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Friday, August 21, 2015

बारिश, धान और सरोद

सरोद वादन
पूर्णिया में आज सुबह से बारिश हो रही है। उधर, अखबारों के पन्नों में चुनाव और दलीय राजनीति की खबरें फैली हुई है। बिहार को विशेष पैकेज का गणित अखबारों के खबरों को अपने जाल में फंसाए हुए है। हर कोई इसी की बात कर रहा है।

वैसे मेरे लिए अभी खबर बारिश ही है। धान को बारिश की जरुरत थी। ऐसे में मूसलाधार बारिश ने धान के खेतों में कुछ असर दिखाया है हालांकि अब काफी देर हो चुकी है।


हम जैसे कई किसान हार मान चुके थे थे और खेत को छोड़ चुके थे। ऐसे में देर ही सही लेकिन बारिश की बूंदों ने कुछ काम किया है। वैसे हम जान रहे हैं कि फसल इस बार मन को हरा नहीं करेगा। ऐसे में मन का एक कोना निराशा के फेर में फंसा हुआ है।
ऐसे में मन को संगीत की तलब लगी है। संगीत वो भी केवल इन्सट्रूमेंटल। वाद्य यंत्र के माध्यम से निकलने वाली आवाज मन को हमेशा से राहत पहुंचाती आई है। ऐसे माहौल में पूर्णिया शहर में स्पिक मैके के एक कार्यक्रम में जाना हुआ। वो भी सरोद सुनने।

पंडित राजीब चक्रवर्ती के सरोद वादन से पहला परिचय हुआ। वैसे सच कहूं तो सरोद के प्रति अपना अनुराग आठ साल पुराना है। पहली बार दिल्ली के पुराने किले में इस वाद्य यंत्र से इश्क हुआ था। वो दिल्ली की सर्द शाम थी। हम कालेज के दोस्तों के संग वहां पहुंचे थे। शाम कब देर रात में बदल गयी पता भी नहीं चला।

तकरीबन 300 साल पुराना यह वाद्य यंत्र मुझे अपने करीब तब तक ला चुका था। हम अपने दोस्तों के संग उस सर्द रात पैदल ही आईटीओ पहुंच गए थे। सरोद मन में बज रहा था। बाद में आईटीओ पर देर रात एक ओटो मिला और हम कुहासे की उस रात गुनगुनाते अपने कमरे पहुंचे थे।

मुझे आज भी याद है, उस शाम उस्ताद अमजाद अली खां ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के लोकप्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ की रसपूर्ण प्रस्तुति के बाद राग दरबारी सुनया था। पत्रकारिता करते हुए बाद में  जाना कि यह खां साब का सबसे प्रिय राग है। राग से अनुराग की एबीसीडी वहीं से शुरु हुई थी शायद।

आज जाने कितने दिनों बाद पूर्णिया के विद्या विहार इंस्टिट्युट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में स्पिक मैके के कार्यक्रम में वो सबकुछ गुजरे दिनों की बातें याद आ रही है। पंडित राजीब चक्रवर्ती ने अपने सरोद वादन से मन मोह लिया। भैरव राग में उन्होंने हम सबको बांध लिया। तबले पर पिंटू दास ने भी हमें आकर्षित किया। लेकिन हमें तो सरोद अपनी ओर खींच रहा था।

संगीत कार्यक्रम के बाद पंडित राजीब चक्रवर्ती ने सवाल जवाब का कार्यक्रम रखा था, जो स्पिक मैके के कार्यक्रमों का नियम है। इंजीनियरिंग कॉलेज के बच्चों के साथ उनके सवाल जवाबों में भी हमें संगीत का संगत देखने को मिला।

बाहर खूब बारिश हो रही थी। मौसम में सर्द का थोड़ा अंश मुझे अनुभव हो रहा था। शायद दिल्ली के पुराने किले की याद का असर है यह। हम फिर बारिश में भिंगते घर लौट आए लेकिन मन में सरोद पर सुना राग मल्हार बजर रहा था...संगीत की ताकत यही है शायद।

Monday, January 24, 2011

मिले सुर मेरा तुम्हारा का चेहरा सदा के लिए सो गया...


अब कौन इस अंदाज में सुनाएगा...
कलाम के साथ पंडित जी.
दूरदर्शन का जमाना, ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और मिले सुर मेरा तुम्हारा। इन सबके साथ एक शख्स सफेद कपड़े में हाथ उठाए खास अंदाज में मिले सुर मेरा तुम्हारा.... गाते हुए आज भी यादों में सामने खड़ा हो जाता है। यह शख्स और कोई नहीं बल्कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान स्तंभ और किराना घराने के महत्वपूर्ण गायक भीमसेन जोशी थे। इस शख्स ने आज हम सबसे विदा ले लिया। भारत रत्न से नवाजे गए पंडित जी का सोमवार को पुणे के एक अस्पताल में निधन हो गया। वह 89 वर्ष के थे। उनके चिकित्सक अतुल जोशी ने बताया कि जोशी का निधन सुबह 8.05 बजे सहयाद्री अस्पताल में हुआ। पंडित भीमसेन जोशी और पंडित जसराज की गायिकी से खास लगाव रखने की वजह से उनसे व्यक्तिगत लगाव भी बढ़ता चला गया। आज जब पंडित जोशी जी के निधन की सूचना मिली तो आंखे नम हो गई। मिले सुर मेरा तुम्हारा से दोस्ती कराने वाले जोशी जी ने मेरी दोस्ती एचएमवी के एक कैसेट के बहाने हुई। मुझे याद है एक बार पूर्णिया से देवघर जाने का कार्यक्रम बना। पूर्णिया में अमित भाईजी ने देवघर में पिताजी के लिए एक कैसेट दी, कैसेट में और किसी की नहीं बल्कि पंडित जोशी की आवाज कैद थी, कैसेट के ऊपर पंडित जोशी जी की तस्वीर आज भी आंखों के सामने तैर रही है। 

जोशी कई बीमारियों से जूझ रहे थे और उन्हें किडनी से सम्बंधित बीमारियां भी थी। जोशी को 31 दिसम्बर को पुणे के सहयाद्री अस्पताल में भर्ती कराया गया था और उन्हें 25 दिनों तक गहन चिकित्सा कक्ष में जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा गया।  अतुल जोशी ने कहा, "शनिवार शाम को उनकी स्थिति और खराब हो गई। तमाम प्रयासों के बाद भी उनकी स्थिति खराब होती गई और सुबह 8.05 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। जोशी को वर्ष 2008 में देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। वह किराना घराने से ताल्लुक रखते थे। वह खय्याल गायकी और भजन के लिए प्रसिद्ध थे।
 
पंडित जोशी का जन्म कर्नाटक के गडक जिले के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले कन्नड़ परिवार में 4 फरवरी 1922 को हुआ था। उनके पिता गुरूराज जोशी एक स्कूल शिक्षक थे। 16 भाई बहनों में भीमसेन सबसे बड़े थे। जोशी की युवावस्था में उनकी मां का निधन हो गया था। जोशी का बड़ा पुत्र जयंत एक पेंटर है जबकि श्रीनिवास वोकलिस्ट और कंपोजर है। पंडित जी ने महज 19 साल की उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था और लगभग सात दशकों तक शास्त्रीय गायन किया।

पंडित जोशी 1943 में मुंबई आ गए थे और उन्होंने एक रेडियो आर्टिस्ट के रूप में काम किया। म्यूजिक कंपनी एचएमवी ने 22 वर्ष की उम्र में हिन्दी और कन्नड़ भाषा में उनका पहला एलबम रिलीज किया था। जोशी को मुख्य रूप से खयाल शैली और भजन के लिए जाना जाता है। पंडित जोशी को वर्ष 1999 में पद्मविभूषण, 1985 में पद्मभूषण और 1972 में पद्म श्री से भी सम्मानित किया गया था। जोशी का 1985 में आया मशहूर "मिले सुर मेरा तुम्हारा" गाना आज भी देशवासियों की जुबां पर है। जोशी ने कई बॉलीवुड फिल्मों के लिए भी गाने गाए। 1956 में आई बसंत बहार में उन्होंने मन्ना डे के साथ, 1973 में बीरबल माई ब्रदर में पंडित जसराज के साथ गायन किया। उन्होंने 1958 में आई फिल्म तानसेन और अनकही (1985) के लिए भी गाने गाए।

Monday, March 22, 2010

शहनाई खामोश नहीं हुई है दोस्त (सपने में बिस्मिल्ला खान से बातचीत)


सपने में बिस्मिल्ला खान से बातचीत

खां साब बेहद सुस्त नजर आ रहे थे। बनारस में अपने घर के बरामदे पर चुपचाप बैठे सामने की ओर देख रहे थे। उनके समीप बैठकर मैं भी चुपचाप उन्हें देखे जा रहा था। उनकी खामोशी टूटी, और कहा, जनाब, एक बात जानते हो, जिदंगी कुछ पलों के लिए ही अच्छी होती है, जब तक अच्छे, मतलब आगे रहो हर कोई याद करता है लेकिन चार कदम दूर हो जाने से सब भूल जाते हैं..। यही फलसफा है जिंदगी का..मुझको ही देखो जब तक रहा तो लोग कुछ न कुछ कहकर याद किया करते थे, लोग किताबें लिखा करते थे.....कुछ तो समारोह भी आयोजित कर देते थे..। जन्मदिन पर 21 मार्च (1916) पर लोग यहां आया करते थे...शुभकामनाएं देने...मैं भी शहनाई तान देता था....पर..अब..।


21 अगस्त 2006 को जब मैंने हमेशा के लिए आंखें मूंदी तो भी लोगों ने याद किया..सुबह के अखबारों में पहले पन्ने पर छपी थी -अब हमेशा के लिए शहनाई खामोश हो गई...

बरखुरदार, वक्त बितता चला गया....कह सकते हो वक्त का पहिया बड़ा ताकतवर होता है। 21 मार्च 2010 को किसी ने याद नही किया..मैं तुमसे शिकायत नहीं कर रहा हूं, क्योंकि कभी भी प्रचार का मुझे शौक नहीं रहा। यदि रहता तो मैं भी रजवाड़े की दुनिया के टूटने के बाद न्यूयार्क चला जाता और वहां शहनाई की धुन बिखेर कर डॉलरों कमाता..कभी भी यह सब अच्छा नहीं लगा..पर जीवित रहते जब तुम लोग मेरी बातों को लिखते थे, कोई किताब लिखता था तो काफी खुशी मिलती थी। यही वजह थी, कि मैं बनारस में अड्डा बनाए रखा..। क्या तुम्हें अब मेरी थोड़ी भी याद नहीं आती है...।

आंखे खुल गई, मैं बिस्तर पर चुपचाप बैठ गया..22 मार्च की सुबह....अन्य सुबह की तरह ही जिंदगी के लिए भागमभाग जारी..


(Ustad Bismillah Khan Sahib (Urdu: استاد بسم اللہ خان صاحب; March 21, 1916 – August 21, 2006)

(बज पर वीनित कुमार की टिप्पणी- हमें बिस्मिल्ला खां को इतनी जल्दी नहीं भूलना चाहिए था।..कहीं कोई मीडिया कवरेज नहीं। IPL तेजी से खबरों को ध्वस्त करता जा रहा है।..ऐसे होती है खबरों पर बादशाहत और ऐसे ही धीरे-धीरे होती है सरोकारी पत्रकारिता की हत्या।..)

Monday, March 08, 2010

यहां सिर्फ मरने के बाद ही सम्मान किया जाता है- उस्ताद अकील अहमद खान

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के आगरा घराने से ताल्लुक रखने वाले उस्ताद अकील अहमद खान इन दिनों बीमार हैं लेकिन वह बिल्कुल अकेले हैं। सरकार की उपेक्षा से बेजार इस संगीत दिग्गज का कहना है कि यहां सिर्फ मरने के बाद ही सम्मान किया जाता है। खान साहेब आगरा घराने के संस्थापक आफताब ए मुश्तकी उस्ताद फैय्याज अहमद खां के पौत्र हैं। तंगी की हालत से जूझ रहे खान साहेब सोने के 5 मेडल बेच चुके हैं।


तानसेन की विरासत से जुड़े और उस्ताद फैयाज खान के पौत्र अकील की उम्र 86 साल है। उन्होंने अपना करियर अभिनेता अशोक कुमार और नसीम बानो के साथ वर्ष 1940 के दशक में किया था। संगीत से जुड़े अपने करियर के दौरान उस्ताद अकील ने मशहूर फनकार मोहम्मद रफी के साथ गाया और गुलाम हुसैन जैसे दिग्गजों के साथ काम किया।


कला की इस अजीम विरासत को वर्षो से जीवंत रखने वाले उस्ताद वकील के पास आज सुनहरे दिनों की सिर्फ यादें भर हैं। सरकार की ओर से कभी उन्हें 2,000 रुपये प्रति महीने पेंशन के रूप में मिलते थे लेकिन वर्ष 2008 के बाद उन्हें यह भी नहीं मिला।

वह कहते हैं, "जिंदा रहने के लिए मेरे पास कोई वित्तीय मदद नहीं है।" उनका कहना है कि उन्हें अपनी जिंदगी के लिए अपने पांच स्वर्ण पदकों को भी बेचना पड़ा। कुछ महीने पहले ही उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई थी।

उस्ताद वकील ने कहा कि उनकी बेटी पेंशन के बारे में बात करने के लिए दिल्ली गईं थीं। उन्होंने भी सरकार से पेंशन बढ़ाने की मांग की लेकिन इसका कोई जवाब नहीं आया।

आईएएनएस

Tuesday, August 18, 2009

कथक को लोकप्रिय बनाने के लिए अब प्रायोजक नहीं मिल रहे हैं..




पद्म विभूषण से सम्मानित जानेमाने कथक गुरु पंडित बिरजू महाराज का कहना है कथक को लोकप्रिय बनाने के लिए अब प्रायोजक नहीं मिलते हैं। कथक को एक मुकाम तक पहुँचाने वाले लखनऊ घराने के इस कलाकार का शुरुआती दौर संघर्ष का रहा है। उन्होंने कहा कि जब इस कला को बढ़ावा देने के लिए प्रायोजक नहीं मिलते हैं तो उन्हें काफी दुख होता है।

महाराज ने कहा, "कथक के लिए प्रायोजक नहीं मिलने से मैं काफी चिंतित और दुखी हूं। दरअसल इस नृत्य को पेश करने वाले कार्यक्रम काफी महंगे होते हैं। अब काफी कम लोग प्रायोजक बनने के लिए सामने आते हैं। "

महाराज ने कहा कि अब फिल्मों में शास्त्रीय नृत्यों को काफी कम शामिल किया जा रहा है। उन्होंने कहा, "इन खबरों से मुझे दुख होता है। अब फिल्मकार भी अपने फिल्मों में कत्थक को शामिल करने से कतराते हैं। यदि मुड़कर देखें तो देवदास जैसी कुछ फिल्मों में ही कत्थक को शामिल किया गया था।"

महाराज ने फिल्मकार संजय लीला भंसाली की फिल्म 'देवदास' के एक गीत 'काहे छेड़े मोहे.' की कोरियोग्राफी की थी और संगीत भी दिया था।

वैसे 71 वर्षीय कथक गुरु इस बात से खुश हैं कि युवा पीढ़ी, खासकर बच्चे कथक नृत्य सीखने के प्रति रूचि दिखा रहे हैं। वह लगभग 250 बच्चों को कत्थक सीखा रहे हैं। उन्होंने कहा, "यह कथक के लिए अच्छा और सकारात्मक संकेत है। "

महाराज क जन्म लखनऊ के एक बड़े कथक घराने में हुआ था। उनके पिता अच्छन महाराज, चाचा शंभू महाराज का ख़ासा नाम था पर जब वह केवल नौ वर्ष के थे तो उनके पिता जी गुज़र गए। पिताजी के गुज़र जाने के बाद वे कर्ज़ में भी रहे और ग़रीबी का दौर भी झेला। उन्होंने एक बार बताय़ा था कि संकट के दिनों में समय उनकी गुरूबहन कपिला वात्स्यायन लखनऊ आईं और वह उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आईं।

दिल्ली में शुरुआत के दिन में भी उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। उन्होंने 175 रूपए की नौकरी मिली थी। महाराज ने जामा मस्ज़िद से रॉबिन हुड साइकिल खरीदी थी। वह साइकिल आज भी पास आज भी रखी है। एकबार बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि दिल्ली में उन दिनों पाँच और नौ नंबर की बसें चलती थीं, कनॉट प्लेस से दरियागंज के लिए।

महाराज ने कोलकाता से अपने सफलता के सफ़र की शुरुआत की और फिर मुंबई में काफ़ी आगे बढ़े। वह कोलकाता को अपनी माँ और मुंबई को अपना पिता कहते हैं। उन्होंन कहा कि आज जब वह मुड़कर देखते हैं तो उन्हें संतुष्टि मिलती है लेकिन जब कथक को कोई प्रायोजक नहीं मिलता है तो वह दुखी हो जाते हैं।

Saturday, May 02, 2009

बाहुबलियों की नहीं संगीत और साहित्य की भूमि है पूर्णिया

समय की तेज रफ्तार में बिहार के पूर्णिया जिले की तस्वीर भी बदलती जा रही है। महान उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की भूमि के लिए प्रसिद्ध पूर्णिया को लोग पप्पू यादव और न जाने कैसे-कैसे बाहुबलियों के लिए भी याद करते हैं लेकिन क्या आपको मालूम है कि रेणु की प्रसिद्धि देश-विदेश तक फैलने से पहले शास्त्रीय संगीत के लिए इस जिले को पहचाना जाता था..।

कभी यहां देश के दिग्गज संगीतकारों को जमावड़ा होता था और फिजा में ख्याल से लेकर ठुमरी घुली रहती थी। शास्त्रीय संगीत की नामचीन हस्तियां पूर्णिया शहर से कुछ ही दूरी पर स्थित चंपानगर के एक रजवाड़े में इकट्ठा होते थे। ताज्जुब की बात यह है कि रजवाड़े का ही एक सदस्य शास्त्रीय संगीत में ही रमा रहता था। वह शख्स थे राजकुमार श्यामानंद सिंह। शिकार, बिलियर्डस के शौकीन कुमार साहब हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समान पकड़ रखते थे। कृष्ण से जुडे गीतों को उन्होंने एक अलग अंदाज प्रस्तुत किया, जो अब काफी कम ही सुनने को मिलता है।

कुमार साहब के संगीत के बारे में यदि जानना है तो पंडित जसराज से पूछिए। एकबार उनके द्वारा गाए बंदिश को सुनने के बाद पंडित जसराज रो पड़े थे। जसराज ने कहा था- आह, मेरे पास भी ऐसा जादू होता। उन्हें अभी भी संगीत साधक द्वारिकानाथ शरण में तेरी..के लिए याद करते हैं। हाल ही में दिल्ली में भी उनके एक दीवाने से मुलाकात हुई थी। करीब 23 साल के इस युवा को मैंने खुद कुमार साहब की बंदिशों में डूबे देखा है।

कुमार साहब से जुड़ी एक कहानी है। जब जाकिर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे तो उन्होंने उनकी आवाज सुनी तो उन्होंने कहा कि कुमार साहब की आवाज में ईश्वर विराजते हैं। संगीत के प्रमुख घरानों में एक आगरा घराना से ताल्लुक रखने वाले कुमार साहब ने संगीत की विधिवत शिक्षा उस्ताद भीष्मदेव चटोपाद्याय से ली थी।

कुमार साहब ने सावर्जनिक स्थलों पर काफी कम कार्यक्रम पेश किया। जिसकारण उनके संगीत के बारे में लोगों को काफी कम जानाकरी है। ऑल इंडिया रेडियो के आर्काइव में उनके गाए गीत हैं लेकिन वो भी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं।

संगीत के इस महान अराधक के बारे में कई कहानियां आज भी सुनी जा सकती है। निजी जीवन में बेहद सख्त माने जाने वाले कुमार साहब संगीत के मामले उतने ही नरम थे।

अब बात पते की, पूर्णिया को पप्पू यादव के नाम से पहचाने वाले लोग इस जिले की नब्ज को पहचाने में भूल करते हैं। इसमें कहीं न कहीं पूर्णिया की भी कुछ गलतियां हैं, मसलन घर की मुर्गी दाल बराबर वाली कहावत। मीडिया भी इस इलाके को ठीक ढंग से पेश नहीं कर पाया है।

ऐसी बात नहीं है कि यहां केवल बंदूक की राजनीति ही हावी है। आज भी यहां कलात्मक कार्यों का बोलबाला है। शास्त्रीय संगीत, लोकसंगीत, मिथिला पेंटिंग, बांस और बेंत की सुंदर वस्तुएं जैसी तमाम कलाएं यहां अपने बल पर जीवित है लेकिन ये सभी चीजें लंबी और चमकदार लाल बत्तियों वाली गाड़ियों के काफिले में कहीं छूट सी जाती है।

शहर में शास्त्रीय संगीत की धमक का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बच्चों की एक बड़ी टोली यहां लगन से शास्त्रीय संगीत सीख रही है।

अंकुर इसका उदाहरण है। यहां आपको अंकुर जैसे कई बच्चे शास्त्रीय संगीत में रमे मिल जाएंगे लेकिन क्या ऐसे बच्चे राष्ट्रीय मंच तक पहुंच पाएंगे..संगीत घरानाओं के बड़े नामों और उनके शिष्यों के बीच क्या पूर्णिया के संगीत साधक अपनी जगह बना पाएंगे॥? इसके लिए संचार से लेकर अन्य सभी माध्यमों को आगे आने की जरूरत है। मैं इसे नैनो की तरह लखटकिया सवाल मानता हूं।

Monday, March 09, 2009

जसराज के साथ होली के खिलैया....अपने अंकुर के लिए

यह पोस्ट पंडित जसराज के करोड़ों दीवानों में एक ७ साल के अंकुर के लिए है। जिसके लिए जसराज केवल जसराज नहीं हैं, एक डिवाइन टच भी हैं। आपने यहां पहले भी अंकुर के बारे में पढ़ा है। आज उसके गुरु बाबा (पंडित जसराज) को होली के रंग में पढिए और रंग में डूब जाइए...नजीर अकबराबादी कहते हैं- " कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ घुँघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की ।"
गिरीन्द्र
जसराज से अपनी मुलाकात तीन बार हुई है, यहीं दिल्ली में। उनकी एक झलक से ही मुझे संतुष्टि मिलती है और खासकर जब वे बोलते हैं -जय हो। उनका यह अंदाज ही उन्हें सब से अलग बनाता है। शास्त्रीय संगीत के इस दिग्गज के लिए होली का पर्व कई मायनों में महत्वपूर्ण है। गत रविवार को राजस्थान पत्रिका पलट रहा था। उसमें डॉ. राजेश कुमार व्यास की एक रिपोर्ट पढ़ी- होली के खिलैया..............

रपट पढ़ने पर पता चला कि वे जय हो क्यों बोलते हैं। दरअसल उनके लिए इस शब्द के कई अर्थ है, उसमें एक है- कहिए, आपको क्या पूछना है। होली पर उनका कहना है कि होली खुशियों का त्योहार है। रंग -बिरंगी खुशियां लिए आता है। पूरे साल के लिए हमें अपने रंग में रंगा जाता है। हमारी होली की यादें इतनी है कि सुनाऊंगा तो न आपका मन सुनने से भरेगा और न हमारा मन कहने से भरेगा।

पंडितजी कहते हैं कि हमारे लिए होली सदा से ही शुभ रही है। अपने बेटे सारंगदेव के बारे में वे कहते हैं- बहू सरिता ..हमारी गृहलक्ष्मी होली को ही मिली हमसे। मजेदार ढंग से वे बताते जा रहे हैं- मुंबई में अपने निवास राजकमल पर हर वर्ष हम होली मनाते हैं। सरिता भी एक बार हमारे संग होली खेलने आई, हमने होली के दिन ही सारंगदेव के लिए उसे सदा के लिए अपनी बहूरानी बना लिया........तो दिया न हमें होली ने गृहलक्ष्मी।

पंडितजी होली की यादें कोलकाता से जोड़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि किसप्रकार वहां कला प्रेमी मुकुंद लाठ की पत्नी नीरजा लाठ के साथ उन्होंने होली खेली थी। उस बार नीरजा लाठ ने उनसे कहा था- छि कितने गंदे हैं आप। पंडित जी यादों में खोते बताते हैं कि मुकुंद लाठ की तब नई-नई शादी हुई थी, शादी के बाद की होली में वे भी कोलकाता में थे लाठ के यहां। होली खेलते हुए उन्होंने गाय का गोबर नीरजा के मुंह में लगा दिया तब उन्होंने कहा- पंडितजी , छि..आप कितने गंदे हैं.............

पंडितजी कहते हैं कि हरा, लाल, गुलाबी, सभी रंग ..एक दूसरे में मिलता है तो और भी खिलता है. तो उसका मजा कुछ और ही है। ये कहते हुए गाने लगते हैं - होली के खिलैया..होली के खिलैया.............।


पंडित जी को सुनने के बाद मेरा भी मन रंगने का करता है, खुद भी और आपको भी। और अब मेरा भी मन करता है आपको कुछ कहूं, सुनिएगा तो सुनिए...अरे --रे--पढिए मेरी नहीं है एनडीटीवी वाले रवीश कुमार की नई-नई कृति, मैं इसे द्विवेणी कहता हूं । जैसा कि आपने गुलजार को त्रिवेणी में पढ़ा होगा। तो गौर फरमाइए॥होली के मुड में-

चंपई हो जाओ या गुलाबी हो जाओ.
बड़े सादे हो तुम, कुछ रंगीन हो जाओ।

(रवीश कुमार की द्विवेणी, उनके फेसबुक से साभार)

Wednesday, January 21, 2009

शास्त्रीय संगीत और अंकुर


संगीत की तरफ रूझान हमेशा रहा लेकिन दुख हमेशा रहेगा कि शास्त्रीय संगीत के व्याकरण को कभी समझ नहीं सका, लेकिन जब कभी भी मौका मिलता है तो शास्त्रीय संगीत कार्यक्रमों में जरूर पहुंचता हूं। पंडित जसराज को सुनकर एक अजीब ही सुख मिलता है। रेणु के शब्दों में कहूं तो देहातीत सुख का अनुभव करता हूं और मन सा-रे-गा-मा.......के धुनों और न जाने कितने रागों में खो जाता है।

मुझे अभी एक छोटे बच्चे की याद आ रही है जो महज सात साल का है लेकिन रागों पर उसकी पकड़ देखकर हैरान हो जाता हूं। तानपुरा पर राग छेड़ते उसे देखने का नहीं बल्कि महसूस करने का मन करता है। पांच वर्ष की अवस्था से ही यह बच्चा शास्त्रीय संगीत में रचने-बसने लगा था।

बच्चे से खास लगाव के कारण कई हैं। मुझे इसका जन्म याद है। पूर्णिया में मेरे एक भाईजी हैं- अमित भाईजी। मैं जिस लड़के की बात कर रहा हूं, वह भाईजी का ही बेटा है। उसके जन्म के कुछ महीने बाद मैं और भाईजी उसे लेने दरभंगा गए थे। शायद 1999 या 2000 की बात कर रहा हूं। दरभंगा में नरगौना पैलेस है। दरभंगा महाराज की बड़ी-बड़ी हवेलियों का एक यह भी हिस्सा है, जो अब विश्वविद्यालय का हिस्सा है। इसी के कैंपस में कहीं भाईजी के ससुर रहा करते थे। उस वक्त वे विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अध्यक्ष हुआ करते थे।

हम दरभंगा पहुंचे, अपने भतीजे साहेब को लेने। तब मैं 12वीं में था। क्या पता था यह लड़का ऐसा नायाब निकलेगा जनाब। अंकुर नाम दिया गया बच्चे का। हमने उसे फर्श पर लेटते, घुलटते और फिर चलते देखा है और अब तानपुरा, तबला, हारमोनियम पर राग छेड़ते देखता हूं तो सच कहूं तो कुछ पलों के लिए खो जाता हूं। दरभंगा से पूर्णिया जाते समय हम नौगछिया के पास शायद खाने के लिए रूके थे। मुझे अभी भी याद है छोटा सा अंकुर भौजी की गोद में टूक-टूक हमें देख रहा था और आज जब वह ख्याल राग में बंदिशे गाता है तो मन के साथ तन भी पिघलने जैसे लगता है। (ख्याल, का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मुझे भी इसे सुनने में आनंद मिलता है।)

उम्र महज सात साल लेकिन कई रागों पर समान पकड़ देखकर कोई भी अचंभित हो सकता है। पहली बार शायद चार या पांच वर्ष की अवस्था में ही जनाब ने पहला स्टेज कार्यक्रम पेश किया था। मैंने उसे पहली बार स्टेज पर ही गाते देखा।
एक और कहानी जुड़ी है अंकुर के साथ। उसे कंप्यूटर के साथ-साथ पंडित जसराज से लगाव है। वह पंडित जी को बाबा कहता है (पता नहीं क्यों?)। उनसे बनारस में एक-दो दफे मिला भी है और उन्हें अपना जलवा भी दिखाया है। उसके कंप्यूटर के डेस्कटॉप पर आपको पंडित जी के तमाम गाने सुनने को मिल जाएंगे, वीडियो के साथ।

हम जब खबरों को लेकर काम करते हैं तो ऐसी बातों केवल महानगरों तक ही सीमित कर देते हैं।

मुझे याद है, दो वर्ष पूर्व राजधानी में एक कार्यक्रम के दौरान शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों का जमावड़ा हुआ था। दरअसल एक बडे़ तबला वादक के पोते की पहली स्टेज प्रस्तुति होने वाली थी। मैं इन बातों का विरोधी नहीं हूं, बस इच्छा यही रहती है कि अंकुर और न जाने ऐसे कितने होनहारों को हम प्रकाश में लाएं, जो महानगरों मे नहीं बल्कि पूर्णिया और अन्य शहरों में रह रहे हैं। शायद इससे तस्वीर जरूर बदलेगी और शास्त्रीय संगीत को तथाकथित छोटे शहरों में भी लोकप्रियता मिलेगी।

(छोटे शहर की उत्पति शायद महानगरों की डिक्शनरी से हुई है। इसके बारे में फिर कभी।)

Tuesday, May 06, 2008

सो गए महाराज, अब नहीं पड़ेगी तबले पर थाप

ऊं जैसी उपस्थिति से संगीत की महफिल लूट लेने वाले पंडित किशन महाराज विश्व पटल पर तबले को एक शानदार मुकाम और शोहरत दिलाने में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। सन 1923 में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन बाबा विश्वनाथ की जिस काशी नगरी में किशन महाराज जन्मे थे उसी काशी में 4मार्च,2008 को सोमवती अमावस्या के दिन वे और उनके तबले की थाप हमेशा के लिए खामोश हो गई।


तबले के कुल छ: घरानों में बनारस घराना सबसे युवा घराना है। पिछले सौ सालों के इतिहास में पंडित भैरव सहाय, उस्ताद आबिद हुसैन खान, उस्ताद अजीम खान, अहमद जान थिरकवा, पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल और पंडित शामता प्रसाद के बाद किशन महाराज संगीत के आकाश के सप्त-ऋषियों के बीच वशिष्ठ के रूप में माने जाते थे।

इन सभी महान तबला वादकों की फेहरिस्त में पंडित किशन महाराज सम्पूर्ण तबला वादक के रूप में उभर कर सामने आए। पिता पंडित हरि महाराज के निधन के बाद उनके धर्मपिता और ताऊ पंडित कंठे महाराज ने उन्हें गोद ले लिया। मात्र ग्यारह वर्ष की आयु से ही उन्होंने तबले पर थाप देना शुरू कर दिया था। बचपन से शुरू हुआ पंडित जी का तबले के साथ शास्त्रीय संगीत का सफर अंत समय तक अनवरत जारी रहा।

जानीमानी शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल कहती हैं,'महाराज जी एक सिद्ध पुरुष थे।' तबला वादक के रूप में पंडित किशन महाराज शास्त्रीय संगीत की दुनिया के बेताज बादशाह तो थे ही साथ ही उनकी रूचि अन्य चीजों में भी उतनी ही थी। घोड़े वाली बग्घी और टमटम की सवारी, निशानेबाजी और मृदंग जैसे शौक भी किशन महाराज के जीवन के अभिन्न अंग रहे। वयोवृद्ध शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी बताती हैं कि पंडित जी तबले के विद्वान तो थे ही साथ ही मूर्ति कला और चित्रकला में भी पारंगत थे।

किशन महाराज ने अपने जीवन काल में कई नामचीन कलाकारों जैसे पंडित रविशंकर, उस्ताद अमजद अली खान, वी।जी जोग, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के साथ न सिर्फ संगत की बल्कि भविष्य के उदीयमान कलाकारों के साथ भी संगत करके उनका उत्साहवर्धन किया। संगीत में योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री (1973), पद्म विभूषण (2002) और उस्ताद हाफिज अली खान अवार्ड (1986), संगीत नाटक अकादमी अवार्ड (1984) से नवाजा गया।पंडित जी के साथ संगत करने वाले कलाकार उनके सान्निध्य मात्र से ही अभिभूत रहते थे। उनके सान्निध्य को करीब से महसूस करने वाले प्रख्यात शास्त्रीय गायक राजन- साजन मिश्र कहते हैं कि उनका स्वतंत्र तबला वादक अलग-अलग अनुभूतियां दे जाता था,तो गायिका सोमा घोष का मानना है कि महाराज जी जैसी महारत वाला कोई तबला वादक दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता है।

Sunday, May 04, 2008

पं. किशन महाराज के लिए संगीतज्ञों ने किया दुग्धाभिषेक




वाराणसी- पद्म विभूषण तबला सम्राट पं। किशन महराज के जल्दी स्वस्थ होने की कामना से मृत्युंजय महादेव मन्दिर में शास्त्रीय संगीतकारों ने सवा मन गाय के दूध से दुग्धाभिषेक किया और सम्पूर्ण काशीवासियों की ओर से काशी के पारंपरिक हर हर महादेव के गगनभेदी नारों का उद्घोष किया।



गौरतलब है कि चार दिन पहले पंडित जी को हुई ब्रेन हेमरेज की शिकायत पर उन्हें एक निजी नर्सिंग होग में भर्ती कराया गया था। तब से उनकी हालत स्थिर बनी हुई है। उनकी देख रेख कर रही उनकी बेटी अंजलि ने बताया कि उनकी हालत स्थिर बनी हुई है। उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है, लेकिन वे अभी भी बेहोश ही हैं।


किशन महाराज का इलाज कर रहे डाक्टर के। पी। सिंह का कहना है कि पंडित जी को वेंटिलेटर से हटा दिया गया है, उनका रक्तचाप और हार्टबीट भी लगभग सामान्य ही है। लेकिन खतरा अभी भी टला नहीं है, क्योंकि उन्हें होश नहीं आ रहा है। डॉक्टरों की नजर उन पर बराबर बनी हुई है।


वैसे भी वाराणसी के पूरे संगीत जगत में उदासी छाई हुई है। दुग्धाभिषेक के बाद शास्त्रीय गायक छन्नू लाल मिश्रा ने रुं धे स्वरों में बताया कि किशन महाराज बिस्मिल्ला खां के बाद बनारस के आखिरी स्तंभ माने जाते थे। राजेश्वर आचार्य ने तो यहां तक कह दिया कि किशन महाराज को बनारस का संरक्षक माना जाता था, इसलिए समस्त काशीवासी उनके जल्दी स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं।



Saturday, December 22, 2007

शास्त्रीय संगीत असली सोना है,आर्टिफिशयल चीज नहीं है- पंडित जसराज


शास्त्रीय संगीत असली सोना है,आर्टिफिशयल चीज नहीं है- पंडित जसराज


हरियाणा के पीली मंदोरी जैसे छोटे से गांव में इनका जन्म हुआ, अपनी महानता को कभी भी इस शख्स ने उजागार नहीं किया। विश्व इनकी आवाज और भजनके ताल पर झूमता नजर आता है। आपका स्वागत है संगीत सम्राट पंडित जसराजकीभक्ति के क्लासिकल दुनिया में। "जय हो" करिश्माई सम्मोहक अंदाज से मन कोमोहने वाले जसराज बनारस से लेकर न्यूयार्क तक शास्त्रीय संगीतकोपहुंचानेका काम कर रहे हैं। शास्त्रीय संगीत को लेकर उनके विचार दिल कोछू जाते हैं...........


1। जमाना बदल गया है। हर चीज की मार्केटिंग हो रही है, इसमें शास्त्रीयसंगीत कहां है?


- हम शास्त्रीय संगीत की मार्केटिंग नहीं करते हैं। और न हीं मुंहमियों मिट्ठू बनते हैं। एक दो अख़बार हीं शास्त्रीय संगीत पर छोटे-मोटेलेख ठापते हैं। लोग आज नकली चीजों में ज्यादा रूचि ले रहे हैं।


2। आख़िर इसमें रूचि लेने का नुस्खा क्या है?


- शास्त्रीय संगीत सोना है, कोई आर्टिफिशयल चीज नहीं है। इससे प्यारकरना होता है। इसमें डूबना होता है और जो इससे प्यार करता है, वह इसी मेंरच बस जाता है। एक दौर में कव्वाली, भजन सिर चढ़ कर बोल रहे थे, आज कुछऔर बोल रहा है। लेकिन इन सब में क्लासिकल संगीत अपनी सतत धारा में एक गतिसे चल रही है।


3। कहा जाता है कि शास्त्रीय संगीत के लिए यदि मंच चाहिए तो विदेश की ओररूख करें, इस संबंध में आपका क्या कहना है?


- विदेशों में 25-30 साल पहले की तुलना में आज बहुत बदलाव आए हैं। वहांके लोग भी अब कहने लगे हैं कि असली संगीत भी बस यही है...। वहां से वापसआने वाली हर चीज के भाव यहां पर बढ़ जाते हैं। कोई विदेश से आता है तोउसकी बढ़ियां खातिरदारी होती है, शास्त्रीय संगीत के साथ भी यही हो रहाहै।


4। अपनी लंबी विदेश यात्रा के दौरान आप संगीत वाद्य यत्रों के अलावा औरक्या रखते हैं?


- पोर्टेबल सीडी प्लेयर। मेरी बेटी दुर्गा ने दिया है। हिन्दी फिल्मेंमुझे बेहद पसंद है। अपनी लंबी यात्रा में फिल्में देखता हूं।


5। शाश्त्रीय संगीत को घर-घर तक पहुंचाने में आपकी नजर में कौन सहायक हो सकता है?


- इसके लिए सभी को आगे बढ़ना होगा, मीडिया को भी इसके लिए कदम उठाने होंगे।


6। युवा क्लासिकल संगीतज्ञों का भविष्य आप क्या देख रहे है?- युवाओं का ब्रिगेड तैयार है, सभी का भविष्य उज्जवल है।


7। शास्त्रीय संगीत को आप किस प्रकार परिभाषित करेगें?


- संगीत को परिभाषित करना मेरे बस की बात नहीं है। यह तो रूह की चीज है।इसके लिए बस रियाज की जरूरत है॥।
8- अंत में अपने संगीत प्रेमियो को आप क्या कहेगे?
- रियाज़ करें और संगीत को सुनें.............. (अपने करिश्माई अंदाज मेंहाथ उठाकर – "जय हो" )