Showing posts with label रेणु की बातें. Show all posts
Showing posts with label रेणु की बातें. Show all posts

Wednesday, September 23, 2015

रेणु ने मांगे थे नाव पर वोट व पाव भर चावल

बिहार में इस वक्त चुनाव की बहार है। राजनितिक दलों में टिकट का बंटवारा लगभग हो चुका है। जिन्हें टिकट मिला वे खुश हैं और जिन्हें नही मिला वे  आगे की रणनीति में जुटे हैं। राजनीति तो यही है, आज से नहीं हजारों बरसों से।

खैर, बिहार में मौसम भी गरम था लेकिन पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है । शायद टिकट बंटवारा का असर हो :)  मौसम बदलते ही आपके किसान को साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन करने लगा। आप सोचिएगा कहां राजनीति और कहां साहित्य। दरअसल हम इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं।

रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था। उनका चुनाव चिन्ह नाव था , हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी लेकिन चुनाव के जरिए उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया। मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे।
रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था।

इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधत्व  अभी तक उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर रहे हैं। हालांकि इस बार भारतीय जनता पार्टी ने उनका टिकट काटकर मंचन केशरी को टिकट दिया है। रेणु के बेटे ने इस सम्बन्ध में फेसबुक पर सवाल भी उठाये हैं। उनके सवाल बहुत लोगों के लिए जायज भी हो सकते हैं। हालांकि राजनीति में जायज और नाजायज में कितना अंतर होता है ये हम सब जानते हैं।

अब चलिए हम 2015 से 1972 में लौटते हैं। उस वक्त फणीश्वर नाथ रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था। 31 जनवरी 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए। 
रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था।

उन्होंने खुद लिखा है-  " मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुझे पाव भर चावल और एक वोट दें। मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां,दोहों का उद्धरण दूंगा। कबीर को उद्धरित करुंगां, अमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगा, गालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करुंगा और लोगों को समझाउंगा। यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पनंत और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-
दूध, दूध  ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अज्ञेय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पन्त
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय

72 के चुनाव के जरिए रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे। उन्होंने कहा था-  “मुझे उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जाएगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है।”

चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरुरी है। उन्होंने कहा था- “लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूं। समाज और तंत्र में आई इन विकृतियों से लड़ना चाहिए।”

रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था। अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा..उनका नारा था- 
" कह दो गांव-गांव में, अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव में, नाव मे, नाव में।।
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....

राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे। राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किए जाने पर वे चिन्तित थे। वे कहते थे- ' धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते , मगर ये समस्याएं उठाएंगे किसानों की ! समस्या उठाएंगे मजदूरों की ! "

गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रियता काफी पहले से थी। साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।

(
प्रभात खबर में प्रकाशित 23 सितंबर 2015)

Wednesday, March 04, 2015

रेणु के नाम एक पतरी


रेणु बाबा को प्रणाम!



बहुत दिनों से इच्छा थी कि आपको पाती लिखूं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहा था। आज जब जीवन के प्रपंच में फंसकर  जीवन जीने की कला सीख रहा हूं तो हिम्मत जुटा कर आपको लिखने बैठा हूं।

कागजी किताबों फाइलों के अनुसार आज (4 मार्च) आपका जन्मदिन है। देखिए न, हर साल इस दिन मैं आपके लिए अपने भीतर कुछ न कुछ करता रहा हूं लेकिन इस साल कुछ नहीं कर पा रहा हूं इसलिए चिट्ठी लिखने बैठ गया हूं। अपने भीतर आपके पात्रों को विचरन करने के लिए छोड़कर शब्दों की माला पिरोने बैठ गया हूं। मेरा मन बाबूजी के आलमीरे से  मैला आंचल निकालकर पढ़ने की जिद कर रहा था लेकिन बाबूजी को पलंग पर जीवन और मौत से जूझते देखकर मैंने परती परिकथा निकाल ली है।

परती परिकथा के बहाने आपसे लंबी गुफ्तगू करने इच्छा रही है ठीक वैसे ही जैसे गुलजार से मुझे उनके गीतों पर कभी बात करनी है। एक बात कहूं बाबा ! बाबूजी की बीमारी मुझे आपसे और नजदीक करने लगी है। मां को उनकी अनवरत सेवा करते देखकर मैं बस आखें मूंद लेता हूं फिर सोचने लगता हूं कि आपने किस तरह परती परिकथा की एक उल्लेखनीय नारी पात्र गीता देवी को रचा होगा। गीता देवी जितेंद्र नाथ की मैम मां थीं। आज आपके जन्मदिन पर मैं बार बार गीता देवी को स्मरण कर रहा हूं।

रेणु बाबा, एक बात जानते हैं आप! इन दिनों मैं कई दफे आपके घर यानि औराही जा चुका हूं। आपके आंगन में पांव रखते ही मुझे कबीराहा माठ की याद आने लगती है। आंगन की माटी के स्पर्श से मन साधो साधो करने लगता है। इस बार हम सोचे थे कि चार मार्च को धूम धाम से आपके गाम में आपका जन्मदिन मनाएंगे लेकिन अफसोस हम कर नहीं सके। फिर सोचे पू्र्णिय़ा में करेंगे..लेकिन यहां भी नहीं। बाबा, मैं सरकारी सहायता से आपके नाम पर कार्यक्रम करने से डरने लगा हूं ..पता नहीं क्यों ? सरकारी क्या किसी भी सहायता से । जीवन का प्रपंच मुझे ऐसे कामों से दूर करन लगा है । ऐसे में मैं मन ही मन आपको याद कर लेता हूं।

खैर, एक बात और, हमने उस घर को भी छू लिया है जिसके बरामदे पर आपने लंबा वक्त गुजारा। आपके साहित्यिक गुरु सतीनाथ भादुड़ी के बासा को हमने देख लिया है। हालांकि वह बासा अब बिक चुका है लेकिन खरीददार के भीतर भी हमने सतीनाथ-फणीश्वरनाथ को पा लिया है। पता नहीं आपको लिखते वक्त मैं रुहानी क्यों हो जाता हूं लेकिन सच यही है कि आप मेरे लिए कबीर हैं। बहुत हिम्मत जुटाकर यह सब लिख रहा हूं बाबा। क्योंकि मुझे इस जिंदगी में जिस बात का सबसे ज्यादा मलाला रहेगा वह है- आपको नंगी आखों से न देख पाना। हालांकि मन की आंखों से तो आपको देखता ही रहा हूं।

याद है न आपको तीन साल पहले कानपुर में आज ही के दिन आप सपने में आए थे.....साथ में लतिका जी भी थीं। उस सपने में मैं टकटकी लगाए ‘लतिका-रेणु’ को देखने लगा। आखिर मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। आपके मैला आंचल में जिस तरह  डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ‘ममता’ को देख रहा था, – विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान – नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल...

और एक बात कहनी थी आपसे..मेरी एक किताब आ रही है- राजकमल प्रकाशन से। हालांकि किताब को लेकर तरह तरह की बातें होने लगी है लेकिन मुझे खुद पर भरोसा है। बाद बांकि आप पर छोड़ दिया हूं। बाबूजी यदि ठीक रहते तो वो भी आपको इस बात के लिए चिट्ठी लिखते लेकिन अफसोस वो भी आज बिछावन पर अचेत लेटे हैं। दरअसल आपने जिस परती को अपनी परिकथा के लिए चुना था वह अपनी अपनी अनुभव संपदा में सबसे अधिक उर्वरा थी और आप आने वाली पीढियों को भी इस उर्वरा के बारे में बताते रहे हैं।

बाबा, इन दिनों जब जीवन में तमाम तरह के झंझावतों को झेल रहा हूं तो अक्सर आपको याद करता हूं । जानते हैं क्यों? क्योंकि आप मेरे लिए ऐसे शख्स हैं जिसने जीवन में बहुत कुछ भोगा और सहा है...और इसी वजह से आप ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखाई देते हैं। आपने कभी अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपी। बाबूजी हमसे कहा करते थे कि ऐसे लोगों की शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।

आपके बारे में निर्मल वर्मा कहते थे कि जिस तरह कुछ साधु संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का अहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं , रेणु की मूक उपस्थिति हिंदी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती है। ' निर्मल वर्मा की यह पंक्ति मैं आपके लिए हर जगह दोहराता रहा हूं। आप मेरे लिए संत लेखक हैं। आपको गुस्सा आता होगा कि यह लड़का संत संत क्यों कह रहा है लेकिन बाबा, बात यह है कि आपने अपने लेखन में किसी चीज को त्याज्य या घृणास्पद नहीं माना। आपने हर  जीवित तत्व में पवित्रता, सौंदर्य और चमत्कार खोजेन की कोशिश की और ऐसा केवल संत ही कर सकता है।


आपके लेखन पर चर्चा करना मुझे कभी रास नहीं आया। मुझे तो बस आपकी बातें करने में आनंद आता है..देहातित आनंद।

बाबा, तो अब आज्ञा दीजिए। बाबूजी को दवा देने का वक्त आ गया है। पलंग पर लेटे लेटे वे मुझे देख रहे हैं, शायद वो भी मुझे कुछ कहना चाहते हैं...आप भी कुछ कहिए न बाबा....

आपका
गिरीन्द्र नाथ झा
ग्राम- चनका, पोस्ट- चनका, जिला-पूर्णिया, बिहार
4 मार्च, 2015

Tuesday, March 04, 2014

बस, रेणु के लिए

किसानी करते हुए 365 दिन का आंकड़ा पूरा हुआ। खेत-खलिहानों में अब मन रमने लगा  है। अहसास ठीक वैसे ही जैसे फणीश्वर नाथ रेणु का लिखा पढ़ते हुए और अपने गुलजार का लिखा बुदबुदाते हुए महसूस करता हूं।

देखिए न आज अपने रेणु का जन्मदिन भी है। वही रेणु जिसने गाम की बोली-बानी, कथा-कहानी, गीत, चिडियों की आवाज..धान-गेंहू के खेत..इन सभी को शब्दों में पिरोकर हम सबके सामने रख दिया और हम जैसे पाठक उन शब्दों में अपनी दुनिया खोजते रह गए। रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूं खुद से बातें करने लगता हूं। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा  जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को ढूढ़ने लगा। 

किसानी करने का जब फैसला लिया, तब भी रेणु ही मन में अंचल का राग सुना रहे थे और मैं उस राग में कब ढ़ल गया, पता भी नहीं चला। गाम में रहते हुए रेणु से लगाव और भी बढ़ गया है। संथाल टोले का बलमा मांझी जब भी कुछ सुनाता है तो लगता है कि जैसे रेणु के रिपोतार्ज पलट रहा हूं। दरअसल रेणुकी जड़े दूर तक गांव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है। ठीक आंगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह।

रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “ जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला। (सुख के जीवन के लिए, यहां आइए, यहां ढूंढ़ना है और पाना है..)

रेणु की यह पंक्ति मुझे गाम के जाल में उलझाकर रख देती है, मैं इस जाल से बाहर जाना अब नहीं चाहता, आखिर जिस सुख की खोज में हम दरबदर भाग रहे थे, उसका पता तो गाम ही है। मेरे यार-दोस्त इसे मेरा भरम मानते हैं :)    खैर।  

रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब सदन झा  सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुंचा रहे थे। रेणु छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरो, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे। मक्का की खेती और आलू उपाजकर जब मैं की-बोर्ड पर टिपियाना शुरु करता हूं तो तब अहसास होता है कि फिल्ड नोट्स को इकट्ठा करना कितना बड़ा काम होता है।

गाम के मुसहर टोले में पलटनिया ऋषिदेव के घर के सामने से जब भी गुजरता हूं तो लगता है जैसे रेणु की दुनिया आंखों के सामने आ गयी है। दरअसल उनका रचना संसार हमें बेबाक बनाता है, हमें बताता है कि जीवन सरल है, सुगम है..इसमें दिखावे का स्थान नहीं के बराबर है।  रेणु अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं-

“इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)


जरा इस कविता को पढ़कर रेणु के मानस को समझने की कोशिश करिए-
“ कहा सुना सब माफ करोगे, लेकिन याद रखोगे
बचपन के सब मित्र तुम्हारे, सदा याद करते हैं
गांव को छोड़कर चले गये हो शहर, मगर अब भी तुम 
सचमुच गंवई हो, शहरी तो नहीं हुए हो..
इससे बढ़कर और भला क्या हो सकती है बात
अब भी मन में बसा हुआ है इन गांवों का प्यार.......”

रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न हीं बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी की है-“दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया।“ (मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)

 आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूं। उनका लिखा पढ़कर मानस बना है और अब किसानी करते हुए रेणु के पात्रों से रुबरु हो रहा हूं। 


(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं, क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी, फसल, किसानी, गांव-देहात की बातें करते हैं।)

Monday, April 11, 2011

मेरा जुलाहा मेरे घर आया था

(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली थी। आज उनकी पुण्यतिथि है.)

कहानी का हर पात्र उसी सड़क पर मेरा इंतजार कर रहा था। भले ही सड़कें धूल उड़ा रही थी लेकिन उस धूल में भी मेरा मन फूल खोज रहा था। औराही, तुम अब भी मेरे दिल के इकलौते राजा हो..तुम ही हो, जिससे मैं कुछ नहीं छुपाता। ये बताओ कि क्या अब भी डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र हर शाम मेरे घर के बरामदे पर आता है...

नींद टूटती है, मैं कानपुर में अपने कमरे में खुद को पाता हूं। सुबह के तीन बज रहे हैं, तारीख 11 अप्रैल, दिन सोमवार। जोगो (योगो) काका की बात याद आई कि भोरका सपना सच्च होए छै (सुबह का सपना सच साबित होता है)। कथा की दुनिया रचते हुए औराही से पूर्णिया, भागलपुर, पटना, बनारस और बंबई के चक्कर लगाने के बाद, बीमार होने के बावजूद भी आत्मीयता और शब्द से रिश्ता निभाने वाले फणीश्वर नाथ रेणु आज सपने में आए। घुंघराले-लंबे बाल की चमक बरकरार थी, मोटे फ्रेम का चश्मा आज भी उनपर फिट बैठ रहा था।

आज साथ में लतिका जी भी थीं। उन्होंने मेरे घर के सभी कमरे को गौर से देखा फिर कहा-
मैं तो तुम्हारे जन्म से छह साल पहिले ही उस लोक चला गया था, फिर तुम्हें बार-बार मेरी याद क्यों आती है ? ” लतिका जी मुस्कुरा रही थीं। कुर्ता और धोती की सफेदी देखकर मैं उनके मन में गांव की तस्वीर देखने लगा।

वे सन
60 के पूर्णिया का जिक्र करने लगे, पूर्णिया तो बस मुझे बहाना लगा, मैं उनकी बातों में हिंदुस्तान देख रहा था। लतिका जी ने रेणु को टोका, अरे क्या हो गया आपको, मुल्क बदल गया है। जिसके घर आए हैं, यह नई पीढि है, आपनेर जानि न कि...तुमीं बोका-मानुष...। आप बार-बार विषयांतर हो रहे हैं...। लेकिन रेणु चुप नहीं हो रहे थे। रेणु ने लतिका जी को पुचकारते हुए कहा- अब चुप भी रहो, लतिका। अब तो तुम भी आ गई हो मेरे पास। मैं अब तुम्हें ज्यादा वक्त दूंगा। लेकिन आज थोड़ा इससे बात करने दो...अपने जिले का है, देखते नहीं हर कमरे से माटी की गंध आ रही है।

वे मुझे कविता- कहानियों से ऊपर ले जा रहे थे, मानो एक शहर, एक गांव, एक कस्बा, एक टोला सबकुछ एक मोहल्ला बनकर मेरे घर में आ गया हो। मुझे पता था कि उन्हें लपचू चाय (दार्जलिंग की चाय) पसंद है और लंबी बातचीत के दौरान उन्हें यही चाय चाहिए, लेकिन कल सुबह ही वह चायपत्ती खत्म हो गई थी।  लपचू के सब्सट्यूट के रूप में मेरे पास लिप्टन का ग्रीन लेवल था, मैंने अपने हाथों से फटाफट चाय बनाई। चाय पीते हुए मैं रेणु का चेहरा देख रहा था। उन्होंने आखें मूंदकर चाय की चुस्की ली और उनकी जुबां से बरबरस निकल पड़ा- इस्ससस...। वे मुझे चाय के अलग-अलग किस्मों के बारे में बताने लगे। उन्होंने बताया कि एक बार मुंबई में उन्होंने लोटे में चाय बनाई थी और राजकपूर को भी पिलाया था।

रेणु आज मेरे लिए कथादेश रच रहे थेमैंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए पूछा- आज धोती-कुर्ता तो धक-धक-चक-चक सफेद लग रहा है,” तो उन्होंने लतिका जी की ओर इशारा कर दिया। उन्होंने कहा, ये मेरी अहिंसा लॉउंड्री हैं। हंसते हुए वे ये टिप्पणी कस रहे थे। मुझे उनकी एक कविता याद आ रही थी-
' सुना है जाँच होगी मामले की?' -पूछते हैं सब
          ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
          मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के,
                  'अंहिसा लाउंड्री' में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।


चाय को वे अमृत कह रहे थे। लतिका जी ने कहा कि उनकी कुछ बड़ी कमजोरी में एक नाम चाय का भी है। मैंने छेड़ने के अंदाज में पूछा और कौन सी कमजोरी है रेणु की, तो उन्होंने कहा- इसपे भी वे कहानी लिख सकते हैं, तुमी रेणु के जानि पारबो न। मैंने कहा-अब तो आप उनके साथ उस लोक में पहुंच गई हैं, गुजारिश कीजिएगा तो वे लिख देंगे।

तभी रेणु ने चाय की प्याली टेबल पे रखते हुए कहा- क्या बोले, मैं कमजोर कहानी लिखूंगा...। फिर हम सब चहचहाकर हंस पड़े। उन्होंने मुझे जार्ज बनार्ड शॉ के बारे में बताया। रेणु उन्हें जीबीएस कह रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह तुम लोग ब्लॉग पर अपने बारे में लिखते हो न, वैसी मेरी भी इच्छा है लेकिन अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा- जीबीएस की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर, और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं। कोई भी लिख भी नहीं सकता। तुमलोग अपने प्रोफाइल में खुद से कैसे लिखते हो ?

आज रेणु को डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र सबसे अधिक याद आ रहे थे और मुझे कोसी। इसी बीच सोफे के दूसरे कोने में लतिका जी मेरी पत्नी को दुनियादारी समझाने में जुट गई थीं
। वे संबंधों की प्रगाढता पर बातें कर रही थीं। रेणु की ओर चेहरा घुमाते हुए लतिका जी ने कहा-  ‘’अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से 33 वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े इसी मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। सेवा करते-करते यह मरीज कब मेरा डॉक्टर बन गया, मुझे पता भी नहीं चला। हमने कभी अपने बीच स्पेस को जगह नहीं दी। दूरियां भी हमारे लिए जगह बनाती चली गई।
 


रेणु ने खिड़की के बाहर देखा, आसमान में अंतिम तारा सुबह के लिए व्याकुल हुए जा रहा था। चिड़ियों की हल्की चहचहाट सुनाई देने लगी थी। लतिका जी को उन्होंने कहा, चलना है कि नहीं।“  विदा होने की बात सुनकर मेरी आंखें गिली हो गई थी। रेणु ने डपटते हुए कहा- क्या यार तुम भी.. वैसे अबकी बार जब प्राणपुर जाना तो जितन से पूछना कि क्या सचमुच सुराज आ गया है वहां..? विदापत नाच का ठिठर मंडल के घर चुल्हा जलता है कि नहीं..”? 
मैं टकटकी लगाए लतिका-रेणु को देखने लगा। मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। जिस तरह मैला आंचल में डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ममता को देख रहा था, विशाल मैदान!वंध्या धरती!यही है वह मशहूर मैदान नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक वीरान, धूमिल अंचल. मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है पंक्तिबद्ध दीपों जैसी लगती है दूर से. तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते सूरज की लाली क्रमश: मटमैली हो रही है...यह सबकुछ मुझे रेणु के ललाट पर दिख रहा था।


हमने रेणु को अलविदा कहा, पत्‍नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। रेणु ने उसे झुकने से पहले ही रोक लिया, जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। लगा मानो वे मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा निबाह रहे हैं…. और फिर दोनों निकल पड़े उस लोक’.. और मैं इस लोक में...। मैंने करवट ली तो तकिए के नीचे से रेणु रचनावली के कवर पे रेणु की हंसती तस्वीर दिख गई।
 (  11 अप्रैल 1977, रात साढ़े नौ बजे, रेणु उस लोक चले गए, अब लतिका जी भी वहीं रहती हैं  ) 

Thursday, January 13, 2011

सजनवा बैरी हो गए हमार....


लतिका रेणु (फोटो साभार वेबदुनिया)

 ‘’अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से 33 वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े एक मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। तब से लेकर 11 अप्रैल 1977 की साढ़े नौ बजे की रात तक उसे अनवरत सेती रही और अंततः वह चला ही गया। दो कमरों के फ्लैट, दीवार पर लगी उनकी तस्वीरें, उनके दैनिक उपयोग के सामान-पुस्तकें, पत्र, पत्रिकाएँ यही सब तो छोड़कर गए हैं रेणु। लेकिन एक रचनाकार के नाते रेणुजी जो कुछ भी छोड़कर गए हैं, वह अन्याय के विरुद्ध लड़ने की, संघर्षों से जूझते जाने की अदम्य जिजीविषा की अनवरत यात्रा है।‘’


- लतिका रेणु (साभार वेबदुनिया)
ये बातें लतिका जी ने रेणु की मौत के बात कही थीं, एक ऐसी औरत जिसने रेणु के साहित्य को गढ़ा, जिसने रेणु के मानस को गढ़ा..आज पंचतत्व में समा गई। यहां कानपुर में उनकी मौत की खबर सुनने के बाद मुझे दो साल की पहले की एक खबर की याद आ गई। 18 दिसंबर 2009 , उस वक्त मैं दिल्ली में एक समाचार एजेंसी इंडो एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) में था। आईएएनएस पटना के संवाददाता मनोज पाठक हैं, उन्होंने 18 दिसंबर की सुबह एक अच्छी खबर सुनाई। दरअसल मुझे हिंदी साहित्य में रेणु की रचनाओं से खास लगाव है. एक अपनापा है। मनोज भाई ने बताया कि रेणु का अधूरा ख्वाब पूरा हो गया है, मैंने तुरंत पूछा लतिका जी औराही चली गईं क्या? उन्होंने सकारात्मक उत्तर दिया।

आज फिर खबर आई लेकिन आंखे नम करने वाली, कि लतिका जी ने अब नहीं रही..। लतिका रेणु का आज बिहार के अररिया जिले के औराही हिंगना में निधन हो गया. वह 85 वर्ष की थी. औराही में अपने दोस्त अमित से जब बात हुई तो उसने बताया कि लतिका जी लंबे समय से बीमार चल रहीं थी. लतिका जी और रेणु 1954 में परिणय सूत्र में बंधे थे. 1950 में जब 'मैला आंचल' के रचनाकार रेणु बीमार पड़े थे, तो उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) में भर्ती करवाया गया था और यहीं दोनों के बीच प्यार पनपा था। तब लतिका पीएमसीएच में नर्स थीं। वैसे तो मौत सत्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है लेकिन इस सत्य से हर कोई दुखी होता है। दरअसल हर किसी की मौत असामयिक होती है। लतिका जी को मैं एक ऐसी औरत के रूप में जानता हूं जिसने हिंदी साहित्य की अमर कृतियों के लेखन और प्रकाशन में बड़ी भूमिका निभायी थीं। खुशी इस बात की है कि उन्होंने औराही में अंतिम सांसे लीं। दरअसल रेणु जबतक रहे, बस यही कहते थे कि लतिका जी औराही में रहें लेकिन कुछ वजहों से ऐसा हो नहीं पा रहा था।2009 के आखिर में लतिका जी औराही गईं तो वहीं की हो गई।अभी तीसरी कसम का यह गीत याद आ रहा है-

सजनवा बैरी हो गये हमार
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे
भाग ना बाँचे कोय
करमवा बैरी हो गये हमार......

Saturday, April 11, 2009

रेणु मेरे : ऐ जुलाहे आ रही है तेरी याद

फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं में केंद्र स्थान से कथाओं की अनेक धाराएं एक दूसरे से काटती हुई एक समुच्चय उपस्थित करती है। आम कथा चक्रों की तरह ये पूरी नहीं होती और शिल्प स्तर पर इनमें सटीक रैखिक प्रवाह होता है। वे कथादेश रचते हैं और हमे मोह लेते हैं। रेणु ने दुनिया से जब विदा लिया, तब मेरा जन्म नहीं हुआ था। वे तो मेरे जन्म से छह वर्ष पूर्व ही 11 अप्रैल 77 की रात नौ बजे अनंत की ओर कूच कर चुके थे।

पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में दम तोड़ा। आज उनकी पुण्यतिथि है। उनके बारे में बातचीत शुरू करने से पहले धर्मयुग में 1 नवंबर 1964 में प्रकाशित पांडुलेख में रेणु की ही कलम को यहां रखना चाहूंगा। वे अपने बारे में कहते हैं-
“अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा-जी।बी.एस.(जार्ज बनार्ड शॉ) की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर। और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं॥कोई भी लिख भी नहीं सकता।”


ये है रेणु की आत्मस्वीकृति, शायद इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। उनकी पुण्यतिथि पर एकांकी के दृश्य की चर्चा करना चाहूंगा। उनकी तरह महान कथाशिल्पी का पत्रकार होना, अपने आप में रोचक प्रसंग है, जिसे एकांकी के दृश्य को पढ़कर महसूस किया जा सकता है। उनके रिपोर्ताज आज भी प्रसांगिक हैं। वे खुद लिखते हैं- “गत महायुद्ध ने चिकित्साशास्त्र के चीर-फाड़ (शल्य चिकित्सा) विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज..।“(धर्मयुग-8 नवंबर 1964)


रेणु का पहला रिपोर्ताज डायन कोसी 1947 में प्रकाशित हुआ। पूर्णिया के शरणार्थी कैंप पर लिखित एकटु आस्ते-आस्ते रिपोर्ताज पर तो सोशलिस्ट पार्टी में विवाद खड़ा हो गया था। रेणु के जिस रिपोर्ताज से मुझे सबसे अधिक लगाव है, वह है – बिदापत-नाच। इसमें रेणु लिखते हैं- “तथाकथित भद्र समाज के लोग इस नाच को देखने में अपनी हेठी समझते हैं, लेकिन मुसहर, धांगड़, दुसाध के यहां विवाह, मुंडन तथा अन्य अवसरों पर इसकी धूम मची रहती है।“ फिर रेणु कहते हैं- “आईए, आज आप भी मेरे साथ थोड़ी देर के लिए भद्रता का चोला उतार फेंकिए। वहां मुसहर टोली में जो भीड़ जमा है, वहीं आज बिदापत नाच होने जा रहा है।“


आप जब इसे पढ़ते हैं तो पाठक नहीं दर्शक बन जाते हैं, और यहीं रेणु आपका दिल जीत लेते हैं। रेणु के निधन पर निर्मल वर्मा ने लिखा- “कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं, ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखायी देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पी़ड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है। रेणु ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे। पता नहीं जमीन की कौन सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था। यातना की परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था- यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका।” (परिषद पत्रिका, रेणु विशेषांक)


रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। बाकी उनका लिखा जो मिलता सो पढ़ता गया। रेणु को करीब से देखने वाले एक व्यक्ति ने उनके बारे में इक बार बताया था कि उनका रचनाक्रम उनके जीवन-कर्म की तीव्रता के बीच ही अधिक हुआ था। जब-जब वे संघर्षों के बीच जूझते रहे, रचनात्मक ऊर्जा उस दरम्यान ज्यादा हासिल की। साथ ही और भी श्रेष्ठ कृतियों का सृजन किया। निश्चिन्तता और सुख-सुविधा की स्थिती में उन्होंने छोटी-छोटी फुटकल रचनाएं की।


उस शख्स ने एक और बात बताई। वो यह कि रेणु को कुत्ते पालने का बेहद शौक था। अलग-अलग नस्ल के कुत्तों और उनके गुणों की उन्हें बारीक पहचान थी। उनके पास एक झबरीला कुत्ता हुआ करता था। वे कहते थे कि कुत्तों की छठी इंद्रीय अधिक जाग्रत होती हैं, यही सजग लेखकों में पायी जाने वाली संवेदनशीलता है।


रेणु खुलकर बोलने और लिखने वाले थे, उनके कथा-पात्रों से इसे बखूबी समझा जा सकता है। इसका प्रमाण मैला-आंचल की भूमिका है। इसमें वे लिखते हैं- इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य के दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूं।


रेणु की खासियत उनका रचना संसार था। वे अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं- “इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)


रेणु को चाहने वालों में साहित्यिक बिरादरी के अलावा आम लोग भी हैं, जिन्हें रेणु के शब्दों से खास लगाव हैं। वे रेणु को प्यार करते हैं। वे आम पाठकों के रूह को छूने वाले कथाकार थे। कोलकाता का एक अभिभूत कर देने वाला प्रकरण है। तब रेणु की पहुंच फिल्म तीसरी कसम से दूर-दूर तक फैल चुकी थी। रेणु कुछ फिल्मी दुनिया के साथियों के साथ देर रात धर्मतल्ला (कोलकाता) के इलाके में अंग्रेजी शराब के संधान में लगे हुए थे। उन्हें शराब की एक दुकान दिखी, जिसका मालिक दुकान का शटर गिरा चुका था और ताला लगा रहा था। रेणु ने जाकर उससे मनुहार की कि उन्हें शराब दे दी जाए। दुकानदार ने झुंझलाते हुए कहा- दुकान बंद हो चुकी है, शराब नहीं मिलेगी।


रेणु ने निराश होकर अपने साथियों को और दुकानदार को देखा। उनके मुंह से बरबरस निकल पड़ा- इस्सस थोड़ी देर पहले आ जाते तो....। दुकानदार ने चौंक कर रेणु को देखा। लंबे-लंबे घुंघराले बाल। संभवत उसने रेणु की कहीं तस्वीर देखी होगी। उसने पूछा अरे आप रेणु हैं। रेणु चौंके और कहा- हां। दुकानदार अपनी खुशी छुपा न सका। उसने झटपट दुकान खोली और रेणु के हाथों में शराब की कुछ बोतले थमाते हुए पूछा- तीसरी कसम के नायक हीरामन के जुबान पर सादगी भरे लहजे में लजालू अभिव्यक्ति सूचक इस्स्स चढ़ाने की सूझी कैसे आपको। रेणु किंकर्त्तव्यविमूढ़ , क्या जवाब देते॥बस हंसते रहे........।


ये थी रेणु की पहुंच। वे साहित्य के जरिए चोट मारने में भी माहिर थे। उनकी एक कविता है- मंगरू मियां के नए जोगीड़े (वर्ष 1950)। इसमें वे राजनीतिक दलों पर चोट मारते कहते हैं-


कांग्रेस की करो चाकरी, योग्य सदस्य बनाओ,

परम
पूज्य का ले परवाना खुलकर मौज उड़ाओ
जोगीजी सर-र-र॥

खादी पहनो, चांदी काटो, रहे हाथ में झोली

दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली

जोगीजी सर-र-र॥


अपनी इन्हीं कृतियों के कारण रेणु आज भी जीवंत हैं। यदि आप कोसी के इलाकों में गए हैं तो वहां महसूस करेंगे उनके क्रेज को। उनके साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न हीं बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी के साथ, मैं उन्हें सलाम करना चाहूंगा-“दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया।“ (मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)

Tuesday, March 10, 2009

"भाँग पीसो" तो समझ जाती कि रेणु लिखने के मूड में हैं : लतिका रेणु

कल हम होली के रंग में रंग जाएंगे, वैसे माहौल आज से ही बन रहा है। दिल्ली में रंग से अधिक पानी से लोग होली खेलते हैं और पानी भरे गुब्बारे की तो पूछिए ही मत। आज सुबह भी ऑफिस के लिए निकलते समय पड़ोस की छत से छोटे बाबू ने गुब्बार दे मारा। एक जोड़ी कपड़े एक्सट्रा लिए निकला हूं।

खैर,आज सुबह नेट पर फणीश्वर नाथ रेणु और होली को लेकर जानकारियां जुटा रहा था। गूगल ने खोज कर बीबीसी का पन्ना थमा दिया। बीबीसी के बिहार संवाददाता मणिकांत ठाकुर की चार साल पुरानी रपट हाथ में आई, जिसमें उन्होंन रेणु और लतिका जी के बारे में लिखा है।

मणिकांत ठाकुर ने लिखा है कि पटना में लतिका रेणु उनके पड़ोस में रहती हैं. उनसे बातें करते हुए एक दिन उन्होंने रेणु जी की कुछ ख़ास आदतों के बारे में उन्हें बताया। लतिका जी ने बताया कि जब कभी रेणु कहते कि लतिका भाँग पीसो तो मैं समझ जाती कि रेणु लिखने के मूड में आ गए हैं। उनकी कई प्रसिद्ध कहानियों (तीसरी क़सम समेत) के सृजन का संबंध भाँग से रहा है तो होली को हम कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं।


वैसे ये जानकर नए लेखकों को भाँग सेवन की प्रेरणा न मिले ऐसी कामना लतिका जी करती है इसलिए क्योंकि उन्होने रेणु जी का स्वास्थ्य बिगड़ते देखा था।


लेकिन फागुन की मस्ती क्या भंग की पिनक से कम होती है ? हमारे यहां कहते हैं न जो जीए सो खेले फाग।

Sunday, June 01, 2008

हार्डिंग की प्रतिमा

आज फणीश्वर नाथ रेणु के इस रिपोर्ट का आनंद लें। रेणु की यह रिपोर्ट 7 मई 1967 के दिनमान के चरचे और चरखे स्तंभ में प्रकाशित हुई थी। आज एक बार फिर आनंद लें।



गिरीन्द्र


1912 में लॉर्ड हार्डिंग अपनी पत्नी के साथ बिहार पधारे थे। उसी पुण्य अवसर की स्मृति में उस समय के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर चार्ल्स बेली और महाराजा रामेश्वर सिंह (दरभंगा नरेश) के उद्योग से 1915 में पटना में लॉर्ड हार्डिंग की प्रतिमा की स्थापना की गई थी। इस प्रतिमा के शिल्पी लंदन निवासी हैंपटन को इसके पारिश्रमिक में 4,000 पौंड मिले थे।

12 फुट ऊंची वेदी पर इसकी स्थापना हुई। उसके आसपास की भूमि को घेरकर 70,100 रुपये की लागत से एक उद्यान बनाया गया था, जिसका नाम दिया गया – हार्डिंग पार्क। 12 अप्रैल 1967 को बिहार की गैर कांग्रेसी सरकार के संयुक्त समाजावदी मंत्री भोला सिंह ने इस ऐतिहासिक मूर्ति (जो हमारी गुलामी के दिनों की यादगार भी थी..) हटाकर जादू घर में डलवा दिया। और, यह शुभ कर्म उसी व्यक्ति के हाथ से संपन्न कराया गया जिसे संयुक्त समाजवादी पार्टी के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के समय इस मूर्ति का अंग भंग करने की चेष्ठा के अपराध में दंडित किया गया।

5 टन वजन की कांसे की विशाल मूर्ति जब ट्रक पर लदकर जादू घर की ओर चली, उपस्थित जनता ने विदाई में तरह-तरह के नारे लगाए, जिसमें एक नया नारा था- स्वेतलाना को वापस बुलाओ।

सड़क से गुजरती सवारियों पर बैठे लोग अचरज से सबकुछ देख रहे थे। एक देहाती ने रिक्शेवाले से पूछा, भैया यह किसकी मूरत थी...रिक्शाचालक ने तुरंत जवाब दिया- अरे, यह भी नहीं मालूम.. बहुत पुराना कांगरेसी लीडर था और था कृष्णवल्लभ सहाय का आदमी.....

Saturday, July 28, 2007

बोलो हो औराही – हिंगना के पंचो.. क्या मैं झूठ कह रहा हूं..



धर्मयुग के 1 नवंबर,1964 में प्रकाशित तथा आत्मपरिचय में संकलित फणीश्वर नाथ रेणु की इन पंक्तियों को जब भी पढ़ता हूं, मन अपने गांव की धूल उड़ाती सड़कों पर सरपट दौड़ने लगता है..। फिर लौटकर आने का मन नहीं करता है..। आज फिर मन वहीं चला गया है।

रेणु की इन बिंदास बातों में रस है, आप भी पढ़िए और इस महानगरीय उठापटक जीवनशैली से हटकर अपने गांव की कुछ ही देर के लिए ही सही, लेकिन लौटने का प्रयास कीजिए-

(हो सकता है आप में से कइयों ने इसे कई बार पढ़ा भी होगा तो भी एक बार मेरे सुर में सुर मिला ही लीजिए)



"मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गांव चला जाता हूं। जहां मैं घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठा कर – फटी गंजी पहने – गांव की गलियों में, खेतों – मैदानों में घूमता रहता हूं। मुखौटा उतारकर ताजा हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरता हूं। सूरज की आंच में अंग – प्रत्यंग को सेकता हूं (जो, हमारे गांव में लोग बांस की झाड़ियों में या खुले मैदान में – मुक्तकच्छ होकर निबटते हैं न.)।
झमाझम बरखा में दौड़ – दौड़कर नहाता हूं। कमर – भर कीचड़ में घुसकर पुरइन (कमल) और कोका (कोकनद) के फूल लोढ़ता हूं। धनखेतों से लौटती हुई धानियों (सुंदरियों) से ठिठोली करता हूं, गीत गाता हूं –
“ओहे धानी, कादै छ काहेला है – जाइब बंगला- लाइब मोहनमाला तोहरे पिन्हाएला हे – ए - ...।“ फिर, शहर आते समय भद्रता का मुखोस ओढ़ लेता हूं।
मैंने रात में भैंस चराई है। रात में पानी में भीगकर मछली का शिकार किया है। जाड़े की रात में, तीसी के फुलाए हुए खेतों में बटेर फंसाया है..। बारातों में पगड़ी बांधकर घोड़ा दौड़ाया है। गांव के लोगो के साथ मिलकर लाठी से बाघ का शिकार किया है.। (बोलो हो औराही – हिंगना के पंचो.. क्या मैं झूठ कह रहा हूं.. ) और...और...और... औराही – हिंगना के लोग ही बताएँगे कि मैंने क्या-क्या किया है। किन्तु जो भी किया है, (सु-कर्म कु-कर्म) उनकी स्मृतियां मेरी पूंजी हैं।
कहानी या उपन्यास लिखते समय थकावट महसूस होती है अथवा कहीं उलझ जाता हूं तो कोई ग्राम - गीत गुनगुनाने लगता हूं।
.........इस समय एक एक बरसाती गीत गाने को जी मचल रहा है-
“भादव मास भयंकर रतिया-या-या, पिया परदेस गेल धड़के मोर छतिया-या-या, कैसे धीर धरौं मन धीरा- आसिन मास नयन ढरै नीरा-आ-आ-आ.....................................।“