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Friday, March 10, 2023

हम सब निमित्त मात्र हैं!

कई चीजें एक साथ चलती रहती है, संग चलना भी तो कला ही है। चलते चलते जब हम थक जाते हैं तो किनारा पकड़ लेते हैं। कुछ यार-दोस्त वहाँ भी साथ हो जाते हैं। ऐसे बेपरवाह दोस्त सबके नसीब में कहाँ होता है! दरअसल ऐसे दोस्त एकतरफा स्नेह देते रहते हैं, बाहें फैलाये! 

कमरे से बाहर हम सब अपने अपने हिस्से की दुनिया बनाते हैं, जहाँ हम चलते हैं, रुकते हैं। इस दुनिया में अपना पड़ाव होता है, कुछ उस पड़ाव को मंज़िल समझते हैं, कोई उस पड़ाव से आगे निकल जाता है। 
हम सब भीड़ में भीड़ बनकर एक नाटक रचते हैं। कंधों का सहारा लेते हैं और फिर उस कंधे को छोड़, भीड़ में खो जाते हैं। हम सब असल में हर पल नाटक ही तो करते हैं। लेकिन हम इस भरम में रहते हैं कि नाटक अपना है, हम ही इस नाटक के पटकथा लेखक-निर्देशक हैं। जबकि सच तो कुछ और ही होता है। सब कुछ नियति के हाथ का खेला होता है, हम सब निमित्त मात्र हैं! 

अपने हिस्से की दुनिया में हम उम्मीद के बीज बोने की शुरुआत करते हैं, जीने के लिए तमाम तरह के प्रपंच रचते हैं। और एक दिन अचानक नाटक में अपना किरदार पूरा हो जाता है!

यह 'अचानक' ही हम सबका सच है, इसी सच में रंग है, इसी सच में सबकुछ है, कभी सुख ही सुख तो कभी दुख का पहाड़!

आइये, उस 'अचानक' को स्वीकार करते हैं, अपने भीतर के रंग को पहचानने की कोशिश करते हैं, खुद को खुद से रिहा करने की कोशिश करते हैं... 

[ सतीश कौशिक के निधन की खबर सुनने के बाद आत्मलाप]

Saturday, December 15, 2018

गाम-घर और खेत -खलिहान

घंटों चुपचाप बैठना और फिर खेत तक टहलना, इन दिनों आदत सी बन गई है।गाछ-वृक्ष का जीवन देख रहा हूं, तालाब में छोटी मछलियों का जीवन समझ रहा हूं। तमाम व्यस्तताओं के बीच ख़ुद को कुछ दिन अकेला छोड़ देना, कभी कभी रास आने लगता है।

नीम का पौधा अब किशोर हो चला है। दो साल में उसकी लम्बाई और हरियाली, दोनों ही आकर्षित करने लगी है। इन्हें देखकर लगता है कि समय कितनी तेज़ी से गुज़र रहा है। लोगबाग से दूर गाछ-वृक्ष  के बीच जीवन का गणित आसान लगने लगता है।

कुछ काम जब अचानक छूट जाता है और दुनिया का अर्थशास्त्र जब ज़बरन आप पर धौंस ज़माने लगता है, उस वक़्त आत्मालाप की ज़रूरत महसूस होती है।

अहाते के आगे कदंब के पेड़ बारिश इस मौसम में और भी सुंदर दिखने लगे हैं। पंक्तिबद्ध इन कदंब के पेड़ को देखकर लगता है जीवन में एकांत कुछ भी नहीं होता है, जीवन सामूहिकता का पाठ पढ़ाती है।

पेड़-पौधों से घिरे अपने गाम-घर में जीवन स्थिर लगता है। पिछले कुछ दिनों से एक साथ कई मोर्चे पर अलग अलग काम करते हुए जब मन के तार उलझने लगे थे तब लगा कि जीवन को गाछ-वृक्ष की नज़र से देखा जाए। बाबूजी ने जो खेती-बाड़ी दी, उस पर काकाजी ने हरियाली की दुनिया हम लोगों के लिए रच दी,  अब जब सब पौधे वृक्ष हो चले हैं तो उसकी हरियाली हमें बहुत कुछ सीखा रही है।

खेत घूमकर लौट आया हूं, साँझ होने चला है, पाँव धूल से रंगा है। अपने ही क़दम से माटी की ख़ुश्बू आ रही है। पाँव को पानी से साफ़कर बरामदे में दाख़िल होता हूं, फिर एक़बार आगे देखना लगता हूं। हल्की हवा चलती है, नीम का किशोरवय पौधा थिरक रहा है। यही जीवन है, बस आगे देखते रहना है।

Sunday, September 25, 2016

पितृपक्ष, बारिश और बाबूजी

गाम में आज सुबह से बारिश ही बारिश। झमाझम बरखा में खेतों के बीच जाना हुआ। जहाँ पानी अधिक, वहाँ छै-छप-छै करती मछलियाँ :)

उधर, तेज़ हवा और बारिश की वजह से धान को नुक़सान हुआ है। इस बार बारिश का अन्दाज़ ख़तरनाक है। गाम घर के डाक वचनों के मुताबिक़ दशहरा के अंत तक बारिश का मौसम बना रहेगा। ऐसे  में  आलू की बुआई भी प्रभावित होगी।

गाम में आज दिन भर यह सब सुनते हुए बाबूजी बहुत याद आए। वे मौसम के गणित को डाक वचन के आधार पर हल किया करते थे और इसी आधार पर खेती भी करते थे। देखिए न इन दिनों पितृपक्ष भी चल रहा है। शास्त्रों के अनुसार इस दौरान हम अपने पितरों को याद करते हैं, उन्हें तर्पण अर्पित करते हैं।

बाबूजी हर दिन तर्पण करते थे, वे पुरखों को याद करते थे। शास्त्रीय - धार्मिक पद्धति के अलावा वे एक काम और किया करते थे, वह था अपने पूर्वजों के बारे में बच्चों को जानकारी देना। दादाजी की बातें वे बड़े नाटकीय अन्दाज़ में सुनाते थे। उसमें वे शिक्षा, व्यवहार के संग खेती- बाड़ी को जोड़ते थे।

पितृपक्ष की परंपरा को समझने- बूझने के दौरान आज बाबूजी की बहुत याद आ रही है। लगता है वे भी कहीं से बारिश में खेतों में टहल रहे हैं। हर दिन जब संघर्ष का दौर बढ़ता ही जा रहा है और सच पूछिए तो चुनौतियों से निपटने का साहस भी बढ़ता ही जा रहा है, ऐसे में लगता है कि बाबूजी ही मुझे साहस दे रहे हैं। अक्सर शाम में पूरब के खेत में घूमते हुए लगता है कि वे सफेद धोती और बाँह वाली कोठारी की गंजी में मेरे संग हैं।

धान की बालियाँ जब पानी में झुक गई है, तो मैं परेशान हो जाता हूं कि तभी लगता है वे कंधे पे हाथ रखकर कह रहे हों कि सब ठीक हो जाएगा। ऐसा हर वक़्त लगता है कि वे कुछ बताकर फिर निकल जाते हैं। दुःख बस इस बात का होता है कि  वे बताते भी नहीं हैं कि कहाँ निकल रहे हैं।

लोग पितृपक्ष में परंपराओं के आधार पर बहुत कुछ करते हैं, मैं कोई अपवाद नहीं। लेकिन मैं उन चीज़ों से मोहब्बत करने लगा हूं, जिसे बाबूजी पसंद किया करते थे। खेत, पेड़-पौधे, ढ़ेर सारी किताबें और उनकी काले रंग की राजदूत।

बाबूजी की पसंदीदा काले रंग की राजदूत को साफ़ कर रख दिया है, साइड स्टेण्ड में नहीं बल्कि मैन स्टेण्ड में। वे साइड स्टेण्ड में बाइक को देखकर टोक दिया करते थे और कहते थे : " हमेशा सीधा खड़े रहने की आदत सीखो, झुक जाओगे तो झुकते ही रहोगे..."

सच कहूं तो अब अपने भीतर, आस पास सबसे अधिक बाबूजी को महसूस करता हूं। पितृपक्ष में लोगबाग कुश-तिल और जल के साथ अपने पितरों को याद करते हैं। लेकिन मैं अपनी स्मृति से भी अपने पूर्वजों को याद करता हूं क्योंकि स्मृति की दूब हमेशा हरी होती है और इस मौसम में सुबह सुबह जब दूब पर ओस की बूँदें टिकी रहती है तो लगता है मानो दूब के सिर पे किसी ने मोती को सज़ा दिया है।

आज बाबूजी से जुड़ा सबकुछ याद आ रहा रहा है।दवा, बिछावन, व्हील चेयर, किताबों वाला आलमीरा...सबकुछ आँखों के सामने है लेकिन बाबूजी नहीं हैं।

इस बीच अखबारों, पत्रिकाओं और वेब पोर्टल पर कितना कुछ छ्प रहा है लेकिन मैं किसे बताऊं? लिखते रहने का सम्मान मिला लेकिन उन्हें कुछ भी दिखा न सका। मैं पितृपक्ष में हर दिन सबकुछ उन्हें अर्पित करता हूं। वे मेरे लिए एक जज्बाती इंसान थे लेकिन यह भी सच है कि वे ऊपर से एक ठेठ-पिता थे। 



Wednesday, November 25, 2015

पुरानी कहानी, नया पाठ


चनका गांव के एक तालाब की तस्वीर।
बोली-बानी सब बदल जाती है, बस रह जाती है तो केवल यादें। गांव को नदी बांट देती है, गांव को नहरें बांट देती है. इन सब में जो सबसे कॉमन है वह है पानी। हमारी यादों को दो छोर पे रखने में इस पानी का सबसे अहम रोल है। कोसी के कछार में आकर हम बसते हैं, एक बस्ती बनाते हैं।

उस बस्ती से दूर जहां हमारे अपने लोग बसे हैं
, जहां संस्कार नामक एक बरगद का पेड़ खड़ा है और जहां बसे वहां बांस का झुरमुट हमारे लिए आशियाना तैयार करने में जुटा था। मधुबनी से पूर्णिया की यात्रा में दो छोर हमारे लिए पानी ही है। उस पार से इस पार। कालापानी। कुछ लोग इसे पश्चिम भी कहते हैं। बूढ़े-बुजुर्ग कहते हैं- जहर ने खाउ माहुर ने खाउ, मरबाक होए तो पूर्णिया आऊ (न जहर खाइए, न माहुर खाइए, मरना है तो पूर्णिया आइए)। और हम मरने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए इस पार आ गए।

विशाल परती जमीन
, जिसे हॉलीवुड फिल्मों में नो मेन्स लैंड कहा जा सकता है, हमारे हिस्से आ गई। शहर मधुबनी से शहर-ए-सदर पूर्णिया अड्डा बन गया। मधुबनी जिले के तत्सम मैथिली से पूर्णिया के अप्रभंश मैथिली की दुनिया में हम कदम रखते हैं। हमारी बोली-बानी पे दूसरे शहर का छाप साफ दिखने लगा। सूप, कुदाल खुड़पी सबके अर्थ, उच्चारण, हमारे लिए बदल गए, लेकिन हम नहीं बदले, जुड़ाव बढ़ता ही चला गया, संबंध प्रगाढ़ होते चले गए।

कोसी एक कारक बन गई, पूर्णिया और मधुबनी के बीच। दो शहर कैसे अलग हैं, इसकी बानगी बाटा चौक और भट्टा बाजार है। एक भाषा यदि मधुबनी को जोड़ती है तो वहीं विषयांतर बोलियां पूर्णिया को काटती है, लेकिन एक जगह आकर दोनों शहर एक हो जाता है, वह है सदर पूर्णिया का मधुबनी मोहल्ला। कहा जाता है कि उस पार से आए लोगों ने इस मोह्ल्ले को बसाया। यहीं मैथिल टोल भी बस गया। मधुबनी मोहल्ला घुमने पर आपको बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनका ऑरिजन मधुबनी जिला है।

धीरे-धीरे यहां प्रवासी अहसास भी मैथिल भाषियों को होने लगा, बंगाल से सटे रहने की वजह से बांग्ला महक फैलती ही चली गई। आप उस पार के हैं, यह पूर्णिया में भी मधुबनी से आए लोगों को सुनने को मिलता है। उस पार से आए किसान यहां जमींदार बन गए, निजाम बन गए तो कुछ, कई की आंख की किरकरी (चोखेर बाली) बन गए।

शहर पूर्णिया और शहर मधुबनी में जो अंतर सपाट तरीके से दिखता है वह लोगबाग। कामकाजी समाज आपको मधुबनी मिलेगा लेकिन पूर्णिया में यह अनुभव कुछ ही मोहल्लों में मिलेगा। यह शहर शुरुआत में बड़े किसानों का आउट हाउस था। वे यहां कचहरी के काम से आते थे और कुछ वक्त गुजारा करते थे। उस पढ़ाई के लिए लोग मधुबनी-दरभंगा के कॉलेजों पर ही आश्रित थे। शिक्षा के मामले में मधुबनी-दरभंगा बेल्ट ही मजबूत था बनिस्पत पूर्णिया अंचल।

अब हम धीरे-धीरे शहर से गांव की ओर मुड़ते हैं। इशाहपुर (मधुबनी जिला का गांव) से खिसकते हुए एक अति पिछड़े गांव चनका (पूर्णिया जिला का गांव) पहुंच जाते हैं। धोती से लुंगी में आ जाते हैं। पोखर से धार (कोसी से फुटकर कई नदियां पूर्णिया जिले के गावों में बहती है, जिसमें जूट की खेती होती है) बन जाते हैं। माछ से सिल्ली (पानी में रहने वाली चिडियां, जिसे कोसी के इलाके में लोग बड़े चाव से खाते हैं) के भक्षक बन जाते हैं। मैथिली गोसाइन गीत से भगैत बांचने लगते हैं। धर्म-संस्कार का असर कम होने लगता है तो कुछ लोग डर से इसके (धर्म) और गुलाम बनते चले जाते हैं। 

(जारी है, मधुबनी से पूर्णिया, इशाहपुर से चनका का सफर)

Thursday, May 21, 2015

मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता..

बाबूजी, जब तक आप खड़े थे आपसे आँख मिलाकर बात नहीं कर पाया। मेरी आँखें आपके सामने हमेशा झुकी रही। अब जब रोज यह कहना पड़ता है कि बाबूजी आँखें खोलिए, दवा खाइये...तो मैं घंटों तक अंदर से डरा महसूस करता हूँ। आपसे आँख मिलाने की हिम्मत मैं अब भी नहीं कर पा रहा हूँ।

अब जब रोज आपको बिछावन से उठाता हूँ और फिर वहीं लेटाता हूँ तो आपके शरीर को छूने भर से अजीब की शक्ति मिलती है। इस शक्ति को खुद को खुद से लड़ने के लिए बचाकर रख रहा हूँ।

आपके शरीर में जबसे घाव ने अपनी जगह बना ली तो मैं अंदर से टूट गया। मैंने कभी आपके शरीर को इस तरह लाचार नहीं देखा था। धोती-कुर्ते में आपको सलीके से देखता आया। माँ हमेशा आपके घाव को साफ़ करने में लगी रहती है, वही सबकुछ करती हैं। नहीं मालूम कि आप ये सब समझ रहे हैं या नहीं लेकिन हर बार जब आपके घाव पर बेटाडिन दवा लगाई जाती है तो मैं सिहर जाता हूँ।

मैं जानता हूं कि ये दवा घाव के फंगस को हटाने का काम करती है लेकिन दर्द भी तेज करती है कुछ देर के लिए ...इन सब प्रक्रिया में भी आप के चेहरे पर भाव नहीं देखकर आपका दर्द खुद पी लेता हूँ। आपको उठाकर कुर्सी पर नहीं बैठा सकता, क्योंकि बैठते ही आपका बीपी हाई हो जाता है और फिर घंटों मूर्छित पड़े रहते हैं।

आपको स्नान भी नहीं सकता, घाव के डर से। लेकिन इन सबके बावजूद अपना भरम बनाये रखने के लिए आपको घाव सूखने की सबसे ताकतवर दवा बायोसेफ सीवी- 500  देता हूँ कि आप ठीक हो जाएंगे और बेड सोर को हरा देंगे। मैं जानता हूं कि यह सब वक्त का फेर है, जो आपको तंग कर रहा है।

याद है आपको, दसवीं पास करने के बाद जब आपने टाइटन की कलाई  घड़ी दी थी तो क्या कहा था? मुझे याद है, आपने कहा था वक्त बड़ा बलवान होता है। वक्त हर दर्द की दवा भी अगले वक्त में देता है। गणित में कम अंक आने पर आप गुस्सा गए थे। आपने कहा था जीवन गणित है और तुम उसी में पिछड़ गए...फिर आपने 12वीं में कॉमर्स विषय लेने को कहा और चेतावनी दी थी कि इसमें पिछड़ना नहीं है। याद है न आपको  बाबूजी! मैंने आपके भरोसे को बनाये रखा था तो आपने गिफ्ट में हीरो साइकिल दी थी। फिर दिल्ली भेज दिया, कॉलेज की जिंदगी जीने।

जब भी पैथोलॉजिकल जांच में आपका सोडियम गिरा हुआ और सूगर लेवल हाई देखता हूँ तो मैं खुद चक्कर खा जाता हूँ। इलोकट्रेट इम्बैलेंस आपके लिए अब नई बात नहीं रही लेकिन मैं डर जाता हूं। हमेशा अपने कन्धे पर भार उठाने वाले शख्स को इस कदर लाचार देखकर मेरा मन टूट जाता है। लेकिन तभी आपकी एक चिट्ठी की याद आ जाती है जो आपने मुझे 2003 में भेजी थी दिल्ली के गांधी विहार पते पर। रजिस्ट्रड लिफाफे में महीने के खर्चे का ड्राफ्ट था और पीले रंग के पन्ने पर इंक कलम से लिखी आपकी पाती थी।

आपने लिखा था कि “बिना लड़े जीवन जिया ही नहीं जा सकता। लड़ो ताकि जीवन के हर पड़ाव पर खुद से हार जाने की नौबत न आए।“ आपकी इन बातों को जब याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि आप क्यों नहीं अपने घाव से लड़ रहे हैं। आप क्यों हार रहे हैं।

मैं आपको फिर से खड़ा देखना चाहता हूँ। बाबूजी, मुझे आप लेटे हुए अच्छे नहीं लगते। मुझे आपसे कार ड्राइव करना सीखना है। दीदी ने जब कार दी तो पहली बार स्टेयरिंग पर हाथ रखा तो आपकी वो बात याद आई – “जब कार लाओगे तो मैं क्लच- ऐक्सिलेटर-गियर का खेल तुम्हें सिखाऊंगा ....” लेकिन वो भी नहीं हो सका और यही वजह है कि मैं आज भी कार चलाने से झिझकता हूँ। मैं हर बात सबको कह नहीं पाता, बहुत कुछ मन में ही रख लेता हूं। जानता हूं ये ठीक नहीं है लेकिन आदत से मजबूर हूं।

जब भी चनका जाता हूं तो आपका केसरिया रंग का वो दोनों एस्कार्ट ट्रेक्टर याद आ जाता है, जिसे आप हाफ पेंट , जूता और हेट पहनकर खेत में निकालते थे..आप तो देवघर , दरभंगा सबजगह ट्रेक्टर से पहुंच जाते थे या फिर अपनी काले रंग की राजदूत से। कितनी यात्राएं की आपने। याद है न आपको दिल्ली के बसंतकुंज स्थित फोर्टिस अस्पताल में डाक्टर दीपक ने क्या कहा था – आपने ड्राइव बहुत किया है, लंबी दूरी मोटरसाइकिल से तय की है...इतना नहीं चलाना चाहिए था...। जब भी मैं लंबी दूरी बाइक से तय करता हूं तो आप याद आ जाते हैं।

जानते हैं जब आपके लिए व्हील चेयर खरीदकर लाया था तो रास्ते में रूककर खूब रोया था। मैंने कभी भी आपको सहारा लेकर चलते नहीं देखा था ...सहारा देते हुए ही देखा। बिजली के बिछावन पर लेटे देखकर भी मेरा यही हाल होता है। सच कहूँ तो अब डाक्टरों से डर लगता है। डाक्टरी जांच से भय होता है। मैं खुद साउंड एपिलेप्सी का मरीज बन गया..मेडिकल फोबिया का शिकार हो गया हूँ। अस्पताल जाने के नाम पर पसीने छूट जाते हैं। पहले गूगल कर लेता हूं कि फलां रोग का इलाज क्या है...

आप जानते हैं बाबूजी, मेरी एक किताब आ रही है राजकमल प्रकाशन से। आपने कहा था न कि हिंदी में राजकमल प्रकाशन का स्तर ऊंचा है और जब भी लिखना तो उम्मीद रहेगी कि राजकमल से ही किताब आए... बाबूजी, मेरी किताब उसी प्रकाशन से आ रही है।  आप यह सुनकर क्यों नहीं खुश हो रहे हैं ? आप सुनिए तो...

चनका में आपकी अपनी एक लाइब्रेरी थी न जहां  राजकमल प्रकाशन की किताबें रखने के लिए काठ वाली एक आलमारी थी अलग से! आपने दादाजी के नाम से वह लाइब्रेरी तैयार की थी। मुझे कुछ कुछ याद है। लाइब्रेरी की सैंकडों किताबें आपने बांट दी। आप लोगों को  किताब पढ़ाते थे।

एक बार जब मैंने आपसे पूछा कि किताबें जो लोग ले जाते हैं वो तो लौटा नहीं रहे हैं? आपने कहा था- “किताब और कलम बांटनी चाहिए। लोगों में पढ़ने की आदत बनी रहे, यह जरुरी है। देना सीखो, सुख मिलेगा। “ अब जब मेरी किताब की बातें हो रही है तो आप चुप हैं ..इसलिए मैं सबकुछ करने के बाद भी खुद से खुश नहीं हूँ क्योंकि आप मेरे लिखे में गलती नहीं निकाल रहे हैं।  आप मेरे आलोचक हैं, प्रथम पाठक हैं.. आप समझ क्यों नहीं रहे हैं।

किताब को लेकर जब भी राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम से बात होती है तो मैं अपना दुःख छुपा लेता हूँ। मैं उन्हें कैसे बताऊँ अपने भीतर की पीड़ा...एक एक शब्द लिखते वक्त अंदर का संत्रास झेलता हूँ। यह दुःख मैं शेयर नहीं कर पा रहा हूँ ...किसी से नहीं। जब भी सत्यानन्द निरूपम से किताब आदि को लेकर बात करता हूँ तो बस मुस्कुरा देता हूँ ताकि अंदर की पीड़ा और आंसू बाहर न आ जाए।

सत्यानंद निरुपम सर को  कैसे कहूँ कि बाबूजी के लिए ही लिखता रहा हूँ लेकिन अबकी बार वे कुछ नहीं समझ पा रहे हैं। मैं भीड़ में अकेला हो चला हूँ। फिर सोचता हूँ कि शायद मन के तार सत्यानंद से कभी न कभी जुड़ जाएंगे तो उन्हें सब बातें बताऊंगा।

बाबूजी, आपको तो रवीश की रिपोर्ट बहुत पसंद है न। आपने तो उसीके लिए ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में केबल का तार लगाया था ..याद है न। अयोध्या पर रवीश की एक रपट आई थी तो आपने फोन किया था कि रिपोर्टिंग को इस अंदाज में करना चाहिए। बाबूजी, हाल ही में रवीश ने अपने रिपोर्ट में मेरा लिखा पढकर सुनाया था,  दुःख की ही घड़ी में लेकिन सुनाया था। आपने उसे भी नहीं देखा...क्यों ..? रवीश आपका हालचाल पूछते हैं और आप है कि जवाब भी नहीं देते। कुछ तो कहिये....

बाबूजी, सुशांत झा आपको याद हैं न ! विरंची जी के बेटे, मधुबनी वाले। आप उनकी बात खूब सुनते थे न जब वे पूर्णिया आये थे। वे भी आपका हाल चाल लेते हैं। आपने उनके बारे में कहा था कि इनके संपर्क में रहिये, इनके पास इतिहास - भूगोल की कथाएँ हैं। इनसे बहुत कुछ सीखने की बात आपने कही थी। हां बाबूजी , मैं सुशांत भाई के संपर्क में रहता हूँ, उनसे सीखता रहता हूं। वे तो आपके चनका के बारे में भी बात करते रहते हैं। मेरे सभी दोस्त आपके बारे में पूछते रहते हैं लेकिन आप है जो खामोशी का चादर ओढ़ लिए हैं।

जानते हैं आपकी खामोशी की वजह से है कि मैं परेशान रहता हूँ। जबसे आपने बिछावन पकड़ा है, कहां कुछ कहा मुझसे। अब तो साल होने जा रहे हैं। कुछ तो बोलिए..डांट ही लगाइए..लेकिन कुछ तो कहिए।

एक बात जानते हैं, इस बार आंधी बारिश के तांडव में भी आपके हाथ से लगाये लीची और कटहल गाछ फल से लदे हैं। दोपहर में गाम के बच्चे उसमें लूदके रहते हैं , चमगादरों की तरह ...मैं बस उन्हें हँसते खिलखिलाते देखता रहता हूँ। आप सबके लिए कुछ न कुछ लगाकर लेट गए हैं ..अब उठिए और मुझे भी यह तरकीब सीखा दीजिये न बाबूजी.....आप मेरी बात सुनिए न ...।

Friday, May 08, 2015

जब शहर हमारा सोता है...

हल्की हल्की हवा चल रही है। आसमान में बादलों के संग तारे टिमटिमा रहे हैं। टेबल पर खालिद हुसैनी की किताब द काइट रनर है लेकिन मन अचानक चनका-पूर्णिया से दिल्ली पहुँच गया है। हवा के झोंके की तरह मन दिल्ली की गलियों में गोता खाने लगा।

मुखर्जी नगर और गांधी विहार से मन के तार अचानक जुड़ गए हैं। बत्रा सिनेमा से कुछ कदम आगे आईसीआईसीआई बैंक का एटीएम और उसके सामने मैंगो-बनाना सैक वाले सरदार जी का स्टॉल याद आ रहा है, पता नहीं ये दोनों अब वहां हैं या नहीं और हैं तो किस रूप में।

रोशनी में डूबे मुखर्जीनगर में हम शाम ढलते ही एक घंटे के लिए आते थे। इधर –उधर कभी कभार घुमते थे। दरअसल हम आते थे गर्मी में सरदार जी के स्टाल पर जूस पीने और उसके सामने चारपाई पर बिछी पत्र पत्रिकाओं में कुछ देर के लिए खोने के लिए।

 20 रुपये में एक ग्लास जूस पीते थे और फिर मुफ्त में हफ्ते की हर पत्रिका पर नजर घुमा लेते। उस वक्त नौकरी नहीं थी, पढ़ने के लिए पैसे मिलते थे। इसलिए खर्च को लेकर बेहद सतर्क रहना पड़ता था। कथादेश पत्रिका से मेरा पहला इनकाउंटर उसी चारपाई वाले बुक स्टॉल पर हुआ था।

आज पता नहीं एक साथ इतना कुछ क्यों याद आ रहा है ? सचमुच मन बड़ा चंचल होता है। मुखर्जीनगर का वो चावला रेस्तरां याद आ  रहा है जहां बिहार के होस्टल वाली जिंदगी से निकलने के बाद पहली दफे चाइनीज व्यंजनों का मजा उठाया था। उस वक्त लगा कि यह रेस्तरां नहीं बल्कि पांच सितारा होटल है। हम पहली बार किसी रेस्तरां में खाए थे।

चावला रेस्तरां के बगल से एक गली आगे निकलती थी। कहते थे कि इस गली में इंडियन सिविल सर्विसेज का कारखाना है, मतलब कोंचिग सेंटर । उस गली में खूब पढ़ने वाले लोगों का आना जाना हमेशा लगा रहता था।  ऐसे लोगों को हम सब 'बाबा' कहते थे उस वक्त। पता नहीं अब क्या कहा जाता है :)

मैं इस वक्त खुद को 2002 यानि की 13 साल पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया है। फेसबुक का वह काल नहीं था..वो तो बस मौखिक काल था..हम आमने सामने बैठकर चैट करते थे तब :)

मैं याद करता हूं तो स्मृति में  मुखर्जी नगर और गांधी विहार के बीच एक पुलिया आ जाती है। बदबूदार पुलिया। लेकिन उस बदबू में भी अपना मन रम जाता था। पूरे दिल्ली में उस वक्त केवल मेरे लिए, एक वही जगह थी जहां पहुंचकर मैं सहज महसूस करता था।

दरअसल उस पुलिया पर मुझे गाम के कोसी प्रोजेक्ट नहर का आभास होता था। भीतर का गाँव वहां एक झटके में बाहर निकल पड़ता और मैं मन ही मन खुश हो जाता था।

इस वक्त मुझे 81 नंबर की बस याद आ रही है, फटफट आवाज करते शेयर वाले ऑटो, रंगीन रिक्शे...ये सब आँखों के सामने तैर रहे हैं इस वक्त। मैं अब इंदिरा विहार की तरफ पहुँच जाता हूँ वहां एक बस स्टॉप था, जिसका नाम था- मुखर्जी नगर मोड़। मैं उस मोड़ पर 912 नंबर की बस का इंतजार करता था, सत्यवती कालेज जाने के लिए।

बसों के नंबर से उस वक्त हम दिल्ली को जीते थे। तब मेट्रो नहीं आया था। धुआं उड़ाती बसों का आशियाना था दिल्ली। मेरा वैसे तो अंक गणित कमजोर रहा है लेकिन बस के अंकों में कभी हम मात नहीं खाए :)

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान मुखर्जी नगर के आसपास का इलाका हमारा गांव हो गया था, जिसके मोहल्ले, गलियां, पार्क .. ये सब मेरे लिए गाम के टोले की तरह हो चले थे। सब जगह अपने इलाके के लोग मिल जाते। इसलिए उस शहर ने कभी भी मेरे भीतर के गांव को दबाने की कोशिश नहीं की क्योंकि हम बाहर-बाहर शहर जीते थे और भीतर-भीतर गांव को बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हुए अंचल की सांस्कृतिक स्मृति को मन की पोथी में संजोते हुए शहर को जी रहे थे...

Wednesday, April 29, 2015

बस यूं ही...

जब सबसे अधिक परेशान रहता हूं, चारों ओर से अंधेरा दिखने लगता है तो मैं कुछ लोगों को पढ़ता, सुनता और देखता हूं। घुप्प अंधेरे में ‘मैं’ पीयूष मिश्रा का लिखा सुनता हूं, रवीश की किसी पुरानी रपट यूट्यूब पर देखने लगता हूं, सदन झा का कोई आलेख पढ़ने बैठ जाता हूं..तो राजशेखर के लिखे गीतों को बुदबुदाने लगता हूं। ऐसा करना मेरे लिए योग की तरह साबित होता है, रवींद्र नाथ ठाकुर के योगायोग की तरह। मुझे आराम मिलता है। पता नहीं इसके पीछे कारण क्या होंगे लेकिन जो भी होंगे ..मेरे लिए तो रामबाण ही साबित होते आए हैं।

पीयूष मिश्रा की आवाज मेरे लिए एंटीबायोटिक का काम करती आई है। जब खूब परेशान होता जाता हूं या कुछ सूझते नहीं बनता है तो इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ सुनने लगात हूं। जब वह कहते हैं कि हम चाँद पे, रोटी की चादर डाल के सो जाएँगे..और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आएँगे..तो मुझे शांति मिल जाती है। सब आपाधापी छू मंतर :)

ठीक ऐसी ही अनुभूति रवीश कुमार की पुरानी रपटों में मुझे होता है। मैं यूट्यूब पर रवीश की रिपोर्ट खंगालने लगता हूं। मैं अक्सर जब परेशांन होता हूं तो शुक्रवार, 7 जनवरी 2011 को एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम रवीश की रिपोर्ट देखने लगता हूं। इस रिपोर्ट का नाम था - भूख पर लगी धारा 144...। रवीश के साथ सहबा फारुकी थीं, जो कहानी के भीतर कहानी की रेसे को अलग कर रही थीं। सच कहूं तो इसी रपट से जान सका कि कोई दो रुपये के लिए भी आठ घंटा काम कर सकता है। मुझे अपना दर्द कम लगने लगता है। मैं खुद से बातें करना लगता हूं। रवीश मुझे कभी कभी गाम के कबिराहा मठ के अखड्ड बूढ़े की तरह लगने लगते हैं। जो हर बात बिना लाग लपेट से कह देता है और फिर निकल पड़ता है..आगे..खूब आगे।

इन्हीं सबके बीच सदन सर का लिखा मैं पढ़ने लगता हूं। वे मुझे अंचल की सांस्कृतिक स्मृति के करीब ले जाकर खेत में अकेले छोड़ देते हैं..और मैं खुद से बातें करना लगता हूं। पूर्णिया जिले की नदियां..गांव में लगने वाले हाट – बाजार ..मैं इन सबमें दिल बहलाने लगता हूं..इन सबमें संगीत खोजने लगता हूं। खेती बारी से इतर जीवन को इस नजर से भी देखने जुट जाता हूं। शहर और गांव की आंखें मुझे अपनी ओर खींचने लगती है। परेशानी के वक्त मैं सदन सर के शोधपरक काम डाकवचन पढ़ने लगता हूं। जहां भी गूगल के जरिए उनका लिखा मिलता है, पढ़ने लगता हूं। मन थोड़ा हल्का हो जाता है।

गाम-घर करते हुए अचानक हमारे बीच राजशेखर आ जाते हैं, जिनका लिखा एक गीत मेरे मन में बस चुका है। तनु वेड्स मनु का गीत जब सुना तो लगा कि यह आदमी तो दुख को भी सूफी कर देगा। वो जब भी मिलेंगे तो मैं उनसे एक सवाल जरुर करूंगा कि आपने ये कैसे लिख दिया- “नैहर पीहर का आंगन रंग..नींदे रंग दे..करवट भी रंग....” राजशेखर से मैं जरुर मिलूंगा..बहुत सवाल करुंगा..उन्हें अपने गाम ले जाउंगा और उन्हें बस बोलते हुए सुनता रह जाउंगा...


देखिए न इतना कुछ लिखते लिखते मन मेरा भर आया है। मेरे यार-दोस्त बोलते हैं कि मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हूं, अरे, मैं क्या करूं, अक्सर कई चीजें मुझे हैरान कर देती है और मैं बह जाता हूं। अभी बस इतना ही। गुलजार के शब्दों के पास जा रहा हूं और बुदबुदाता हूं कि गिरा दो पर्दा कि दास्तां खाली हो गई है...





Wednesday, March 04, 2015

रेणु के नाम एक पतरी


रेणु बाबा को प्रणाम!



बहुत दिनों से इच्छा थी कि आपको पाती लिखूं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहा था। आज जब जीवन के प्रपंच में फंसकर  जीवन जीने की कला सीख रहा हूं तो हिम्मत जुटा कर आपको लिखने बैठा हूं।

कागजी किताबों फाइलों के अनुसार आज (4 मार्च) आपका जन्मदिन है। देखिए न, हर साल इस दिन मैं आपके लिए अपने भीतर कुछ न कुछ करता रहा हूं लेकिन इस साल कुछ नहीं कर पा रहा हूं इसलिए चिट्ठी लिखने बैठ गया हूं। अपने भीतर आपके पात्रों को विचरन करने के लिए छोड़कर शब्दों की माला पिरोने बैठ गया हूं। मेरा मन बाबूजी के आलमीरे से  मैला आंचल निकालकर पढ़ने की जिद कर रहा था लेकिन बाबूजी को पलंग पर जीवन और मौत से जूझते देखकर मैंने परती परिकथा निकाल ली है।

परती परिकथा के बहाने आपसे लंबी गुफ्तगू करने इच्छा रही है ठीक वैसे ही जैसे गुलजार से मुझे उनके गीतों पर कभी बात करनी है। एक बात कहूं बाबा ! बाबूजी की बीमारी मुझे आपसे और नजदीक करने लगी है। मां को उनकी अनवरत सेवा करते देखकर मैं बस आखें मूंद लेता हूं फिर सोचने लगता हूं कि आपने किस तरह परती परिकथा की एक उल्लेखनीय नारी पात्र गीता देवी को रचा होगा। गीता देवी जितेंद्र नाथ की मैम मां थीं। आज आपके जन्मदिन पर मैं बार बार गीता देवी को स्मरण कर रहा हूं।

रेणु बाबा, एक बात जानते हैं आप! इन दिनों मैं कई दफे आपके घर यानि औराही जा चुका हूं। आपके आंगन में पांव रखते ही मुझे कबीराहा माठ की याद आने लगती है। आंगन की माटी के स्पर्श से मन साधो साधो करने लगता है। इस बार हम सोचे थे कि चार मार्च को धूम धाम से आपके गाम में आपका जन्मदिन मनाएंगे लेकिन अफसोस हम कर नहीं सके। फिर सोचे पू्र्णिय़ा में करेंगे..लेकिन यहां भी नहीं। बाबा, मैं सरकारी सहायता से आपके नाम पर कार्यक्रम करने से डरने लगा हूं ..पता नहीं क्यों ? सरकारी क्या किसी भी सहायता से । जीवन का प्रपंच मुझे ऐसे कामों से दूर करन लगा है । ऐसे में मैं मन ही मन आपको याद कर लेता हूं।

खैर, एक बात और, हमने उस घर को भी छू लिया है जिसके बरामदे पर आपने लंबा वक्त गुजारा। आपके साहित्यिक गुरु सतीनाथ भादुड़ी के बासा को हमने देख लिया है। हालांकि वह बासा अब बिक चुका है लेकिन खरीददार के भीतर भी हमने सतीनाथ-फणीश्वरनाथ को पा लिया है। पता नहीं आपको लिखते वक्त मैं रुहानी क्यों हो जाता हूं लेकिन सच यही है कि आप मेरे लिए कबीर हैं। बहुत हिम्मत जुटाकर यह सब लिख रहा हूं बाबा। क्योंकि मुझे इस जिंदगी में जिस बात का सबसे ज्यादा मलाला रहेगा वह है- आपको नंगी आखों से न देख पाना। हालांकि मन की आंखों से तो आपको देखता ही रहा हूं।

याद है न आपको तीन साल पहले कानपुर में आज ही के दिन आप सपने में आए थे.....साथ में लतिका जी भी थीं। उस सपने में मैं टकटकी लगाए ‘लतिका-रेणु’ को देखने लगा। आखिर मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। आपके मैला आंचल में जिस तरह  डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ‘ममता’ को देख रहा था, – विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान – नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल...

और एक बात कहनी थी आपसे..मेरी एक किताब आ रही है- राजकमल प्रकाशन से। हालांकि किताब को लेकर तरह तरह की बातें होने लगी है लेकिन मुझे खुद पर भरोसा है। बाद बांकि आप पर छोड़ दिया हूं। बाबूजी यदि ठीक रहते तो वो भी आपको इस बात के लिए चिट्ठी लिखते लेकिन अफसोस वो भी आज बिछावन पर अचेत लेटे हैं। दरअसल आपने जिस परती को अपनी परिकथा के लिए चुना था वह अपनी अपनी अनुभव संपदा में सबसे अधिक उर्वरा थी और आप आने वाली पीढियों को भी इस उर्वरा के बारे में बताते रहे हैं।

बाबा, इन दिनों जब जीवन में तमाम तरह के झंझावतों को झेल रहा हूं तो अक्सर आपको याद करता हूं । जानते हैं क्यों? क्योंकि आप मेरे लिए ऐसे शख्स हैं जिसने जीवन में बहुत कुछ भोगा और सहा है...और इसी वजह से आप ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखाई देते हैं। आपने कभी अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपी। बाबूजी हमसे कहा करते थे कि ऐसे लोगों की शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।

आपके बारे में निर्मल वर्मा कहते थे कि जिस तरह कुछ साधु संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का अहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं , रेणु की मूक उपस्थिति हिंदी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती है। ' निर्मल वर्मा की यह पंक्ति मैं आपके लिए हर जगह दोहराता रहा हूं। आप मेरे लिए संत लेखक हैं। आपको गुस्सा आता होगा कि यह लड़का संत संत क्यों कह रहा है लेकिन बाबा, बात यह है कि आपने अपने लेखन में किसी चीज को त्याज्य या घृणास्पद नहीं माना। आपने हर  जीवित तत्व में पवित्रता, सौंदर्य और चमत्कार खोजेन की कोशिश की और ऐसा केवल संत ही कर सकता है।


आपके लेखन पर चर्चा करना मुझे कभी रास नहीं आया। मुझे तो बस आपकी बातें करने में आनंद आता है..देहातित आनंद।

बाबा, तो अब आज्ञा दीजिए। बाबूजी को दवा देने का वक्त आ गया है। पलंग पर लेटे लेटे वे मुझे देख रहे हैं, शायद वो भी मुझे कुछ कहना चाहते हैं...आप भी कुछ कहिए न बाबा....

आपका
गिरीन्द्र नाथ झा
ग्राम- चनका, पोस्ट- चनका, जिला-पूर्णिया, बिहार
4 मार्च, 2015

Monday, December 22, 2014

यह साल भी बीत कर विगत हो जाएगा

किसानी करते हुए, साल के जिस माह से मुझे सबसे अधिक लगाव होता है, वह दिसंबर ही है. इस महीने की कोमल धूप मुझे मोह लेती है. लेकिन तभी अहसास होता है कि यह साल भी बीत कर विगत हो जाएगा- ठीक उसी तरह जैसे धरती मैया के आंचल मेँ न जाने कितनी सदियां ..कितने बरस दुबक कर छुपे बैठे हैँ।

फिर सोचता हूं तो लगता है कि हर किसी के जीवन के बनने में ऐसे ही न जाने कितने 12 महीने होंगे, इन्हीं महीने के पल-पल को जोड़कर हम-आप सब अपने जीवन को संवारते-बिगाड़ते हैं। किसानी करते हुए हमने पाया कि एक किसान हर चार महीने में एक जीवन जीता है। शायद ही किसी पेशे में जीवन को इस तरह टुकड़ों में जिया जाता होगा।

 चार महीने में हम एक फसल उपजा लेते हैं और इन्हीं चार महीने के सुख-दुख को फसल काटते ही मानो भूल जाते हैं। हमने कभी बाबूजी के मुख से सुना था कि किसान ही केवल ऐसा जीव है जो स्वार्थ को ताक पर रखकर जीवन जीता है। इसके पीछे उनका तर्क होता था कि फसल बोने के बाद किसान इस बात कि परवाह नहीं करता है कि फल अच्छा होगा या बुरा..वह सबकुछ मौसम के हवाले कर जीवन की अगले चरण की तैयारी में जुट जाता है।

किसानी करते हुए जो अहसास हो रहा है, उसे लिखता जाता हूं। इस आशा के साथ कि किसानी को कोई परित्यक्त भाव से न देखे। अभी-अभी विभूतिभूषण बंद्योपाद्याय की कृति ‘आरण्यक’ को एक बार फिर से पूरा किया है। बंगाल के एक बड़े जमींदार की हजारो एकड़ जमीन को रैयतो में बांटने के लिए एक मैनेजर पूर्णियां जिले के एक जंगली इलाके में दाखिल होता है। जिस कथा शिल्प का विभूति बाबू ने ‘आरण्यक’ में इस्तेमाल किया है, वह अभी भी मुझे मौजू दिख रहा है। पू्र्णिया जिला की किसानी अभी भी देश के अन्य इलाकों से साफ अलग है। इस अलग शब्द की व्याख्या शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। इसे बस भोग कर समझा जा सकता है।

खैर, 2014 के अंतिम महीने में मेरे जैसा किसान मक्का, आलू और सरसों में डूबा पड़ा है। इस आशा के साथ कि आने वाले नए साल में इन फसलों से नए जीवन को नए सलीके से सजाया जाएगा लेकिन जीवन का गणित कई बार सोचकर भी अच्छा परिणाम नहीं देता है। बाबूजी बिस्तर पर सिमट गए हैं। बस यही सोचकर मेरी किसानी कथा ठहर सी जाती है। 

वैसे विगत छह -सात महीने में संबंधों के गणित को समझ चुका हूं इसलिए जीवन को लेकर नजरिया बदल चुका हूं। यह जान लेने का भरम पाल बैठा हूं कि पहाड़ियों के बीच बहती नदी पहाड़ी के लिए होती है, आम के पेड़ों में लगी मंजरियां आम के लिए होते हैं और गुलाब के पौधे पर उगे तीखे कांटे गुलाब के लिए होते हैं। यह लिखते हुए मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के आवारगी का एक साल याद आता है और मुखर्जीनगर इलाके का एक रेस्तरां, जहां एक शाम एक दोस्त से मुलाकात हुई थी, जिसने बड़े दार्शनिक अंदाज में कहा था- “जानते हो, लगातार गिरती और उठती पलकें आंखों के लिए होती है न कि दुनिया देखने के लिए....’” 

समय के गुजरने के साथ-साथ और किसानी करते हुए उस दोस्त का दर्शन थोड़ा बहुत समझने लगा हूं। किसानी करते हुए ही यह अहसास हुआ है कि हम लोग जिंदगी को लेकर इतने दार्शनिक अंदाज में बातें इसलिए करते हैं क्योंकि हम यह भरम पाल बैठते हैं कि हम जो जीवन जी रहे हैं वह आसान नहीं है। जबकि सत्य कुछ और है। दरअसल जीवन को जटिल हम खुद बनाते हैं, मकड़ी का जाल हम-आप ही उलझा रहे हैं। दिनकर की वह कविता याद आने लगी है, जिसमें वे कहते हैं- “आदमी भी क्या अनोखा जीव है, उलझने अपनी ही बनाकर, आप ही फंसता और बैचेन हो न जगता न सोता है .....”

इन सबके बीच ठंड का असर बढ़ता जा रहा है। सुबह देर तक कुहासे का असर दिखने लगा है। सबकुछ मेघ-मेघ–बादल-बादल सा लगने लगा है। बाबूजी यदि ठीक रहते तो कहते कि इस मौसम में आलू की किसानी करते वक्त सावधानी बरतनी चाहिए, फसल नष्ट होने की संभावना अधिक रहती है। किसानी करते हुए मुझे मेघ और मौसम से अजीब तरह का लगाव हो गया है। बादलों को समझने – बुझने लगा हूं। ब्रेन हैमरेज के बाद से बाबूजी को बिस्तर पर ही देख रहा हूं, शायद वो भी आंखें मूंदे खेत-खलिहान को ही देख रहे होंगे, ऐसा भरम मैं पाले बैठा हूं। इस आशा के साथ कि मेरा भरम टूटे नहीं....

Friday, October 10, 2014

स्मृति की पोथी और चाय की प्याली

आज की सुबह चाय पर लिखने का मन कर रहा है। चाय पर लंबी बकैती करने का जी कर रहा है। वही चाय,  जो मेरी सखी है और जिसने मुझे दार्जिलिंग से प्यार करना सीखाया। जी हां, मैं लप्चू चाय की बात कर रहा हूं। मेरी स्मृति की पोथी इस चाह के बिना अधूरी है।


आज यह पोस्ट तैयार करते हुए 'चाह' (चाय) के बहाने जाने कितनी यादें मन के अहाते में दाखिल हो रही है, मैं खुद अचंभित हूं। वो पूर्णिया से सटे कसबा नामक छोटा सा इलाका, जहां के एक अनुशासित होस्टल में मैंने ए बी सी के संग क ख ग सीखा था,वो भी कतार में शामिल दिखा। वहां सुबह सुबह सात बजे चाह पीने मिलता था, संग में दो ब्रेड। यह हमारे लिए भोरका नाश्ता होता था। 

चाय के साथ पहली यारी की दास्तां कसबा के
 राणी सती विद्यापीठ के मैस से शुरु होती है
, जहां हमने एकदम शुरुआती तालीम ली। मसलन शब्द से परिचय, गणित से परिचय, सबकुछ समय से करना..आदि-आदि। लेकिन आज याद केवल उस स्टील के ग्लास की आ रही है, जिसमें हमें राणी सती विद्यापीठ के मैस में चाय मिला करता था, लप्चू चाह। बांकि सारी यादें फुर्र हो चली है।
चाह धीऱे-धीरे जिंदगी की किताब के हर पन्ने में शामिल होती चली गई। चाय की कभी तलाश नहीं हुई, चाय हमेशा से अपनी तलाश मुझमें करती रही, मानो मैं उसका प्रथम पाठक हूं, जो कवि की हर रचना पढ़ता है, कथाकार की हर कथा को बांचता है।

खैर
, दार्जिलिंग की चाय हमारी चाहत की चाह रही है, इसके अलावा गोल दाने वाली चाय को जैसे हमने हमेशा दूसरी नजर से देखा। आप कह सकते हैं दार्जिलिंग की पत्ते वाली चाह या फिर वहां की कोई भी डस्ट, मेरी सखी हो और गोलदाने वाली चाय, ऐसी पड़ोसी, जिसके प्रति कभी आसक्ति का भाव नहीं उपजा। 

चाय के साथ ऐसी ही यादें आज सुबह बिस्तर पर लेटे लेटे कुलाचें मार रही थी। पूर्णिया का विकास बाजार और भट्टा बाजार मेरी याद में हमेशा से चांद की माफिक रहा है। बाजार को हमने बाजार की नजर से वहीं देखा था और समझा भी था। चुपके से साइकिल से आवारगी का क-ख-ग हमने अपने शहर के इन्हीं दो बाजारों में सीखा है। साइकिल के पॉयडल पर जोर कम और दिल पर अधिक भी हमने वहीं सीखा।
 

पूर्णिया के विकास बाजार में देबू का एक दुकान है -आनंद जनरल स्टोर
, जहां लप्चू पक्का मिल जाता है। वहीं भट्टा बाजार में कुछ दुकान हैं, जहां के शोकेस में लप्चू के रंग-बिरंग के चाह डिब्बे सजे रहते हैं। उजला, हरा, गुलाबी..मटमैला ..ये सभी रंग के डिब्बे में अपनी लप्चू आराम फरमाती है। 

दिल्ली विश्वविद्यालय
 में आवारगी के दौरान भी दार्जिलिंग की चाह संग बनी रही। घर से महीने के खर्च के लिए आने वाले ड्राफ्ट के साथ कुरियर में लप्चू चाह भी होता था। हम कह उठते थे- आहा! जिंदगी। और जब दिल्ली-कानपुर में नौकरी के प्रपंच में मंच सजा रहे थे तब भी लोप्चू सखी बनी रही , ऐसी सखी जो हर दौर में साथ निभाने के लिए कटिबद्ध है। चाय सूफी संगीत के माफिक खींचती रही है, कबीर वाणी की तरह सुबह से लेकर रात तलक दृष्टि देती रही है।

अब देखिए न, आज जब लोप्चू का नया पैकेट खुला तो यादें मुझे कहां-कहां ले जाने लगी। सचमुच यादें कमीनी होती है, जिंदगी के पहले होस्टल की यादों में मुझे चाय की सुध रही, बांकि को जैसे मैंने उड़ा दिया हो, जबकि यादें तो यादें होती है, वो कैसे उड़ेगी...।

वैसे लप्चू के बहाने मेरी स्मृति की डयोढ़ी कभी खाली नहीं होगी क्योंकि चाय की चाह हमेशा बनी रहेगी। और जिस दिन ऐसा नहीं होगा उस दिन तो हम यही कहेंगे-  

 
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए, चार कहार मिल  मोरी डोलिया सजावें, मोरा अपना बेगाना छुटो जाए, आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश, जे बाबुल घर आपना मैं पीया के देश... 

Sunday, October 27, 2013

मन से मन की बात

हुत दिनों से सोच रहा था कि किसी सुबह थमकर घंटों मन की बात सुनेंगे ठीक वैसे ही जैसे गुलजार को सुनते हैं और रेणु को पढते हैं। आज रविवार की सुबह हमने यूं ही मन की बात सुननी शुरु की।


पिछले एक साल से गाम-घर करते हुए हमने जाना कि खेत-पथार की तरह ही मन के किसी कोने में भी एक खेत तैयार हो चुका है। फसलों का चक्र खुद में समेटे मन का खेत उपजाऊ है, उसकी मिट्टी में सोंधी सी महक है, ठीक वैसी ही महक जो जुताई के बाद खेतों से आती है और अब उसकी खुश्बू से बौरा जाते हैं।

सितम्बर के बाद आलू की खेती के लिए जब जमीन की जुताई शुरु होती है तो दूर पहाड़ से चिड़ियों का दस्ता मैदान में उतर आता है, मन के खेत में भी ऐसा ही कुछ दिख रहा है। पहाड़ी मैना खेत की जुताई के बाद खेतों में लोट-पोट होकर कीड़े-मकोड़े-घास-फूस चुनती रहती हैं और उसकी चैं-चैं मन को मैदान से सीधे पहाड़ पहुंचा देता है।

मन की बात सुनते हुए पता चला कि मन भी चिड़ियों के माफिक उड़ता रहता है, या उड़ने की चाह रखता है। पहाड़ से मैदान तो मैदान से पहाड़। उड़ना भला किसे पसंद नहीं है। लेकिन मन को उड़ते छोड़ देना हर किसी के बस की बात नहीं है, हमारे लिए तो मन बस खेत है...।

खेत उपजाऊ रहे, ऐसा हर किसान चाहता है। किसानी करते हुए मन को सुनना भी किसान जानता है क्योंकि उसे पता है कि मौसम की तरह यदि मन भी बदलने लगेगा तो बात नहीं बन पाएगी , वैसे भी अब बिन-मौसम बारिश होने लगी है...किसान के हाथ से अब बहुत कुछ दूर होने लगा है। कहते हैं कि यह सब ग्लोबल वार्मिंग का असर है।  तो भी, किसान को मन पर भरोसा है और इसलिए वह मन की सुनता है।

गाम का छोटे मांझी कहता है कि किसान के मन में बारह महीने अनवरत खेती होती है, वह खेत खाता है, वह खेत सोचता है...उसकी दुनिया खेत है....किसान के मन में धान-गेंहू-मक्का का चक्र चलता रहता है और इन सबके बीच वह जीवन को उपजाऊ बनाने की भरसक कोशिश में जुटा रहता है।

मुझे मन को सुनने जैसा ही आनंद गाम के खेतिहरों को सुनकर मिलता है। उनकी बातों से मेहनत की महक आती है और सरसों के खेत की तरह प्यार उमड़ता है। इसी बीच मन के भीतर से कबीर की वाणी गूंज उठती है- कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर …” दरअसल किसानों  से किसानी की बात सुनते हुए मन निर्मल हो जाता है वैसे भी मन के भीतर इतना प्रपंच रच-बस जाता है कि हम कुछ देर के लिए खुद को तटस्थ देखने की कोशिश में जुट जाते हैं और ऐसे में गाम -घर की बातें मन को सुकून देती है।


वैसे मन की बात लिखते हुए बार-बार लगता है कि मन पंछी हो चला है, उसपर उड़ने की जिद सवार है लेकिन जिद को पता रहना चाहिए कि तेज और सफल  उड़ान भरने के लिए अच्छी संगत की भी जरुरत है। मन को सुनते हुए अक्सर कबीर की यह वाणी याद आती है- कबीरा तन पंछी भया, जहां मन तहां उड़ी जाई। जो जैसी संगती कर, तैसा ही फल पाई...............

Saturday, July 06, 2013

बांस-बारिश और ये किसानी- 2

जमीन से अजीब किस्म का लगाव होने लगा है। उसके गणित को समझने लगा हूं। खाता-खेसरा-रकवा जैसे शब्दों से अपनापा बढ़ गया है। ऐसे अवसरों पर कबीर की वाणी याद आती है तो लगता माया के फेर में फंस गया हूं।  माया मोहनी, जैसी मीठी खांड। खैर, एक बनते किसान की जो डायरी शुरु की थी आज हम उसी को आगे ब़ढ़ा रहे हैं।

हमारी अगली तैयारी जमीन के कुछ बड़े टुकड़ों पर बांस का साम्राज्य स्थापित करवाना है J दरअसल बाजार में जिस तेजी से बांस की मांग बढ़ी है उस हिसाब से अंचल में बांस के झुरमुट मौजूद नहीं हैं।

बारिश के इस मौसम में बंसबट्टी (बांस) में बांस के नए-नए उपले उग आए हैं। बांस के नवातुर गाछ के रंग मुझे बचपन से ही बहुत रहस्मय लगते हैं। आपको ऐसा हरापन कहीं नसीब नहीं होगा। साथ ही बंसबट्टी की माटी की गंध, आह जादू रे...।

कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं बंसबट्टी को लेकर। बचपन से सुनता आया हूं कि पूर्णिमा की रात कोई आती है
, उस बंसबट्टी में। सलेमपुर वाली काकी (श्यामलपुर से ब्याह कर आई एक महिला) हमें जब यह कहानी सुनाती थी तो डर से अधिक रोमांच हुआ करता था।
छह साल पहले सलेमपुर वाली काकी गुजर गईं। वह खूब बीड़ी पीती थी। हमारे एक चैन स्मोकर राजा चचा जब कामत पर आते थे, तो उनकी अधजली फेकी सिगरेट को सलेमपुर वाली बीछ कर पीती थी,  और कहती थी- एहन मजा ककरो में नै छै,  आई हम कुमार साहेब वला सिगलेट पीने छी..।“  

देखिए न यादें कैसी अजीब चीज होती है, बांस के बहाने सलेमपुर वाली काकी याद आ गई। खैर, अब किसानी की बात। बारिश के इस मौसम में हमने अपने उस खेत को बांस के लिए तैयार किया है जिसमें कल तक धान, गेंहू या मक्का उपजाया जाता था। बांस के बीट (जड़-मूल) को हमने तैयार कर लिया है और जल्द ही उसे खेत में लगा देंगे। तीन साल तक बांस को छोड़ देना है फिर हमारे हिस्से एक नकदी फसल आ जाएगी।

मुझे याद आ रहा है एक तपती दोपहरी, जब  बांस के झुरमुटों (जिसे यहां बंसबट्टी कहते हैं) में हमने कदम रखा था। ऐसा लगा मानो किसी वातानुकूलित (एसी) कमरे में हमने पांव रख लिया हो। ऐसी ताजगी कहां नसीब होती है। हमने उसी पल सोच लिया कि अंचल में बांस को और जगह दी जाएगी। देखिए न ये सब लिखते हुए मुझे करची कलम की भी याद आने लगी है। करची कलम की उत्पत्ति भी बांस से ही हुई है। पतला वाला बांस। यह भी बांस की एक प्रजाति है। 

बांस के पास ही बेंत की झाड़ी लगाई जाती है। बेंत की झाड़ी भी कम मायावी नहीं होती है। सूरज के ताप में जब हरे बेंत झुकते हैं तो ऐसा लगता मानो वो कुछ छुपा रही हो, ठीक उसी वक्त धूप से बचने खरगोश उसमें पनाह लेते हैं। हरे पर उजले का छाप बड़ा प्यारा लगता है। किसानी की यह कथा जारी रहेगी, हम अंचल में रहते हुए अपनी बात जारी रखेंगे। 

जारी....
पुनश्च:-  यह एक बनते किसान की डायरी है

Thursday, June 20, 2013

किसान की डायरी-1


कदंब के खेत :)
आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान...फणीश्वर नाथ रेणु ने जब यह लिखा था तब पूर्णिया जिले के किसान इन्हीं दोनों (पटसन और धान) फसलों पर आश्रित थे और खूब खुश भी थे। लेकिन धीरे-धीरे किसानी का प्रारुप बदलने लगा। नकदी फसल का खुमार किसानों के सिर चढ़कर बोलने लगा। आपका कथावाचक किसानी के इसी बदलते स्वरुप में अंचल में दाखिल होता है।

कथावाचक मक्का और धान के संग किसानी को व्यवसायिकता के चोले में ढालने की कोशिश करता है।दरअसल  यह एक बनते किसान की डायरी है जिसने महानगरी जीवन को देखा-भोगा है। खेती बारी से पहले उसका कोई वास्ता नहीं था लेकिन पिछले 12 महीने से वह खेत-खलिहान में सक्रिय है और इच्छा है कि यह 12 महीना चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ता ही जाए।

कथावाचक को अब कंप्यूटर की खिटिर-पिटिर की जगह ट्रैक्टर की आवाजों से प्यार हो गया है। आपका कथावाचक नकदी फसल के प्रारुप में भी बड़े स्तर पर बदलाव लाने की जुगत में है। जालंधर के अपने एक दोस्त सुखविंदर की सलाह से वह अंचल के परती खेतों में बाजार के लकड़ी (
woods) उपजा रहा है।

प्लाई-बोर्ड के बढ़ते बाजार को देखते हुए वह उन खेतों में कदंब के पौधे लगा रहा है जहां एक साल पहले तक जमकर धान, गेंहू  और मक्का उपजाया जाता था। केवल लकड़ी पर ही नहीं बल्कि नजर बांस पर भी है। अंचल में जब बांस से लोग मुंह मोड़ने लगे हैं तब आपका कथावाचक बांस से इश्क लड़ाने बैठा है। वह जोत की भूमि में बांस के झुरमुट लगा रहा है। बरसात का यह मौसम इसके लिए उपयुक्त है।

इन सबके बीच उसे 12 महीने पहले का चकमक जीवन भी याद आता है। सुबह नौ से शाम छह तक एसी कमरे में अपने सहकर्मियों के संग काटे कुल छह साल याद आते हैं। चाय-कॉफी के संग दुनिया जहान की बातें हम करते थे। लेकिन किसानी करते उसे जो अमुभव हो रहा है वह उन बतकही से कोसों दूर है। जमीन को लेकर संघर्ष जैसी बातों से जमीन पर पाला पड़ रहा है। कहने को तो यह नीम की तरह तीता है लेकिन...। खैर, इन मुद्दों पर बात होती रहेगी।

जारी....  

पुनश्च:-  यह एक बनते किसान की डायरी है, हम इस डायरी को जारी रखेंगे और अनुभव साझा करते रहेंगे।

Friday, March 08, 2013

परती-परिकथा- कथा अनंता


अंचल में रच-बस जाने के बाद आपका कथावाचक ग्राम्य- कथाओं के तार सुलझाने में लग गया है। कथा भी ऐसी, जो कभी खत्म ही न हो- परती-परिकथा-कथा अनंता….!

तो चलिए आज हम आपको अंचल की कथा में डुबकी लगवाते हैं। गाम के सबसे दक्षिण में मुसहर टोला है, जिसे सब मुसहरी कहते हैं। गाम में जो भी सबसे मेहनत वाला काम होता है न, वो इसी टोले के लोगों के हिस्से आता है।

खैर, सामाजिक ताने-बाने से कोसों दूर आज कथावाचक आपको इस
टोले के संगीत से रूबरू करना चाहेगा। आज पलटन ऋषिदेव के बेटी की शादी है। शादी-ब्याह का कार्यक्रम सांझ में है और भोर से दुपहरिया तक भगैत का कार्यक्रम। अंचल में भगैत की उपस्थति ठीक वैसे ही जैसे जीवन में प्रेम।

भगैत के दौरान मूलगैन (मुख्य-गायक) का आलाप कथावाचक को सबसे अधिक खींचता है। इस दौरान मुसहरी के नौजवानों की आंखों को पढ़ना भी जरुरी लगा। लोकप्रिय संगीत-गीत के दौर में भगैत की उपस्थिति से आप टोले के मन को समझ सकते हैं । इन नौजवानों के मन में अभी भी भगैत का स्थान सर्वोपरि है। इन लोगों की आंखों को देखकर कथावाचक को कबीर की वाणी याद आ गई-
अनुभव गावै सो गीता

भगैत के ठीक बाद नाच का कार्यक्रम है। शायद एक-आध घंटे के लिए। कोसी में कभी विदापत नाच हुआ करता था, जिसमें ढोलक की थाप और विकटा का पात्र इसी टोले का गबरु जवान हुआ करता था लेकिन वक्त के संग बहुत सारी चीजें बदलती है और इसी बदलाव की कड़ी में अंचल की सांस्कृतिक अध्याय में भी बदलाव दिखने लगा। लेकिन मुसहरी में विदापत नाच का कुछ अंश अभी भी जीवित है।

विद्यापति के राधा-कृष्ण के श्रृंगारिक गीतों को प्रस्तुत किया जाने वाला यह विदापत नाच कोसी की पौराणिक परंपरा की मिशाल है। 1960 में आकाशवाणी पटना द्वारा इसकी रिकार्डिग के लिये एक मंडली की स्थापना की गई थी, जिसके लिए कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु ने पहल की थी।

अब देखिए न, य़े सब लिखते हुए कथावाचक को ठिठर मंडल की याद आने लगी है।
 लोगबाग कहते हैं कि कोसी के इलाकों में विदापत नाच में हमेशा से कृष्णा की भूमिका निभाने वाले ठिठर का जलवा मंच पर देखते ही बनता था। 75 वर्ष की उम्र में भी मंच पर कृष्ण की भूमिका में उतरकर वे बांसुरी बजाते थे। अफसोस साल 2010 के फरवरी में ठिठर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

खैर, पलटन ऋषि के यहां विद्यापत नाच आधे घंटे ही चला लेकिन  इस दौरान ढोल-मृदंग-झाल की आवाजें कथावाचक को अपनी ओर खींचने लगी थी। अंचल की माया उसे अपने में लपेट चुकी थी। एक ओर विदापत नाच का संगीत उसे खींच रहा था वहीं दूसरी ओर कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में स्पीक मैके के सौजन्य से आयोजित एक कार्यक्रम में बनारस के पंडित छन्नू लाल मिश्रा की आवाज आज उसके कान में गूंज रही थी- माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....

ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज कानों में गूंज रही थी-
भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी

खैर इन सबके संग कथा भी चलती रहेगी, ठीक जीवन की तरह। कभी कभी लगता है क्या कोई कथा सचमुच में संपूर्ण हो पाती है? यह सवाल मायावी है, ज्ञानी-विद्वत जन इस पर राय देंगे। फिलहाल गाम से इतना ही, यह कहते हुए कि चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस...