमारे सूखते खेत सरकार बहादुर के लिए वोट का मसाला नहीं है, ऐसे में हम जहाँ थे, वहीं हैं। हम रोते हैं तो ही हुक्मरानों को अच्छा लगता है। हमारा रोना सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए डाइनिंग टेबल का रायता है। </div><div><br></div><div>वैसे बारिश आज नहीं तो कल आएगी...फिर एक दिन हम बाढ़ में डूब जाएँगे तब अचानक हवाई दौरा शुरू हो जाएगा...2024 की तैयारी शुरू हो जाएगी।</div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-69384064638673444902022-07-15T08:40:00.001+05:302022-07-15T08:40:14.341+05:30बारिश के इंतज़ार में<div>बारिश से भींगी माटी को देखने के लिए इस बार हम सब तरस गए हैं। खेत की आँखें लगभग सूख गई है, उस माँ की तरह, जिसने जीवन में बस दुख भोगा हो। धनरोपनी तो जैसे तैसे लोगों ने करवा ली है लेकिन आगे का एक एक दिन अब पहाड़ लगता है। </div><div><br></div><div>खेतिहर की दुनिया अजीब होती है, हमारे लिए बारिश सुख भी है और दुख भी! हम बारिश को समझ ही न सके। कहीं बारिश से लोग तबाह हो रहे हैं तो कहीं हम जैसे लोग आसमां के सामने याचक बने खड़े हैं। मौसम विज्ञान जो कहे लेकिन किसान का मन अब कहने लगा है कि आगे विपत्ति है। </div><div><br></div><div>हमारे इधर धान की खेती वैसे भी अब अल्पसंख्यक का दर्जा पा चुकी है। लोगबाग अन्य नकदी फसलों पर निगाहें टिकाए रखते हैं। लेकिन इस मौसम में खेत को देखकर लगता है और कितने दिन बिन पानी के.... खेत में रेखाएँ इस कदर दिख रही है मानो हथेली की रेखाएँ फट गई है! सचमुच रेखाओं का खेल है मुकद्दर!</div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-11697847863900328552022-04-24T10:58:00.001+05:302022-04-24T10:58:40.885+05:30कथाकार अखिलेश<div><div>कुछ लोग होते हैं जो शब्दों के जरिये जीवन में आते हैं और फिर वे पानी की तरह जीवन में रच बस जाते हैं। ऐसे लोग अभिभावक कम, साथी अधिक जान पड़ते हैं। ऐसे लोगों के शब्दों में स्मृतियाँ होती है, ऐसे लोग जब लिखते हैं तो उनके साथ उनकी पूरी दुनिया चली आती है। स्मृतिहीनता के इस दौर में ऐसे लोग बहुत कम नज़र आते हैं। व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि ऐसे लोग कमाल के किस्सागो होते हैं। मेरे लिए कथाकार अखिलेश ऐसे ही लोग हैं, जिनमें लोक रचा- बसा है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgN1S8I631kgAQsXluxo8JEuxiF2JlrH31DrAlIUrTObvl7LuPcO4f7VcJSzG0Yo_PPvG5lgwfiIKa80Ej0OUlb5rv2xAOJ4U-5Mo-HAfQ9DT82qD_3gHSwYq7mkdcZOqaikA/s1600/1650778114519372-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgN1S8I631kgAQsXluxo8JEuxiF2JlrH31DrAlIUrTObvl7LuPcO4f7VcJSzG0Yo_PPvG5lgwfiIKa80Ej0OUlb5rv2xAOJ4U-5Mo-HAfQ9DT82qD_3gHSwYq7mkdcZOqaikA/s1600/1650778114519372-0.png" width="400">
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</div><br></div><div>आज अपने शहर में अखिलेश जी से मुलाकात हुई। एक आत्मीय मुलाकात। उन्हें पहले मंच पर सुनने का सुख मिला फिर उनके संग लंबी गुफ्तगू हुई। </div><div><br></div><div>वह मंच पर जो हैं, वही आम बातचीत में भी।पहले बात मंच की। अखिलेश जी ने वैसे तो कई बातें कही लेकिन मैंने उनकी चार बातों को मन में रखने की कोशिश की, जिसके आसपास इन दिनों हम सब भटक रहे हैं। </div><div><br></div><div>राष्ट्र और देश की बात करते हुए अखिलेश जी ने कहा कि देश एक सार्थक शब्द है। उनके इस वक्तव्य पर लंबी बात हो सकती है। इसके बाद उन्होंने कहा कि विवेक वैश्विक होनी चाहिए। ऐसे दौर में जब विवेक के दायरे को हम सब एक परिधि में घेरते जा रहे हैं, अखिलेश जी उसे बन्धन मुक्त करने की बात कर रहे हैं। तीसरी बात, जो उन्होंने कही वह है - आभासी यथार्थ। उन्होंने कहा कि हम सब आभासी यथार्थ देखते हैं स्मार्टफोन के जरिये, स्क्रीन के जरिये। ऐसे में जरूरत है कि हम मूल से जुड़ें, माटी से जुड़ें।और उनकी चौथी बात जिसने मुझे आकर्षित किया, वह है नया समाज और नई समझ। कथाकार और संपादक अखिलेश कहते हैं कि नये समाज को नई समझ के साथ सामने रखने की जरूरत है। </div><div><br></div><div>ये तो हुई मंच की बात। कार्यक्रम के बाद अखिलेश जी से बात करते हुए लगा कि एक कथाकार इस बदलते वक्त में बदलाव को महसूस करना चाहता है। वे गाम घर, मौसम, किसानी और शहर और गाँव के बीच मिटते फासले को समझने की कोशिश में हैं। उनके साथ टहलते- बतियाते अहसास हुआ कि लेखन स्मृतियों और अनुभवों का मोक्ष है। और दूसरी तरफ यह कथाकार की भी मुक्ति है।</div><div><br></div><div>इस किस्सागो कथाकार का संसार स्मृतियों से भरा पड़ा है। उनको सुनते हुए लगा कि अखिलेश जी का संस्मरण अलग ही मिजाज का है, किसी फलदार वृक्ष की तरह। उन्हें सुनते हुए लगा कि वे स्मृतियों और अनुभवों को बंधन में बांध देते हैं। वे एक किताब की तरह हैं, जिसमें न जाने कितने किस्से, लतीफे, हिदायतें और आपबीती के पृष्ठ हैं। वे एक ऐसे कथाकार हैं, जिनके पास व्यक्ति को भी देखने का नजरिया है और साथ ही खेत और तालाब को भी! </div><div><br></div></div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-89932920561462143982022-03-08T08:22:00.001+05:302022-03-08T08:22:38.257+05:30जीवन<div>सत्य को स्वीकारना साहस का काम है, क्योंकि सत्य 'क़ट्टा' है, चल गया तो चल गया। नहीं चला तो...! ऐसे में सत्य को स्वीकारना सबसे बड़ा साहस है और हाँ, इस साहस का प्रदर्शन नहीं होता है, बस मन से हो जाता है वैसे ही जैसे क़ट्टा चल जाता है। </div><div><br></div><div>कुछ लोगों के जीवन को देखता हूं तो "साहस" का अहसास होने लगता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसीसे जीवन में आनंद हासिल करने का पाठ पढ़ने को मिले तो लगता है- "धत्त, हम तो नाहक ही परेशान थे अबतक। ये सबकुछ तो माया है।"</div><div><br></div><div>यह सब टाइप करते हुए कबीर का लिखा मन में बजने लगता है- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....” ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज भी कानों में गूंज लगती है- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”</div><div><br></div><div>कभी कभी लगता है कि जीवन में कोई कथा संपूर्ण होती है क्या? इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है।</div><div><br></div><div>जब मेरे बाबूजी सक्रिय रूप से गाम - घर किया करते थे तो उस वक्त कई लोग उनके आसपास रहते थे, आते- जाते रहते थे। उनकी बैठकी में एक व्यक्ति जीप से अक्सर आया करते थे, खूब सिगरेट फूंका करते थे। वह धन, जमीन आदि की बात किया करते थे। किसी भी हाल में धन को हासिल करना उनका उदेश्य हुआ करता था। हालांकि वो आज भी वैसी ही बात करते हैं। बाद में पता चला कि वो किसी बड़े जमींदार परिवार से थे।</div><div><br></div><div>वहीं उनकी बैठकी में एक माली भी आते थे, जो सूरदास की बात करते थे। दोपहर के वक्त बाबूजी की बैठकी में वे बैठते और सूरदास के पद सुनाते। उनके कपड़े वाले झोले से सुंगध आती रहती थी, वन तुलसी और फूल की। वह शायद जानते थे कि माया के फेर में मन के भीतर कितनी कालिख भर जाती है। एक -आध घण्टे रहने के बाद वे जब जाने की तैयारी करते तो जाते वक्त झोले से एक मुट्ठी फूल और वन तुलसी की कुछ पत्तियां टेबल पर रख जाते। सब फूल सदाबहार गेंदा का होता था। उसकी खुशबू में हम खो जाते थे। </div><div><br></div><div>बाबूजी की डायरी में उस जीप वाले भूपति का एक भी पन्ने में जिक्र नहीं है जबकि उस माली के बारे में लंबी कहानी लिखी है। और एक बात, बाबूजी उस माली से हम बच्चों को मिलवाया करते थे लेकिन सिगरेट फूंकते, दुनिया जहान की बात करने वाले उस भूपति से बाबूजी ने कभी भी बच्चों को नहीं मिलवाया। </div><div><br></div><div>दरअसल इस दुनियादारी में हम बहुत ही तेजी से भागते नज़र आ रहे हैं जबकि सत्य तो दुनियादारी में एक पर्दे की तरह है, जिसे उठाने के लिए हमें हल्का बनना होता है। दूब की तरह हल्का, जिसके ऊपर ओस की बूंद भी टिक जाती है। यही तो जीवन है, जहाँ हम हर किसी को ठहरने का मौका दे सकते हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम लूटपाट की योजना बनाते हैं या फिर जीवन जीते हुए एक मुट्ठी फूल और वन तुलसी की कुछ पत्तियां टेबल पर रख आगे बढ़ जाते हैं।</div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-89324260248124668592022-01-25T17:43:00.001+05:302022-01-25T17:43:26.984+05:30पुस्तकालय क्यों जरूरी है! <div>ये कुछ दृश्य हैं, जो विगत दो साल के दौरान पूर्णिया जिला में देखने को मिला, मसलन क्रिकेट मैच हो रहा हो, और मैदान में किताबों को जगह दी गई हो। </div><div><br></div><div>शहर में कुछ बुजुर्ग, जो घर से निकलने में असमर्थ हैं लेकिन वे कुछ किताबें पुस्तकालय तक पहुंचाना चाहते हैं, फोन करते हैं और एक गाड़ी आती है, किताबें ले जाती है। हर पंचायत के पुस्तकालय के लिए लोगबाग किताबें दान कर रहे हों...</div><div><br></div><div>शहर के मुख्य चौराहे के पास दीवार पर किताबों से संबंधित एक ‘ज्ञान की दीवार’ बना दी गई हो....</div><div><br></div><div>यह कुछ ऐसी बातें हैं जो इस दौर में सुनने और देखने को बहुत कम मिलती है। क्योंकि विकास के मानकों में भौतिक चीजें हमारे आपके जीवन में इतनी हावी हो चली है कि किताबें बहुतों से दूर हो गई है। ऐसे में यदि कोई जिला किताब और पुस्तकालय के लिए अभियान चला रहा हो तो इसकी गंभीरता को समझने की जरूरत है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKZy3zrq_osrLCyksGsEVkgiEOdR8FVm6OrmTb-Fz9hSfezO92tJ-j2y4x2pU45X25lU1UACawDZXTzkSfjKsf4jWQBsUT9TS8eqLqyfQFD8C1Hz_sISIVqvhkCm5BZ_gCug/s1600/1643112799488369-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार अक्सर कहते हैं कि समाज को समझने – बूझने का एक तरीका यह भी है कि उस समाज में किताबों को क्या स्थान है। </div><div><br></div><div>वह कहते हैं, “किसी समाज या समुदाय के मिज़ाज या उसके टोन को परखने का एक प्रतिमान ये हो सकता है कि उसकी सामूहिक चेतना में किताबों को क्या स्थान प्राप्त है। पढ़ने वाला समाज प्रायः ज्यादा उदार, ज्यादा लचीला एवं ज्यादा विकासशील होता है। वह परिवर्तन के प्रति ज्यादा स्वीकार्यता भी रखता है। समुदाय से उतर कर जब हम व्यक्तिमात्र पर किताबों के प्रभाव की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि किताब के आरंभ में व्यक्ति जो होता है अंत तक बिल्कुल वही नहीं रह जाता। प्रभाव कम, ज्यादा, अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है, किन्तु व्यक्ति बिल्कुल वही नहीं रह जाता। ”</div><div><br></div><div>शायद यही वजह है कि साहित्य-कला अनुरागी जिलाधिकारी राहुल कुमार ने अभियान किताब दान की शुरुआत की।</div><div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div><div>मुझे याद है, 25 जनवरी 2020 को इस अभियान की जब शुरूआत हुई थी तो पहले दिन ही 400 किताबें प्राप्त हुई थी। जिला के समाहरणालय सभागार में किताब दान अभियान की शुरूआत हुई थी। राहुल कुमार ने उस दिन भी कहा था कि यह अभियान लोगों का है, इसमें हर कोई सहयोग करेगा। उस दौरान पूर्णिया के डीडीसी अमन समीर और ट्रेनी आईएएस प्रतिभा रानी जी भी मौजूद थीं। </div><div><br></div><div>हालांकि कोराना महामारी की वजह से यह अनोखा अभियान प्रभावित हुआ लेकिन इसके बावजूद अबतक लोगों ने एक लाख पचास हजार किताबें इस अभियान में दान दी है जो जिला के विभिन्न पुस्तकालयों में पहुंच चुकी है।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div>मुझे उस वक्त सबसे अधिक खुशी मिली जब यह खबर सुनने को मिली कि दस साल का एक लड़का, जिसका नाम ‘सक्षम’ है, उसने अपने जन्मदिन पर इस अभियान में 151 पुस्तकें भेंट की। आप इससे समझ सकते हैं कि पूर्णिया जिला के लोगों के बीच किताब और पुस्तकालय ने किस अंदाज़ में अपनी जगह बना ली है। </div><div><br></div><div>पिछले साल पूर्णिया जिला के परोरा गाँव के पुस्तकालय जब जाना हुआ था, तो वहां के युवाओं का उत्साह देखने लायक था। सच कहूं तो लगा कि क्या इवेंट की तरह उत्साह भी चलता बनेगा, लेकिन बात कुछ और थी। किताबों के प्रति लोगों का स्नेह बढ़ता गया और आज एक साल बाद फिर उसी पुस्तकालय परिसर पर जब पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार पहुंचे तो दोपहर बाद किताबों में घिरे लोग ही दिखे। यह दृश्य ही समाज में पुस्तकालय के महत्व को बताने के लिए काफी है।</div><div><br></div><div>सोशल मीडिया के इस दौर में सबकुछ एक झटके में सबके सामने आ जाता है। आप चाहें तो अपने काम को दुनिया जहान को दिखा सकते हैं। यह इस मीडियम का एक सकारात्मक पक्ष है लेकिन वहीं दूसरी ओर एक पक्ष यह भी है कि काम का रंग जबतक चढ़ता है, सोशल मीडिया के लिए वह काम तबतक पुराना हो जाता है। ऐसे में किताब दान अभियान की बात की जाए तो भला किताबों की बात, पढ़ने – लिखने की बात कब पुरानी हुई है। यदि समाज जागरूक है और उसके मन के स्पेस में किताबों के लिए जगह है तो जान लें, इस तरह के अभियान सिर पर रखे जाएंगे। हम उम्मीद तो बेहतर कल की कर ही सकते हैं। </div><div><br></div><div>कभी कभी सोचता हूँ कि जिला की कमान संभालने वाले अधिकारी को लोगबाग ढेर सारे विकास कार्यक्रमों, भवनों या अन्य सरकारी परियोजनाओं के लिए याद करते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें लोग बदलाव के लिए याद करते हैं। किताब दान अभियान की शुरूआत करने वाले राहुल कुमार ऐसे ही लोगों में एक हैं। </div><div><br></div><div>पूर्णिया में गाँव -गाँव तक पुस्तकालय पहुँचाने का उनका अभियान दरअसल पूर्णिया के जन-जन का अभियान है। लोगबाग अपनी आदतों में किताब को शामिल करें, इससे बेहतर और क्या हो सकता है।</div><div><br></div><div>राहुल कुमार के इस अभियान को पूर्णिया को अपनी आदत में शामिल करना चाहिए ताकि आने वाले समय में भी पुस्तकालय हर पंचायत में जीवित रहे, यह काम हम आप ही कर सकते हैं। उनके काम की जहां भी बात होती है, वह बड़ी दूर तक अपनी आवाज पहुंचाती है।</div><div><br></div><div>मैं इस अभियान को बहुत नजदीक से देखता आया हूं। उम्मीद है कि हर पंचायत में लाइब्रेरी जीवित रहेगी और लोगबाग गाँव के उस किताब घर को इज़्ज़त देंगे। इन सबके बीच यहां यह भी बताना जरूरी है कि पूर्णिया में महात्मा गांधी तीन दफे आए थे। 1925, 1927 और 1934 में गांधी जी यहां आए थे। यहां एक घटना का जिक्र जरूरी है। 13 अक्टूबर 1925 को बापू ने पूर्णिया के बिष्णुपुर इलाके का दौरा किया था। बापू को सुनने बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे। शाम को गांधी जी ने स्थानीय ग्रामीण श्री चौधरी लालचंद की दिवंगत पत्नी की स्मृति में बने एक पुस्तकालय मातृ मंदिर का उद्घाटन किया था। बापू ने अपने नोट्स में लिखा है कि ‘बिष्णुपुर जैसे दुर्गम जगह में एक पुस्तकालय का होना यह संकेत देता है कि यह स्थान कितना महत्वपूर्ण है।'</div><div><br></div><div>उस दौर में पुस्तकालय का होना यह बताता है कि पूर्णिया जिला के ग्रामीण इलाकों में पढ़ने के प्रति लोगों का खास जुड़ाव था। </div><div><br></div><div>आज एक बार फिर पूर्णिया पुस्तकालय को लेकर गंभीर हुआ है और इसका श्रेय जाता है पूर्णिया के जिलाधिकारी राहुल कुमार को। तो चलिए, आइये हम सब अपने व्यस्त समय से कुछ पल निकालकर जिला के विभिन्न पंचायतों के लाईब्रेरी चलते हैं और किताबों के साथ समय गुजारते हैं। साथ ही उन किताबों को नजदीक से देखते हैं जिसने ' अभियान किताब दान ' के तहत इतनी लंबी दूरी तय की है। </div>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-23741193.post-19241785375330534622022-01-24T23:44:00.001+05:302022-01-24T23:44:42.684+05:30एक अधूरा सपना: सपने में रेणु से गुफ्तगू!<p dir="ltr"><br></p>
<p dir="ltr">इन दिनों जब अपने मन के सुख के लिए लिखना लगभग छूट गया है कि तभी अचानक सामने मुस्कुराते हुए रेणु आ जाते हैं। एक हाथ में काले रंग की प्यारी डायरी है तो दूसरे में छड़ी! </p><p dir="ltr"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjribqxVj3mtMdKF0NYvOPSX4hQbPfhjdDC9goNnM3v4Mpdqss-UmeKdzvtuipkwIq2FFHDm6s2W4cEidWrrgu6Ch248ZINNPutEyqM3QkF9IBIzax81ovotfr7nDbpJGb-Eg/s1600/1643048075376896-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></p>
<p dir="ltr">कमरे में आते ही बोलते हैं- "शिकायत है कि लिखते नहीं हो, जबकि मुझे पता है कि फील्ड नोट्स का खाता- खतियान जमा किये हुए हो! अरे लिखो भाई, गाम घर, शहर कस्बा की बातों को जगह दो। " फिर वे धप्प से सोफे पे बैठ गए। डायरी को टेबल पर रख दिया और छड़ी को दरवाजे के सहारे छोड़ दिया। </p>
<p dir="ltr">कुछ देर के लिए उन्होंने आँखों को मूंद लिया। ओह! क्या रूप था वो, अपरूप! फिर अचानक वे बोल उठते हैं- औराही गए थे क्या? जवाब में मैंने कहा- "दो बरख हो गए, इतना उलझा रहा कि रानीगंज से आगे निकला ही नहीं बाबा! "</p>
<p dir="ltr">रेणु ने फिर चुप्पी साध ली। वे अपनी हथेली को देखने लगे और बोल उठे - " हथेली पढ़ने की कला सबके बस की बात नहीं। तुम्हारी अलमारी में नागार्जुन की सभी किताबें हैं, देखकर आत्म सुख मिल रहा है, आँख को भी और मन को भी। मैं उनका कर्जदार हूँ। मेरे खेतों में उन्होंने रोपनी की थी, वे असल यात्री थे। अब जब अपनी दुनिया में हम मिलते हैं तो लोक परलोक की बात करते हैं..." यह कहते हुए रेणु हँसने लगे। </p>
<p dir="ltr">टेबल पर रखी डायरी को पलटते हुए रेणु कहते हैं, " चाय नहीं पिलाओगे? और हाँ,घर में नबका चावल है क्या? दरअसल नबका चावल का खिचड़ी खाये बहुत दिन हो गए। " मैंने तुरंत हामी भरी। </p>
<p dir="ltr">तबतक चाय आ चुकी थी, रेणु के हाथ में चाय की प्याली भी इतरा रही थी। वे फिर लिखने की बात करने लगे। उन्होंने कहा- " फसल और गाँव की राजनीति, इन दोनों पर बात करने वाले लोगों को मैं हमेशा ढूंढता रहता हूँ। जिस तरह गुलाब का पौधा होता है न, ठीक उसी तरह के लोग होते हैं, जो फसल और गाम घर की राजनीति की बात समझते हैं और इस मुद्दे पर बतियाते हैं। गुलाब फूल को सब छूना चाहता है लेकिन उसके पौधे को कांटे की वजह से कोई छूना नहीं चाहता। धरती की बातें करने वाले लोगों को लेकर भी मेरी यही राय रही है। उसकी बातों को तो लोगबाग सुन लेंगे लेकिन उसे बर्दाशत नहीं करेंगे लंबे वक्त तक और आगे चलकर वही भिम्मल मामा बन जाता है, जिसे तुमलोग पागल करार देते हो। "</p>
<p dir="ltr">रेणु आज फसलों की दुनिया में फिर से डूबने की चाहत में थे। वह कहने लगे, " क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे जिला में पहले धान का नाम बहुत ही प्यारा हुआ करता था, मसलन 'पंकज' 'मनसुरी', 'जया', 'चंदन', 'नाज़िर', 'पंझारी', 'बल्लम', 'रामदुलारी', 'पाखर', 'बिरनफूल' , 'सुज़ाता', 'कनकजीर' , 'कलमदान' , 'श्याम-जीर', 'विष्णुभोग' । समय के साथ हाइब्रीड ने किसानी की दुनिया बदल दी। "</p>
<p dir="ltr">मैं बस उनको सुनना चाहता था, चुपचाप। उनकी बातों को सुनते हुए देहातीत सुख का आभास होता है। लेकिन रेणु ने जब धान की बात छेड़ दी तो मन में कई गीत गूंजने लगे, जो अब खेत में सुनाई नहीं देते हैं। सुख की तलाश हम फसल की तैयारी में ही करते हैं। एक गीत पहले सुनते थे, जिसके बोल कुछ इस तरह हैं -<br>
"सब दुख आब भागत, कटि गेल धान हो बाबा..."</p>
<p dir="ltr">हम खेती किसानी दुनिया के लोग अन्न की पूजा करते हैं। धान की जब भी बात होती है तो जापान का जिक्र जरूर करता हूं। जापान के ग्रामीण इलाक़ों में धान-देवता इनारी का मंदिर होता ही है। रेणु को मैंने आज बातों ही बातों में जापान के एक देवता की कहानी सुना दी। </p>
<p dir="ltr">जापान में एक और देवता हैं, जिनका नाम है- जीजो। जीजो के पांव हमेशा कीचड़ में सने रहते हैं। कहते हैं कि एक बार जीजो का एक भक्त बीमार पड़ गया, भगवान अपने भक्तों का खूब ध्यान रखते थे। उसके खेत में जीजो देवता रात भर काम करते रहे तभी से उनके पांव कीचड़ में सने रहने लगे।</p>
<p dir="ltr">मेरी इस बात को सुनकर रेणु मुस्कुराने लगे और बोल उठे- खिचड़ी खिलाओगे! हम सब उन्हें डाइनिंग टेबल के पास ले जाते हैं। वे चाव से अन्न ग्रहण करते हैं। भोजन के बाद वह अचानक अलग रंग में आ जाते हैं, और कहते हैं, " कभी कभी लगता है क्या जीवन में कोई कथा संपूर्ण होती है..। इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है। एक दिन किसी से बात हो रही थी तो उसके भीतर का भय मुझे सामने दिखने लगा। वह भय मौत को लेकर थी। मौत शायद सबसे बड़ी पहेली है, हम-सब उस पहेली के मोहरे हैं। "</p>
<p dir="ltr">ओह! मेरी नींद टूट जाती है। सपना अधूरा रह जाता है, रेणु से गुफ्तगू बांकी ही रह जाती है। अक्सर जब तबियत बिगड़ती है, बुखार उतरता- चढ़ता है, रेणु सपने में आ ही जाते हैं।<br>
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सुबह में इस मौसम के फूल पर और दूब व पत्तियों पे पानी ठहरा रहता है। मुझे इन ठहरे पानी से बहुत लगाव है। दूब-मेरा सबसे प्रिय, जिसे देखकर, जिसे स्पर्श कर मेरा मन, मेरा तन हरा हो जाता है। गाम में हर सुबह इसकी सुंदरता देखने लायक होती है। ओस की बूंद जब दूब पर टिकी दिखती है तो लगता है यही जीवन है, जहाँ हरियाली अपने ऊपर पानी को ठहरने का मौक़ा देती है। </p>
<p dir="ltr">दरअसल इस उग्र बनते समाज में हम कहाँ किसी को अपने ऊपर चढ़ते देख पाते हैं। ऐसे में कभी दूब को देखिएगा, गाछ की पत्तियों को देखिएगा, वृक्षों में बने घोंसले को देखिएगा और हाँ, अपने प्रिय लेखकों से सपने में गुफ्तगू कीजियेगा। <br>
</p>Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttp://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com1