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Monday, January 24, 2022

एक अधूरा सपना: सपने में रेणु से गुफ्तगू!


इन दिनों जब अपने मन के सुख के लिए  लिखना लगभग छूट गया है कि तभी अचानक सामने मुस्कुराते हुए रेणु आ जाते हैं। एक हाथ में काले रंग की प्यारी डायरी है तो दूसरे में छड़ी!


कमरे में आते ही बोलते हैं- "शिकायत है कि लिखते नहीं हो, जबकि मुझे पता है कि फील्ड नोट्स का खाता- खतियान जमा किये हुए हो! अरे लिखो भाई, गाम घर, शहर कस्बा की बातों को जगह दो। " फिर वे धप्प से सोफे पे बैठ गए। डायरी को टेबल पर रख दिया और छड़ी को दरवाजे के सहारे छोड़ दिया।

कुछ देर के लिए उन्होंने आँखों को मूंद लिया। ओह! क्या रूप था वो, अपरूप! फिर अचानक वे बोल उठते हैं- औराही गए थे क्या? जवाब में मैंने कहा- "दो बरख हो गए, इतना उलझा रहा कि रानीगंज से आगे निकला ही नहीं बाबा! "

रेणु ने फिर चुप्पी साध ली। वे अपनी हथेली को देखने लगे और बोल उठे - " हथेली पढ़ने की कला सबके बस की बात नहीं। तुम्हारी अलमारी में नागार्जुन की सभी किताबें हैं, देखकर आत्म सुख मिल रहा है, आँख को भी और मन को भी। मैं उनका कर्जदार हूँ। मेरे खेतों में उन्होंने रोपनी की थी, वे असल यात्री थे। अब जब अपनी दुनिया में हम मिलते हैं तो लोक परलोक की बात करते हैं..." यह कहते हुए रेणु हँसने लगे।

टेबल पर रखी डायरी को पलटते हुए रेणु कहते हैं, " चाय नहीं पिलाओगे? और हाँ,घर में नबका चावल है क्या? दरअसल नबका चावल का खिचड़ी खाये बहुत दिन हो गए। " मैंने तुरंत हामी भरी।

तबतक चाय आ चुकी थी, रेणु के हाथ में चाय की प्याली भी इतरा रही थी। वे फिर लिखने की बात करने लगे। उन्होंने कहा- " फसल और गाँव की राजनीति, इन दोनों पर बात करने वाले लोगों को मैं हमेशा ढूंढता रहता हूँ। जिस तरह गुलाब का पौधा होता है न, ठीक उसी तरह के लोग होते हैं, जो फसल और गाम घर की राजनीति की बात समझते हैं और इस मुद्दे पर बतियाते हैं। गुलाब फूल को सब छूना चाहता है लेकिन उसके पौधे को कांटे की वजह से कोई छूना नहीं चाहता। धरती की बातें करने वाले लोगों को लेकर भी मेरी यही राय रही है। उसकी बातों को तो लोगबाग सुन लेंगे लेकिन उसे बर्दाशत नहीं करेंगे लंबे वक्त तक और आगे चलकर वही भिम्मल मामा बन जाता है, जिसे तुमलोग पागल करार देते हो। "

रेणु आज फसलों की दुनिया में फिर से डूबने की चाहत में थे।  वह कहने लगे, " क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे जिला में पहले धान का नाम बहुत ही प्यारा हुआ करता था, मसलन 'पंकज' 'मनसुरी', 'जया', 'चंदन', 'नाज़िर', 'पंझारी', 'बल्लम', 'रामदुलारी', 'पाखर', 'बिरनफूल' , 'सुज़ाता', 'कनकजीर' , 'कलमदान' , 'श्याम-जीर', 'विष्णुभोग' । समय के साथ हाइब्रीड ने किसानी की दुनिया बदल दी। "

मैं बस उनको सुनना चाहता था, चुपचाप। उनकी बातों को सुनते हुए देहातीत सुख का आभास होता है। लेकिन रेणु ने जब धान की बात छेड़ दी  तो मन में कई गीत गूंजने लगे, जो अब खेत में सुनाई नहीं देते हैं। सुख की तलाश हम फसल की तैयारी में ही करते हैं। एक गीत पहले सुनते थे, जिसके बोल कुछ इस तरह हैं -
"सब दुख आब भागत, कटि गेल धान हो बाबा..."

हम खेती किसानी दुनिया के लोग अन्न की पूजा करते हैं। धान की जब भी बात होती है तो जापान का जिक्र जरूर करता हूं। जापान के ग्रामीण इलाक़ों में धान-देवता इनारी का मंदिर होता ही है। रेणु को मैंने आज बातों ही बातों में जापान के एक देवता की कहानी सुना दी।

जापान में एक और देवता हैं, जिनका नाम है- जीजो। जीजो के पांव हमेशा कीचड़ में सने रहते हैं। कहते हैं कि एक बार जीजो का एक भक्त बीमार पड़ गया, भगवान अपने भक्तों का खूब ध्यान रखते थे। उसके खेत में जीजो देवता रात भर काम करते रहे तभी से उनके पांव कीचड़ में सने रहने लगे।

मेरी इस बात को सुनकर रेणु मुस्कुराने लगे और बोल उठे- खिचड़ी खिलाओगे! हम सब उन्हें डाइनिंग टेबल के पास ले जाते हैं। वे चाव से अन्न ग्रहण करते हैं। भोजन के बाद वह अचानक अलग रंग में आ जाते हैं, और कहते हैं, " कभी कभी लगता है क्या जीवन में कोई कथा संपूर्ण होती है..। इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है। एक दिन किसी से बात हो रही थी तो उसके भीतर का भय मुझे सामने दिखने लगा। वह भय मौत को लेकर थी। मौत शायद सबसे बड़ी पहेली है, हम-सब उस पहेली के मोहरे हैं। "

ओह! मेरी नींद टूट जाती है। सपना अधूरा रह जाता है, रेणु से गुफ्तगू बांकी ही रह जाती है। अक्सर जब तबियत बिगड़ती है, बुखार उतरता- चढ़ता है, रेणु सपने में आ ही जाते हैं।

सुबह में इस मौसम के फूल पर और दूब व पत्तियों पे पानी ठहरा रहता है। मुझे इन ठहरे पानी से बहुत लगाव  है। दूब-मेरा सबसे प्रिय, जिसे देखकर, जिसे स्पर्श कर मेरा मन, मेरा तन हरा हो जाता है। गाम में हर सुबह इसकी सुंदरता देखने लायक होती है। ओस की बूंद जब दूब पर टिकी दिखती है तो लगता है यही जीवन है, जहाँ हरियाली अपने ऊपर पानी को ठहरने का मौक़ा देती है। 

दरअसल इस उग्र बनते समाज में हम कहाँ किसी को अपने ऊपर चढ़ते देख पाते हैं। ऐसे में कभी दूब को देखिएगा, गाछ की पत्तियों को देखिएगा, वृक्षों में बने घोंसले को देखिएगा और हाँ, अपने प्रिय लेखकों से सपने में गुफ्तगू कीजियेगा। 

Tuesday, May 03, 2016

रेणु के गाँव में मूंगफली

खेती -बाड़ी करते हुए अक्सर अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के गाँव आना - जाना लगा रहता है। वहाँ जाना मेरे लिए हमेशा से सुखद रहा है। हर बार वहाँ से लौटकर कुछ नया 'मन' में लाता आया हूं। पिछले शनिवार की बात है, राजकमल प्रकाशन समूह के सम्पादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम चनका आए थे, दिन भर के लिए।  उन्हीं के संग रेणु के 'गाम-घर' जाना हुआ।

किताबों और लेखकों के दुनिया में रमे रहने वाले निरूपम भाई से जब गाँव में मुलाक़ात हुई तो उनका एक अलग ही मन पढ़ने को मिला। उनके भीतर किसान का मन भी है, यह मुझे अबतक पता नहीं था। रेणु का लिखा पढ़ता हूं तो पता चलता है कि वे अक्सर किताबों की दुनिया में रमे रहने वालों को अपने खेतों में घुमाते थे। उन्होंने एक संस्मरण  लिखा है- "कई बार चाहा कि, त्रिलोचन से पूछूँ- आप कभी पूर्णिया जिला की ओर किसी भी हैसियत से, किसी कबिराहा-मठ पर गये हैं? किन्तु पूछकर इस भरम को दूर नहीं करना चाहता हूं। इसलिए, जब त्रिलोचन से मिलता हूं, हाथ जोड़कर, मन ही मन कहता हूं- "सा-हे-ब ! बं-द-गी !!"

सच कहिए तो इस किसान की भी इच्छा रहती है कि कोई गाम आए तो उसे पहले खेतों में घुमाया जाए। उस व्यक्ति से कुछ सीखा जाए। कबीर की वाणी है-'अनुभव गावे सो गीता'।

ख़ैर, प्रचंड गरमी में निरूपम भाई चनका के मक्का के खेतों में टहलते हुए थके नहीं बल्कि मुझे समझाने लगे कि मक्का के अलावा और क्या क्या हो सकता है। कोसी का इलाक़ा जिसे मक्का  का 'हब' कहा जाता है वहाँ का किसानी समाज अब फ़सल चक्र को छोड़ने लगा है, मतलब दाल आदि की अब खेती नहीं के बराबर होती है, ऐसे में एक ही फ़सल पर सब आश्रित हो चुके हैं। हालाँकि मक्का से नक़द आता है लेकिन माटी ख़राब होती जा रही है। इस बात को लेकर निरूपम भाई चिंतित नज़र आए।

तय कार्यक्रम के मुताबिक़ मैं और चिन्मयानन्द उन्हें लेकर रेणु के गाँव औराही हिंगना निकल पड़े। रास्ते भर सड़क के दोनों किनारे खेतों में केवल मक्का ही दिखा। रेणु के घर के समीप एक खेत दिखा, जिसे देखकर लगा मानो किसी ने हरी चादर बिछा दी हो खेत में। मेरे मन में रेणु बजने लगे- ' आवरन देवे पटुआ , पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैया रहे चदरवा तान' ! मेरे मन में रेणु बज ही रहे थे कि निरूपम भाई ने कहा ' यह जो आप देख रहे हैं न , मैं खेती की इसी शैली की बात करना चाहता हूं'।  अब तक परेशान दिख रहे निरूपम भाई के चेहरे की रौनक़ लौट आई। दरअसल खेत में मूँगफली की फ़सल थी, एकदम हरे चादर के माफ़िक़। साठ के दशक में रेणु की लिखी एक बात याद आ गयी जिसमें वे धान के अलावा गेहूँ की खेती कहानी के अन्दाज़  सुनाते हैं। बाबूजी कहते थे कि रेणु गेहूँ के खेत को पेंटिंग की तरह शब्दों में ढ़ालकर हम सभी के मन में बस गए।

दरअसल खेती को लेकर निरूपम भाई की चिंता को सार्वजनिक करने की ज़रूरत है क्योंकि यदि अलग ढंग से खेती करनी है तो हम किसानी समुदाय के लोगों को सामान्य किसानी से हट कर बहुफसली, नकदी और स्थायी फसलों के चक्र को अपनाना होगा। सच कहिए तो निरूपम भाई के आने की वजह से रेणु के गाँव में मूँगफली की खेती देखकर मन मज़बूत हुआ कुछ अलग करने के लिए।

ग़ौरतलब है कि तिलहन फसलों में मूँगफली का मुख्य स्थान है । इसे जहाँ तिलहन फसलों का राजा कहा जाता है वहीं इसे गरीबों के बादाम की संज्ञा भी दी गई है। इसके दाने में लगभग 45-55 प्रतिशत तेल(वसा) पाया जाता है जिसका उपयोग खाद्य पदार्थो के रूप में किया जाता है। इसके तेल में लगभग 82 प्रतिशत तरल, चिकनाई वाले ओलिक तथा लिनोलिइक अम्ल पाये जाते हैं। तेल का उपयोग मुख्य रूप से वानस्पतिक घी व साबुन बनाने में किया जाता है। इसके अलावा मूँगफली के तेल का उपयोग क्रीम आदि के निर्माण में किया जाता है।

पहले कभी इस इलाक़े में रेत वाली मिट्टी में मूँगफली उगाया जाता था। फिर सूरजमुखी की तरफ़ किसान मुड़े लेकिन फिर अचानक नब्बे के दशक में किसानों ने पटसन और इन सभी फ़सलों को एक तरफ़ रखकर मक्का को गले लगा लिया लेकिन अब चेत जाने का वक़्त आ गया है। बहुफ़सलों की तरफ़ हमें मुड़ना  होगा। पारम्परिक खेती के साथ साथ हम किसानी कर रहे लोगों को अब रिस्क उठाना होगा। खेतों के लिए नया गढ़ना होगा। कुल मिलाकर देश भर में हर किसान की एक ही तकलीफ है, वह नक़द के लिए भाग रहा है। घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। सरकारें किसानों के लिए कई ऐलान करने में जुटी हैं, लेकिन साफ है, जमीन पर बड़े बदलाव नहीं हो रहे हैं। आइये हम सब मिलकर बदलाव करते हैं, कुछ अलग किसानी की दुनिया में भी करते हैं।

( प्रभात ख़बर के कुछ अलग स्तंभ में प्रकाशित- 3 मई 2016)

Wednesday, September 23, 2015

रेणु ने मांगे थे नाव पर वोट व पाव भर चावल

बिहार में इस वक्त चुनाव की बहार है। राजनितिक दलों में टिकट का बंटवारा लगभग हो चुका है। जिन्हें टिकट मिला वे खुश हैं और जिन्हें नही मिला वे  आगे की रणनीति में जुटे हैं। राजनीति तो यही है, आज से नहीं हजारों बरसों से।

खैर, बिहार में मौसम भी गरम था लेकिन पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है । शायद टिकट बंटवारा का असर हो :)  मौसम बदलते ही आपके किसान को साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन करने लगा। आप सोचिएगा कहां राजनीति और कहां साहित्य। दरअसल हम इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं।

रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था। उनका चुनाव चिन्ह नाव था , हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी लेकिन चुनाव के जरिए उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया। मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे।
रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था।

इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधत्व  अभी तक उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर रहे हैं। हालांकि इस बार भारतीय जनता पार्टी ने उनका टिकट काटकर मंचन केशरी को टिकट दिया है। रेणु के बेटे ने इस सम्बन्ध में फेसबुक पर सवाल भी उठाये हैं। उनके सवाल बहुत लोगों के लिए जायज भी हो सकते हैं। हालांकि राजनीति में जायज और नाजायज में कितना अंतर होता है ये हम सब जानते हैं।

अब चलिए हम 2015 से 1972 में लौटते हैं। उस वक्त फणीश्वर नाथ रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था। 31 जनवरी 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए। 
रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था।

उन्होंने खुद लिखा है-  " मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुझे पाव भर चावल और एक वोट दें। मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां,दोहों का उद्धरण दूंगा। कबीर को उद्धरित करुंगां, अमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगा, गालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करुंगा और लोगों को समझाउंगा। यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पनंत और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-
दूध, दूध  ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अज्ञेय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पन्त
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय

72 के चुनाव के जरिए रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे। उन्होंने कहा था-  “मुझे उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जाएगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है।”

चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरुरी है। उन्होंने कहा था- “लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूं। समाज और तंत्र में आई इन विकृतियों से लड़ना चाहिए।”

रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था। अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा..उनका नारा था- 
" कह दो गांव-गांव में, अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव में, नाव मे, नाव में।।
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....
मोहर दीजै नाव पर, चावल दीजै पाव भर....

राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे। राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किए जाने पर वे चिन्तित थे। वे कहते थे- ' धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते , मगर ये समस्याएं उठाएंगे किसानों की ! समस्या उठाएंगे मजदूरों की ! "

गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रियता काफी पहले से थी। साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।

(
प्रभात खबर में प्रकाशित 23 सितंबर 2015)

Friday, July 10, 2015

रेणु सिनेमा के पास नहीं गये, सिनेमा उनके पास आया : बासु भट्टाचार्य

सिनेमा में प्रवेश करने की इच्छा बड़े बड़े लेखकों की रही है। लेकिन रेणु के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बात यह है कि वह खुद सिनेमा में नहीं आये , स्वयं सिनेमा उनके पास आया।

उनकी कहानी तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम मोहन राकेश द्वारा सम्पादित "पांच लंबी कहानियाँ" में छपी थी। मेरे एक दोस्त ने उनका अनुवाद बंगला में करने की सलाह दी।

तब मुझे विमल राय प्रोडक्शन छोड़े थोड़े ही दिन हुए थे और मैं स्वतंत्र रूप से कोई बहुत महत्वपूर्ण कहानी लेकर फ़िल्म बनाना चाह रहा था। मेरे दिमाग मवन शरत बाबू की कहानी 'अभागिन स्वर' बैठी हुई थी जिस पर गंभीरता से फ़िल्म बनाने की सोच रहा था।

मारे गए गुलफाम पढकर इरादा बदल दिया और तय किया कि पहले इसी पर जोर आजमऊं। मैं शैलेन्द्र के पास गया कि मेरे पास एक कहानी है जिस पर फ़िल्म बनाने के लिए पैसा दीजिये। शैलेन्द्र ने खुद कहानी पढ़ने की इच्छा जताई और कहा कि पसंद आ गयी तो मैं पैसा दूंगा। शैलेन्द्र को लगा कि मैं कोई क्लिष्ट विषय के चक्कर में पड़ गया हूँ। इसलिए उन्होंने अपने सामने मुझसे कहानी सुनी। मैंने कहानी पर आधारित फ़िल्म की पूरी क्राफ्ट जो दिमाग में बना ली थी, उन्हें सुना दी।

शैलेन्द्र राजी हो गए और तीसरी कसम को परदे पर लाने का निर्णय पक्का हो गया। तब तक मैं रेणु को व्यक्तिगत रूप से जानता नहीं  था। लेकिन जब मिला तो लगा कि इस आदमी को बहुत पहले से जानता हूँ।

मैं वी.टी. स्टेशन पर उन्हें लेने गया। रेणु ट्रेन से उतरे तो मुझे देखते ही बंगला में बोले-"नमोस्कर बासु बाबू" । मैं चौंक गया और पुछा कि उन्होंने मुझे कैसे पहचाना, तो रेणु ने जवाब दिया-" मैंने आपको सपने में देखा था ...एक बंगाली बाबू धोती कुरता पहने.....।

सोचता हूँ तो उस दिन स्टेशन पर मैं कोई अकेला थोड़े था धोती कुरता पहने...

दरअसल रेणु एक विलक्षण व्यक्तित्व था। वह एक साथ टैगोर और शरत था। एक साथ आस्तिक और नास्तिक था। और हां,शिव की तरह एक साथ अच्छा और बुरा था

(रेणु संस्मरण और श्रद्धांजलि से। 1978)

Saturday, April 18, 2015

रेणु की दुनिया- जिसके बिना हम अधूरे हैं...

साहित्य की तकरीबन सभी विधाओं में बराबर कलम चलाने वाले रेणु 11 अप्रैल 1977 को अनंत की ओर कूच कर गए थे। वे भले ही 38 वर्ष पहले हमसे दूर चले गए लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वे आज भी हमारे लिए जीवंत हैं।

 दरअसल रेणु पैदाइशी किसान थे। उनके रग रग में किसानी का रंग था। फसलों की दुनिया की तरह वे साहित्य की दुनिया रचते थे
, एक जीवठ किसान की तरह। कहानी उनके जीवन के रेशे-रेशे में थी और जितनी दफे उनकी कहानियां बाहर आती थी उतनी ही तेजी से नई कहानियां उनके भीतर समा जाया करती थी। दरअसल उन्हें पाठकों का मन पढ़ने आता था क्योंकि उनके भीतर जो लेखक था वह मूल रुप से एक किसान था।

रेणु की दुनिया हमें ऐसे रागों
, रंगों, जीवन की सच्चाई से जोड़ती हैं जिसके बिना हमारे लिए यह दुनिया ही अधूरी है। अधूरे हम रह जाते हैं, अधूरे हमारे ख्वाब रह जाते हैं। रेणु की दुनिया में जहां प्रशांत है तो वहीं जित्तन भी है। ठीक गुलजार के चांद की तरह।

परती परिकथा का जित्तन ट्रैक्टर से परती तोड़ता है
,  रेणु असल जिंदगी में कलम से जमीन की सख्ती तोड़ते हैं। प्राणपुर में जित्तन परती को अपऩे कैमरे की कीमती आंखों से देख रहा है। किसान के पास इतनी कीमती आंख तो नहीं है पर उसकी अपनी ही आंख काफी कुछ देख लेती है। यह किसान और कोई नहीं अपने रेणु ही हैं।

रेणु की जड़े दूर तक गांव की जिंदगी में पैठी हुई है। ठीक आंगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह। वे कभी-कभी शहर में भी हमें गांवों का आभास करा देते हैं। उनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है।
रेणु रोज की आपाधापी के छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरो, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे, ठीक उसी समय वे हमें सहज और आत्मीय लगने लगते हैं।

 रेणु जैसे महत्वपूर्ण कथाशिल्पी का पत्रकार होना अपने आप में एक रोचक प्रसंग है। उन्होंने अपने रिपोतार्जों के जरिए हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया है। एकांकी के दृश्य पुस्तक में उनके रिपोर्जों को संकलित किया गया है। उन्होंने बिहार की राजनीति
, समाज-संस्कृति आदि को लेकर पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लेखन किया था।

चुनाव लीला- बिहारी तर्ज नाम से रेणु की एक रपट 17 फरवरी 1967 को प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने लिखा था-  पत्र और पत्रकारों से कोई खुश नहीं है। न विरोधी दल के लोग और न क्रांगेस-जन। एक पत्र को विरोधी दल की सभा में मुख्यमंत्री का पत्र कहा गया। और उसी पत्र के पत्रकार को मुख्यमंत्री के लेफ्टिनेंट ने धमकियां दीं। मुख्यमंत्री को शिकायत है कि पत्रकार उनके मुंह में अपनी बात पहना देते हैं। अ-राजनीतिक लोगों का कहना है कि चुनाव के समय पत्रकारों की पांचों ऊंगलियां घी में रहती हैं...।

पटना, दिल्ली, मुंबई करते हुए भी उनके भीतर गांव हमेशा से अपना राग अलापता रहा। उनका जब मन होता था तब वे गांव निकल पड़ते थे। वे कहते थे  "मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गांव चला जाता हूं। जहां मैं घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठा कर फटी गंजी पहने गांव की गलियों में, खेतों मैदानों में घूमता रहता हूं। मुखौटा उतारकर ताजा हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरता हूं। सूरज की आंच में अंग प्रत्यंग को सेकता हूं (जो, हमारे गांव में लोग बांस की झाड़ियों में या खुले मैदान में मुक्तकच्छ होकर निबटते हैं न.)। झमाझम बरखा में दौड़ दौड़कर नहाता हूं। कमर भर कीचड़ में घुसकर पुरइन (कमल) और कोका (कोकनद) के फूल लोढ़ता हूं।
फणीश्वर नाथ रेणु को अपनी स्मृतियों से खास लगाव था। वे यादों को सहेजकर रखने में माहिर थे। उनके लेखन की पूंजी उनकी स्मृतियां ही थीं। कहानी या उपन्यास लिखते समय उन्हें जब भी थकावट महसूस होता था अथवा कहीं उलझ जाता थे तो वे कोई ग्राम्य - गीत गुनगुनाने लगते थे। लोकगीतों से उनका लगाव जगजाहिर है।

रेणु के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था क वह अपरिचित को परिचित और परिचित को आत्मीय बना लेता था। उनके पास आकर पीढ़ियों का भेद खत्म हो जाता था। वे तीन पीढ़ियों को जोड़ने वाले सेतु थे। पुरानों का स्नेह, समवयस्कों का सम्मान और नये लोगों का आदर उन्हें प्राप्त था। वे साहसी, दिलफेंक और खुले दिल के आदमी थे। कोई लुकाव-छिपाव नहीं, न दूसरों से न खुद अपनी जिंदगी से। झूठ पर सच का नकाब कभी नहीं ढाला।    

रेणु को अलग अलग रुपों में पढ़ते हुए मुझे वे एक बेबाक चरित्र नजर आने लगता था। एक ऐसा चरित्र नायक जिसका जीवन खेत की तरह उपजाउ है, जिसे केवल फसल पैदा करना आता है.. बान किसी स्वार्थ के।


फणीश्वर नाथ रेणु ने एक दफे कहा था, “एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है।  लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में।साथ ही वे खेती को एक अलग नजरिए से लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करते थे। रेणु को पढ़ते हुए आप किसी किसानी करने वाले से यह सवाल पूछ सकते हैं कि क्या आप किसान हैंक्योंकि किसानी को बयां करना जहां एक ओर सबसे कठिन काम है वहीं ऐसे लोगों के लिए सबसे आसान काम है, जिनका रिश्ता खेत से..जिनका कनेक्शन गांव से है...

बेमौसम बरसात के दुख में रेणु की याद

मार्च के आखिरी दिनों में हुई बे-मौसम बारिश ने खेतों को तबाह कर दिया है। आंखों के सामने गेंहू की फसल को तबाह होते देखा, जवान मक्का को जमीन पर लुढ़कते देखा।

आम
लीची के नन्हें फलों को जमीन पर बिखरते देखा। किसानी करते हुए ही यह जान सका कि मौसम की मार सबसे खतरनाक होती है क्योंकि यह मार किसान के सपने को उड़ा ले जाती है।

देखिए न किसानी का
दुख-राग अलापते हुए भी मुझे अपने प्रिय कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ही याद आ रहे हैं। दरअसल वे किसानी करने वाले लेखक थे। वे खेती के अंदाज में लेखन करते थे। वे लेखन के जरिए किसान की नियति-रेखा को सबके सामने प्रस्तुत करने वाले अद्भूत शिल्पकार थे।

साहित्य की तकरीबन सभी विधाओं में बराबर कलम चलाने वाले रेणु आज के ही दिन यानि 11 अप्रैल 1977 को अनंत की ओर कूच कर गए थे। वे भले ही 38 वर्ष पहले हमसे दूर चले गए लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वे आज भी हमारे लिए जीवंत हैं। रेणु पैदाइशी किसान थे इसलिए वे किसानों के दर्द को शब्दों में उकेर देते थे।

आवरन देवे पटुआ
, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान.. फणीश्वर नाथ रेणु ने जब यह लिखा था, तब पूर्णिया जिले के किसान इन्हीं दोनों (पटसन और धान) फसलों पर आश्रित थे । लेकिन उस वक्त मौसम इस तरह करवटें नहीं लिया करती थी। किसानी करने वाले लोगों का किसानी से मौसम की मार की वजह से मोह भंग नहीं हुआ था।

अपनी कथाओं के जरिए जन-मानस को गांव से करीब लाने वाले लेखक फणीश्वर नाथ रेणु अक्सर कहते थे कि खेती करना कविता करना है
, कहानी लिखना है। रेणु ने एक दफे कहा था, “एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है। लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में।साथ ही वे खेती को एक अलग नजरिए से लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करते थे।
बे-मौसम बारिश में अपने खेतों को उजड़ते देखने के बाद यह सब लिखते हुए मैं भावुक हो चला हूं लेकिन इसके बावजूद किसानी कर रहे लोगों का भरम नहीं तोड़ना चाहता। हमें आशा है कि किसानों का कल बेहतर होगा।

हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में हैं। बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे, हम जीवठ हैं। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेंगी ये तो हमे पता नहीं लेकिन इतना तो जरुर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मौसम की मार सहने के बाद फिर से खेतों में लग जाना है।

मक्का के खेत में पहाड़ी चिड़ियों के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए हंडी को काले रंग से पोतकर फिर से खड़ा करना है, और देखिए न यह लिखते वक्त मुझे फिर से रेणु याद आने लगे हैं। मेरे रेणु खेत-खलिहान में व्याप्त हैं। मैं अंखफोड़वा कीड़े की तरह
भन-भनकरता हुआ मक्का के खेत में उड़ना चाहूंगा ताकि काले बादल के तेवर को समझ सकूं कि कब बरखा होगी और कब खूब धूप उगेगी।

इस कीड़े पर रेणु ने लिखा है-
एक कीड़ा होता है- अंखफोड़वा, जो केवल उड़ते वक्त बोलता है-भन-भन-भन। क्या कारण है कि वह बैठकर नहीं बोल पाता? सूक्ष्म पर्यवेक्षण से ज्ञात होगा कि यह आवाज उड़ने में चलते हुए उसके पंखों की है। सूक्ष्मता से देखना और पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है। परिवेश से ऐसे ही सूक्ष्म लगाव का संबंध साहित्य से अपेक्षित है ।


दरअसल रेणु कम शब्दों में अपनी बात रखते थे। बे-मौसम बारिश में गेंहू-मक्का को गंवाने के बावजूद भी रेणु के अंचल के किसान मुस्कुरा रहे हैं क्योंकि उनकी नजर अब अपने उन खेतों पर है जहां फसल अभी भी लहलहा रही है... क्योंकि किसानी कर रहे लोगबाग दुख में भी सुख के अंश खोज लेते हैं।

Monday, March 31, 2014

रेणु की 'चुनावी-लीला'

फणीश्वर नाथ रेणु का बैठकखाना (औराही-हिंगना)
चुनाव के इस मौसम में साहित्यिक-चुनावी बातचीत करने का मन कर रहा है। आप सोचिएगा कहां राजनीति और कहां साहित्य। दरअसल हम इन दोनों विधाओं में सामान हस्तक्षेप रखने वाले कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बात कर रहे हैं। रेणु ने 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था। उनका चुनाव चिन्ह नाव था , हालांकि चुनावी वैतरणी में रेणु की चुनावी नाव डूब गयी थी लेकिन चुनाव के जरिए उन्होंने राजनीति को समझने-बूझने वालों को काफी कुछ दिया। मसलन चुनाव प्रचार का तरीका या फिर चुनावी नारे।

रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र को चुना था क्योंकि वह उनका ग्रामीण क्षेत्र भी था। आज इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधत्व उनके पुत्र पद्मपराग वेणु कर रहे हैं। रेणु ने किसी पार्टी का टिकट स्वीकार नहीं किया था। 31 जनवरी 1972 को रेणु ने पटना में प्रेस कांफ्रेस में कहा कि वे निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि पार्टी बुरी नहीं होती है लेकिन पार्टी के भीतर पार्टी बुरी चीज है। उनका मानना था कि बुद्धिजीवी आदमी को पार्टीबाजी में नहीं पड़ना चाहिए। 

रेणु का चुनावी भाषण अद्भूत था।  उन्होंने खुद लिखा है-

 " मैंने मतदाताओं से अपील की है कि वे मुझे पाव भर चावल और एक वोट दें। मैं अपने चुनावी भाषण में रामचरित मानस की चौपाइयां
,दोहों का उद्धरण दूंगा। कबीर को उद्धरित करुंगांअमीर खुसरो की भाषा में बोलूंगागालिब और मीर को गांव की बोली में प्रस्तुत करुंगा और लोगों को समझाउंगा। यों अभी कई जनसभाओं में मैंने दिनकर, शमशेर, अज्ञेय, पनंत और रघुवीर सहाय तक को उद्धृत किया है-

दूध, दूध  ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं- दिनकर
यह दीप अकेला स्नेह भरा-अज्ञेय
बात बोलेगी, मैं नहीं- शमशेर
भारत माता ग्रामवासिनी-पन्त
न टूटे सत्ता का तिलिस्म, न टूटे- रघुवीर सहाय

72 के चुनाव के जरिए रेणु अपने उपन्यासों के पात्रों को भी सामने ला रहे थे। उन्होंने कहा था-  मुझे उम्मीद है कि इस चुनाव अभियान के दौरान कहीं न कहीं मरे हुए बावनदास से भी मेरी मुलाकात हो जाएगी, अर्थात वह विचारधारा जो बावनदास पालता था, अभी भी सूखी नहीं है।

चुनाव में धन-बल के जोर पर रेणु की बातों पर ध्यान देना जरुरी है। उन्होंने कहा था- लाठी-पैसे और जाति के ताकत के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। मैं इन तीनों के बगैर चुनाव लड़कर देखना चाहता हूं। समाज और तंत्र में आई इन विकृतियों से लड़ना चाहिए।

रेणु का चुनाव चिन्ह नाव था। अपने चुनाव चिन्ह के लिए उन्होंने नारा भी खुद गढ़ा..उनका नारा था-

" कह दो गांव-गांव में
अब के इस चुनाव में/ वोट देंगे नाव मेंनाव मेनाव में।।
कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।
मोहर दीजै नाव परचावल दीजै पाव भर....

कह दो बस्ती-बस्ती में मोहर देंगे किस्ती में।।

मोहर दीजै नाव परचावल दीजै पाव भर....
मोहर दीजै नाव परचावल दीजै पाव भर....

राजनीति में किसानों की बात हो, मजदूरों की बात हो, ऐसा रेणु चाहते थे। राजनीति में किसानों की बात हवा-हवाई तरीके से किए जाने पर वे चिन्तित थे। वे कहते थे- धान का पेड़ होता है या पौधा -ये नहीं जानते मगर ये समस्याएं उठाएंगे किसानों की ! समस्या उठाएंगे मजदूरों की ! "

गौरतलब है कि राजनीति में रेणु की सक्रियता काफी पहले से थी। साहित्य में आने से पहले वह समजावादी पार्टी और नेपाल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।
(मूलत: प्रभात-खबर के पॉलिटिक्स में प्रकाशित)

Tuesday, March 04, 2014

बस, रेणु के लिए

किसानी करते हुए 365 दिन का आंकड़ा पूरा हुआ। खेत-खलिहानों में अब मन रमने लगा  है। अहसास ठीक वैसे ही जैसे फणीश्वर नाथ रेणु का लिखा पढ़ते हुए और अपने गुलजार का लिखा बुदबुदाते हुए महसूस करता हूं।

देखिए न आज अपने रेणु का जन्मदिन भी है। वही रेणु जिसने गाम की बोली-बानी, कथा-कहानी, गीत, चिडियों की आवाज..धान-गेंहू के खेत..इन सभी को शब्दों में पिरोकर हम सबके सामने रख दिया और हम जैसे पाठक उन शब्दों में अपनी दुनिया खोजते रह गए। रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूं खुद से बातें करने लगता हूं। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा  जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को ढूढ़ने लगा। 

किसानी करने का जब फैसला लिया, तब भी रेणु ही मन में अंचल का राग सुना रहे थे और मैं उस राग में कब ढ़ल गया, पता भी नहीं चला। गाम में रहते हुए रेणु से लगाव और भी बढ़ गया है। संथाल टोले का बलमा मांझी जब भी कुछ सुनाता है तो लगता है कि जैसे रेणु के रिपोतार्ज पलट रहा हूं। दरअसल रेणुकी जड़े दूर तक गांव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है। ठीक आंगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह।

रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “ जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला। (सुख के जीवन के लिए, यहां आइए, यहां ढूंढ़ना है और पाना है..)

रेणु की यह पंक्ति मुझे गाम के जाल में उलझाकर रख देती है, मैं इस जाल से बाहर जाना अब नहीं चाहता, आखिर जिस सुख की खोज में हम दरबदर भाग रहे थे, उसका पता तो गाम ही है। मेरे यार-दोस्त इसे मेरा भरम मानते हैं :)    खैर।  

रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब सदन झा  सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुंचा रहे थे। रेणु छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरो, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे। मक्का की खेती और आलू उपाजकर जब मैं की-बोर्ड पर टिपियाना शुरु करता हूं तो तब अहसास होता है कि फिल्ड नोट्स को इकट्ठा करना कितना बड़ा काम होता है।

गाम के मुसहर टोले में पलटनिया ऋषिदेव के घर के सामने से जब भी गुजरता हूं तो लगता है जैसे रेणु की दुनिया आंखों के सामने आ गयी है। दरअसल उनका रचना संसार हमें बेबाक बनाता है, हमें बताता है कि जीवन सरल है, सुगम है..इसमें दिखावे का स्थान नहीं के बराबर है।  रेणु अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं-

“इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)


जरा इस कविता को पढ़कर रेणु के मानस को समझने की कोशिश करिए-
“ कहा सुना सब माफ करोगे, लेकिन याद रखोगे
बचपन के सब मित्र तुम्हारे, सदा याद करते हैं
गांव को छोड़कर चले गये हो शहर, मगर अब भी तुम 
सचमुच गंवई हो, शहरी तो नहीं हुए हो..
इससे बढ़कर और भला क्या हो सकती है बात
अब भी मन में बसा हुआ है इन गांवों का प्यार.......”

रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न हीं बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी की है-“दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया।“ (मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)

 आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूं। उनका लिखा पढ़कर मानस बना है और अब किसानी करते हुए रेणु के पात्रों से रुबरु हो रहा हूं। 


(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं, क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी, फसल, किसानी, गांव-देहात की बातें करते हैं।)

Monday, March 04, 2013

खेती-बाड़ी, कलम-स्याही और रेणु


फणीश्वर नाथ रेणु ...मेरे लिए यह नाम ही कथा है। ऐसी कथा, जिसमें न जाने कितनी कहानियां एक संग चलती है और मेरा मैं उन कहानियों में अंचल की उपजाउ जमीन खोजने लगता है।

पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं, क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी, फसल, किसानी, गांव-देहात की बातें करते हैं।

फारबिसगंज में उनके एक व्यवसायी मित्र हुआ करते थे- बिरजू बाबू। बिरजू बाबू को लिखे एक पत्र में रेणु कहते हैं-
गांव-घर, खेत खलिहान अभी बेपानी हो रहा है। मड़ुआ का आंव एक रुपया सात आना किलो, तीस रुपये मन पाट ..खेत में पानी नहीं..नहरी इलाका होने के बावजूद हम सभी इंद्र महाराज के आसरे बैठे हैं। पता नहीं क्या होगा ? “

रेणु की यह चिट्ठी पढ़कर लगता है कि वे कथा की तरह किसानी किया करते होंगे। एक किसान जो शिल्पी भी हो..मिस्त्री भी हो ..शायद ऐसे ही थे रेणु। एक चिट्ठी में रेणु लिखते हैं- मैं उन्हें नहीं समझा सकूंगा कि शिल्पी और मिस्त्री में क्या फर्क होता है। हर शिल्पी की तरह मेरी भी जिज्ञासाएं हैं।   “

रेणु को पढ़ते हुए ही मेरे भीतर किसानी-जीवन की ललक पैदा हुई। उन्हें पढ़ते हुए कभी कभी लगता है कि वे खेत देखकर लिखा करते थे।
डायरी के दो पृष्ठ का ही यह पारा देखिए- पिछले पंद्रह – बीस वर्षों से हमारे इलाके उत्तर बिहार के कोसी कवलित अंचल में एक नई जिंदगी आ रही है। हरियाली फैल रही है..फैलती जा रही है बालूचरों पर। बंजर धूसर पर रोज रोज हरे पीले और धानी रंग मोटे ब्रश से पोते जा रहे हैं।

अभी –अभी आलू की खेती करने के बाद और अब खेत में मक्का के लहराते फसल उगाने के बाद जब मैं रेणु का लिखा  
डायरी के दो पृष्ठपढ़ता हूं तो लगता है कि वे धान के बीज की तरह शब्द का इस्तेमाल करते थे। नहीं तो भला कौन धान, गेंहू और मक्के की खेती के लिए यह लिख पाएगा- बंजर धूसर पर रोज रोज हरे पीले और धानी रंग मोटे ब्रश से पोते जा रहे हैं।


रेणु की एक कविता है- मेरा मीत सनीचर
! मुझे यह काफी पसंद है। इसमें एक जगह वे कहते हैं- गांव छोड़कर चले गए हो शहर, मगर अब भी तुम सचमुच गंवई हो..शहरी तो नहीं हुए हो... गाम को लेकर रेणु का यही अनुराग हमें गंवई बना देता है।

रेणु का लिखा खूब पढ़ते हुए हम गांव को, खेत-खलिहान को ...लोक-गीतों को ..चिड़ियां-पंछी को, गाछ-वृक्ष को जीवन के सबसे सुंदर क्षण की तरह महसूस करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि इन सभी में कथा है। परती-परिकथा-कथा-अनंता।

अपने गाम के कबिराहा मठ पर जब भी जाना होता है तब मुझे केवल और केवल रेणु ही याद आते हैं। उनका एक स्केच
अपने-अपने त्रिलोचन आंखों के सामने नाचने लगता है, जिसमें वे एक जगह कहते हैं- कई बार चाहा कि त्रिलोचन से पूछूं – आप कभी पूर्णिया जिला की ओर किसी भी हैसियत से किसी कबिराहा मठ पर गए हैं ?  किंतु पूछकर इस भरम को दूर करना नहीं चाहता। इसे पाले रहना चाहता हूं..।

आज रेणु के गाम-घर..खेती-बाड़ी पर लिखते हुए मैं भी भरम को दूर करना नहीं चाहूंगा, मैं भी खेत-खलिहान में रेणु को ..उनके पात्रों को ..उनके शब्दों को खुद में समेटे रखना चाहूंगा। मक्का के खेत में पहाड़ी चिड़ियों के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए हंडी को काले रंग से पोतकर हमने जब खेत में खड़ा किया तो सबसे पहले रेणु ही याद आए। मैं इस भरम को दूर करना नहीं चाहूंगा कि रेणु खेत-खलिहान में व्याप्त हैं।

अंखफोड़वा कीड़े की तरह
भन-भन करता हुआ मक्का के खेत में उड़ना चाहूंगा  और खेत को संगीत की दुनिया  दिखाना चाहूंगा। देखिए न इस कीड़े पर रेणु ने कितना कुछ लिख दिया है। वे कहते हैं- एक कीड़ा होता है- अंखफोड़वा, जो केवल उड़ते वक्त बोलता है-भन-भन-भन। क्या कारण है कि वह बैठकर नहीं बोल पाता? सूक्ष्म पर्यवेक्षण से ज्ञात होगा कि यह आवाज उड़ने में चलते हुए उसके पंखों की है। सूक्ष्मता से देखना और पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है। परिवेश से ऐसे ही सूक्ष्म लगाव का संबंध साहित्य से अपेक्षित है

दरअसल वे कम शब्दों  अपनी पूरी जीवन स्थिति..मन की बात ..छटपटाहट, तनाव आदि कुशलता से रख देते हैं। यही कला उन्हें महान कथा शिल्पी बना देता है। रेणु का गाम-घर आज भी उनकी किसानी को जी रहा है, मुस्कुराते हुए।

अब चलते-चलते रेणु के जन्मदिन पर उनकी एक कविता- पार्कर
51 को पढ़िए। दरअसल उनके पास पार्कर 51 कलम थी, जिससे उन्होंने अपनी अधिकांश रचनाएं लिखी। 1946 में उन्होंने इस कलम पर एक कवित्त की रचना की थी-

गोल्ड क्लिप गोल्ड कैप सुंदर-सुघड़ शेष
कवियों की कल्पना में जिसकी रसाई है।
रुप है अनूप, शोभा का ही है स्वरुप यह,
देव जिसे पा न सके, सबके मन भायी है।
मानो तुम, जानो तुम इसकी गुणावली,
वेद पुरातन ने बहुबार गायी है।
भूषण भनत शिवराज वीर तेरे पास,
फिफ्टी वन पहले पहल अब आयी है।

 मूलत: जानकीपुल में प्रकाशित

Saturday, December 17, 2011

लोकगीतों के बारे में


पिछले तीन दिनों से बुखार की चपेट में हूं, इसलिए ऑफिस के काम-काजों से मुक्त हूं। अभी रेणु रचनावली पढ़ रहा हूं। फणीश्वर नाथ रेणु की कई ऐसी रचनाएं पढ़ने को मिल रही है, जिसके बारे में पता नहीं था। यह किताब पांच खंड में है। खैर, यह पोस्ट लोकगीत को लेकर है। रेणु रचनावली से साभार। आप पढिए और जानिए लोकगीतों के बारें में...
-गिरीन्द्र

मैं
लोकगीतों के गोद में पला हूं। इसलिए हर मौसम में मेरे मन के कोने में उस ऋतु के लोकगीत गूंजते रहते हैं। मैं कहीं भी हूं- इन लोकगीतों की स्मृति ध्वनियां मुझे अपने गांव में कुछ क्षण के लिए पहुंचा देती है।
अगहन शुरु होते ही पके हुए धन खेतों की अगहनी सुगंध के लिए मन मचलता है। अलाव तापते हुए खलिहान में दवनी को आए हुए लोगों से बातें करनी की बड़ी इच्छा होती है। ढलती हुई लंबी रात, भुरुकुवा (शुक्र) तारा उगते ही नींद उचट जाती है।

खलिहान में दवनी शुरु हो गई।
प्रातकी गीत की पहली कड़ी मंड़रा रही है। पवित्र धुन प्रातकी जिसे अगहन से माघ तक भुरुकुवा तारा उगने के बाद गाते हैं। 
भोर को गाए जाने वाले गीतों में
प्रातकी के बाद बिकय की याद आती है। श्रावणी पूर्णिमा से आरंभ करके कृष्णाष्टमी की भोर में खोल करताल बजाकर यह बिकय गीत गाया जाता है।

काली घटाओं में लुका छिपा चांद भादो के भरे हुए पोखर तलाब में तैरता हुआ दिखाई पड़ता है और फिर तुरंत ही झड़ी लग जाती है। ऐसे क्षणों में
बिकय गानेवालों का मूलगैन अलाप उठता है। 
लोकगीतों में ऐसे भी गीत हैं जिनके गाने का समय वर्ष में सिर्फ एक घंटा निर्धारित है। होली और फगुआ गाने फागुन की अंतिम घडियों तक और चैत के प्रथम क्षणों में चैती शुरु करने से पहले एक घंटा।

फागुन चैत की संधि बेला में गाए जाने वाले इस गीत को
बसकर कहते हैं। इस गीत में फागुन की मस्ती की हल्की खुमारी और चैती की मीठी मीठी उदासी मिली जुली रहती है।

{‘कवि रेणु कहेसे – साभार: रेणु रचनावली-5 , पृष्ठ संख्या- 476 }

Tuesday, August 11, 2009

रेणु के गांव आया परदेशी...

बिहार के अररिया जिले में स्थित औराही हिंगना गांव में इन दनों एक विदेशी आया हुआ है। लुंगी और बनियान पहने देखकर आप अंदाजा नहीं लगा पाएंगे कि जनाब अमरेकी शहर टेक्सास के हैं। इस वेश में वह खांटी देहाती दिखते हैं। इनका नाम है इयान वुलफोर्ड। औराही के बारे में आपको विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह महान आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु का गांव में हैं। इस गांव की फिजा में रेणु के पात्र बसे हुए हैं।

अमेरिकी विश्वविद्यालय का शोधार्थी और अब लेक्चरर इयान इन दिनों आंचलिक भाषा और ठेठ बिहारी ग्रामीण जीवनशैली को समझने की कोशिश कर रहा है। उसे आचंलिक गीतों से खास लगाव है। दरअसल वह कुछ गीतों के जरिए रेणु के गांव को खंगालना चाहता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय का 30 वर्षीय इयान कई दिनों से औराही में डेरा जमाए हुए है। इससे पहले भी वह देश के कई गांवों को खंगाल चुका है। रेणु के परिजनों के साथ इयान काफी वक्त गुजारता है। इसके अलावा स्थानीय लोगों से लगातार संवाद कायम रखे हुए है। रेणु के घर के बाहर चौकी पर बैठकर वह कहता है- रेणु की लेखनी अद्वितीय है। उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए ग्राम्य जीवन पर प्रकाश डाला। साथ ही आंचलिक गीतों को प्रमुखता से स्थापित किया।


टेक्सास विश्वविद्यालय ने हाल ही में इयान को लेक्चरर नियुक्त करने की घोषणा की। इयान ने कहा- मेरी पत्नी ने मुझे इसकी सूचना दी। मैं काफी खुश हूं। उन्होंने कहा कि रेणु के गांव में पहुंचने की उनकी लालसा पांच साल पहले जगी थी, जब उन्होंने रेणु की कुछ उपन्यासों को पढ़ा था। खासकर उनके उपन्यासों में प्रयुक्त लोकगीत उसे अपनी ओर खींचते हैं।


इयान ने कहा कि जब वह औराही पहुंचे तो उनकी जान-पहचान किसी से नहीं थी। लेकिन उन्हें खुशी इस बात की है पहली बार में ही लोग उनके दोस्त बन गए। उन्होंने कहा- रेणु की लेखनी के बारे में अंग्रेजी में काफी कम लिखा गया है। मैं उनकी लेखनी पर शोध कर रहा हूं। मैंने लगभग 60 फीसदी शोध कार्य पूरा कर लिया है।


रेणु से बेहद प्रभावित इयान ने कहा कि वह भविष्य में अमेरिकी विश्वविद्यालय में भारतीय ग्राम्य जीवन पर छात्रों को पढ़ना चाहते हैं औऱ इस विषय को पाठ्यक्रम में भी शामिल कराने के लिए प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उन्हें दुख इस बात है कि अभी भी भारतीय गांवों में गरीबी और अशिक्षा एक बड़ी समस्या बनी हुई है।

चलते -चलते बता दूं कि इयान साहेब ब्लॉगर भी हैं और अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी ब्लॉगिगं कर रहे हैं। उनतक पहुंचने का पता है-
http://www.indiasammy.blogspot.com/ (अंग्रेजी में)
http://www.hindisammy.blogspot.com/ (हिंदी में )

और अब रेणु के एक गीत का आनंद उठाइए-

भादव मास भयंकर रतिया-या-या,

पिया परदेस गेल धड़के मोर छतिया-या-या,

कैसे धीर धरौं मन धीरा-

आसिन मास नयन ढरै नीरा-आ-आ-आ..।“