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Monday, October 03, 2016

लकीर-फकीर-कबीर

एक सीधी लकीर
एक टेढ़ी लकीर
एक तिरछी
एक आधी
एक पूरी लकीर!
ओहो!
एक पूरी लकीर ही
तो भरम है प्यारे!
तो, साहेबान
और क़द्रदान
बस खींचते जाओ
लकीर
सीधी
टेढ़ी
आधी
जो भी बने
बनाते चलो
लकीर तो
बस पड़ाव है प्यारे
मंज़िल तो फकीर है,
लाठी लिए कबीर है।

Thursday, September 08, 2011

जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।

 
जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।

प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

जिन ढूँढा तिन पाइयॉं, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।


सॉंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै सॉंच है, ताके हिरदै आप।।


बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।

हिये तराजू तौल‍ि के, तब मुख बाहर आनि।।

Wednesday, September 07, 2011

माया महाठगनी हम जानी

 

मन बौराता है तो कबीर को सुनता हूं, अलग-अलग आवाजों में। खासकर माया महागठनी.. पिछले कई सालों से पंडित छन्नू लाल मिश्रा को सुन रहा हूं। पंडित जी की आवाज मुझे इबादत की आवाज लगती है। वह बार-बार मुझे अपनी ओर खींचते हैं, सुर-ताल के संग। आप भी सुनिए उन्हीं की आवाज में माया महाठगनी हम जानी.. । अगली बार सुनाउंगा पंडित राजन साजन मिश्र की आवाज में जब मैं था तब हरि नहीं..

Sunday, September 04, 2011

'हद अनहद' ऊर्फ ‘राम हमारा हमें जपे रे...हम पायो विश्राम’

यदि आप डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से लगाव रखते हैं और कबीर को जानने की इच्छा रखते हैं तो 'हद अनहद' ' देखिए।  कबीर प्रोजेक्ट चलाने वाली शबनम विरमानी ने इसे तैयार किया है। इसमें अयोध्या भी है और कराची भी।

कराची के फरीउद्दीन अयाज कहते हैं
, कबीर मेरा है। मेंटल लेवल को क्लियर कर दो, फिर कबीर को पहले इंसान समझो तब जाकर बात बनेगी। कबीर ने भाषाओं का चोला नहीं पहना ..कबीर नाम है एक कांस्पेट का..एक थीम का... जो अलग अलग जगह पर अलग नामों से जाने जाते हैं.। कबीर के लिए आपको कबीर के पास ही जाना होगा तमाम बंधनों को तोड़ना होगा... उसके लिए कबीर खुद वीजा देंगे आपको.. कबीर सीमाओं से परे हैं..सरहद से ऊपर कबीर का मुल्क है....।

कविवर मोहन राणा साब ने मुझे इस फिल्म से परिचित करवाया। यह १०२ मिनट की फिल्म है, यदि इतना वक्त हो तो जरुर देखिए। कबीर की साखियों को लगातार पढ़ते हुए समाज को देखने का नजरिया बदल जाता है। हम कई चीजों को कई कोणों से देखने लगते हैं। कबीरा कुआं एक है..और पानी भरे अनेक..। "हद-हद टपे सो औलिया..और बेहद टपे सो पीर..हद अनहद दोनों टपे. सो वाको नाम फ़कीर..हद हद करते सब गए और बेहद गए न कोए अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय.... भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं रामभजन से छूटी रे मोरे सर से टली बला..।"

यह वृतचित्र सचमुच में यह बताने में कामयाब रही कि माया महाठगनी हम जानी..। कबीर के साथ दो मुल्कों के मानस को भी यहां रखा गया है। जन-मानस। इसे देखने के बाद मन सरहद पार चला जाता है, पाकिस्तान के शहर कराची को देखने की ललक बढ़ जाती है। इसी फिल्म में मैंने कराची की बसों को देखा, कितना संवारा जाता है वहां बसों को। कराची स्टेशन और रेलगाड़ी और इन सबके साथ कबीर...रमता जोगी बहता पानी..। संपादन नहीं के बराबर किए जाने की वजह से देखने में और अच्छा लगता है और बातें और स्पष्ट हो जाती है।
दरअसल शबनम विरमानी कबीर को समझने की कोशिश में जुटी हैं। वह लंबे वक्त से कबीर प्रोजेक्ट के जरिए कबीर और जनमानस में घुल मिल रही हैं। वह कबीर महोत्सव का भी आयोजन करती हैं। “कबीर के राम की खोज करने के लिए शबनम विरमानी इस फिल्म के जरिए अयोध्या से मालवा, वाराणसी और सरहद पार तक की यात्रा करती हैं।

तो चलिए
, यदि आपके पास कुल जमा १०२ मिनट ४९ सेकेंड का वक्त है तो हद अनहद देखते हैं अपने-अपने कम्प्यूटर स्क्रीन पर। ये रहा यूआरएल-

http://www.cultureunplugged.com/play/2831/Had-Anhad--Journeys-With-Ram---Kabir--Bounded-Boundless-

Thursday, October 29, 2009

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ...

कबीर, जिन्हें पढ़ते वक्त खोने का अहसास होता है। आज जब कौन ठगवा नगरिया लूटल हो   पढ़ रहा था, तब मुझे अपने गांव में निरगुण गाने वाले अनहद की याद आ गई। वह इसे जब सस्वर  सुनाता है तो आंखे खुलती नहीं रहती है। वह खासकर कबीर की इस पंक्ति पर जोर देता है-चंदन काठ के बनल खटोला/ता पर दुलहिन सूतल हो।  ...आज आप भी पढिए और मन ही मन गुनगुनाइए भी-

शुक्रिया
गिरीन्द्र


कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।।
चंदन काठ के बनल खटोला

ता पर दुलहिन सूतल हो।


उठो सखी री माँग संवारो

दुलहा मो से रूठल हो।


आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा

नैनन अंसुवा टूटल हो
चार जाने मिल खाट उठाइन

चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो


कहत कबीर सुनो भाई साधो

जग से नाता छूटल हो

Tuesday, October 27, 2009

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में

इन दिनों कबीर को पढ़ रहा हूं। मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी ..पढ़ते वक्त उनसे नजदीकी बढ़ जाती है। कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा था- पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार। वा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार। लेकिन अभी पढिए- मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में..

शुक्रिया

गिरीन्द्र



जो सुख पाऊँ राम भजन में


सो सुख नाहिं अमीरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

भला बुरा सब का सुनलीजै

कर गुजरान गरीबी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

आखिर यह तन छार मिलेगा

कहाँ फिरत मग़रूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

प्रेम नगर में रहनी हमारी

साहिब मिले सबूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

कहत कबीर सुनो भयी साधो

साहिब मिले सबूरी में

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में ॥

Wednesday, April 15, 2009

झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥


काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥


आठ कँवल दल चरखा डोलै,

पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥


साँ को सियत मास दस लागे,

ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥


सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥


दास कबीर जतन करि ओढी,

ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥