Monday, January 20, 2020

शहरनामाः पूर्णिया जो पहले 'पूरैनिया' था ! -1

कभी आपने सोचा है कि कोई एक वृक्ष जो आपके घर के आसपास है, उसका आपके परिवार से क्या रिश्ता है? जरा सोचिएगा. जिस पेड़ को आपके दादाजी-दादीजी, नानाजी-नानी या उनके भी मां-पिता ने लगाया होगा, उस वृक्ष ने आपके परिवार के न जाने कितने पड़ाव को देखा होगा, उस पेड़ से क्या आपने कभी गुफ्तगू की है? अब जब हम अंधाधुंध पेड़ कटाई के पैरवीकार हो चुके हैं, ऐसे वक्त में उन बुजुर्ग पेड़ के बारे में सोचिएगा. उन पोखर, कुएं के बारे में भी सोचने की आवश्यकता है जो हमारे गाम-घर, शहर के चौक-चौराहों का पता हुआ करती थी. 

यह सब अब हमारे स्मृति का हिस्सा है लेकिन अभी भी जहां कहीं वृक्ष-तालाब हैं, उसे संभालने का वक्त आ गया है. 

हम जिस शहर से ताल्लुक रखते हैं उसका नाम पूर्णिया है. कहते हैं कभी यहां जंगल हुआ करता था मतलब पूर्ण-अरण्य. दूर दूर तक केवल पेड़ ही पेड़. शहर के मध्य सौरा नदी बहा करती थी, वहीं शहर के सीमांत से कारी कोसी. धीरे-धीरे नदी सिमटती चली गई और वृक्ष को हमने गायब कर दिया. 

1809-1810 में फ्रांसिस बुकानन ने खूब मेहनत कर एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ पूर्णिया लिखा, इसे पढ़ते हुए लगता है कि यह इलाका सचमुच में पूर्ण अरण्य था. यहां लोगबाग खूब वृक्षारोपण किया करते थे. 

बुकानन लिखते हैं, “पूर्णिया के लोगबाग वृक्षारोपण को धार्मिक कार्य समझते हैं. वे अपने घर के आसपास पेड़ को जगह देते हैं." बुकानन और फिर एक और अंग्रेज ऑफिसर ओ मैली का लिखा पूर्णिया रिपोर्ट बताता है कि यह इलाका पानी और जंगल से भरा था. अब जब वक्त बदल चुका है, विकास ने कई रास्ते खोल दिए हैं, ऐसे में वृक्ष और पानी से मोहब्बत करना हम सबने छोड़ दिया है. लेकिन अब चेत जाने का समय आ गया है. आप अपने आने वाली पीढ़ी के लिए क्या 

कभी आपने सोचा है कि कोई एक वृक्ष जो आपके घर के आसपास है, उसका आपके परिवार से क्या रिश्ता है? जरा सोचिएगा. जिस पेड़ को आपके दादाजी-दादीजी, नानाजी-नानी या उनके भी मां-पिता ने लगाया होगा, उस वृक्ष ने आपके परिवार के न जाने कितने पड़ाव को देखा होगा, उस पेड़ से क्या आपने कभी गुफ्तगू की है? अब जब हम अंधाधुंध पेड़ कटाई के पैरवीकार हो चुके हैं, ऐसे वक्त में उन बुजुर्ग पेड़ के बारे में सोचिएगा. उन पोखर, कुएं के बारे में भी सोचने की आवश्यकता है जो हमारे गाम-घर, शहर के चौक-चौराहों का पता हुआ करती थी. 

यह सब अब हमारे स्मृति का हिस्सा है लेकिन अभी भी जहां कहीं वृक्ष-तालाब हैं, उसे संभालने का वक्त आ गया है. 

हम जिस शहर से ताल्लुक रखते हैं उसका नाम पूर्णिया है. कहते हैं कभी यहां जंगल हुआ करता था मतलब पूर्ण-अरण्य. दूर दूर तक केवल पेड़ ही पेड़. शहर के मध्य सौरा नदी बहा करती थी, वहीं शहर के सीमांत से कारी कोसी. धीरे-धीरे नदी सिमटती चली गई और वृक्ष को हमने गायब कर दिया. 

1809-1810 में फ्रांसिस बुकानन ने खूब मेहनत कर एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ पूर्णिया लिखा, इसे पढ़ते हुए लगता है कि यह इलाका सचमुच में पूर्ण अरण्य था. यहां लोगबाग खूब वृक्षारोपण किया करते थे. 

बुकानन लिखते हैं, “पूर्णिया के लोगबाग वृक्षारोपण को धार्मिक कार्य समझते हैं. वे अपने घर के आसपास पेड़ को जगह देते हैं." बुकानन और फिर एक और अंग्रेज ऑफिसर ओ मैली का लिखा पूर्णिया रिपोर्ट बताता है कि यह इलाका पानी और जंगल से भरा था. अब जब वक्त बदल चुका है, विकास ने कई रास्ते खोल दिए हैं, ऐसे में वृक्ष और पानी से मोहब्बत करना हम सबने छोड़ दिया है. लेकिन अब चेत जाने का समय आ गया है. आप अपने आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं, इस पर बहस होनी चाहिए.

विभूतिभूषण वंध्योपाध्याय का एक उपन्यास है- ‘आरण्यक’. इसे पढ़ते हुए हम पूर्णिया को पूरैनिया के रुप में देखने लगते हैं. 

वृक्ष के बहाने पूर्णिया की कथा इसलिए भी हमें सुनानी चाहिए क्योंकि देश के पुराने जिले में एक पूर्णिया भी है. फरवरी, 2020 में पूर्णिया को जिला बने 250 साल हो जाएगा, ऐसे में पुराने पूर्णिया की दास्तानगोई बहुत ही जरूरी है. 

देश के अन्य हिस्से के लोग इस इलाके के बारे में जानें जिसके बारे में फणीश्वर नाथ रेणु कहते थे- “आवरण देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैया रहे चदरवा तान...." उस पूर्णिया को हम जानें जहां वृक्ष की पूजा आज भी हर गांव में होती है, उस पूर्णिया को लोग महसूस करें जहां की माटी ने यूरोपियन लोगों को भी किसान बना दिया.

बंगाल की नजदीकी ने इसे सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध किया, आज भी यह शहर अपने बांग्ला भाषी मोहल्ला दुर्गाबाड़ी पर गर्व करता है. हम हर दुर्गा पूजा वहां कोलकाता को महसूस करते हैं, रबिन्द्र संगीत सुनते हैं ‘आन्दोलोके मंगलालोके…’ सुनते हैं. इसी मोहल्ले में बांग्ला के साहित्य के बड़े नाम सतीनाथ भादुड़ी का घर है, हालांकि उनका घर बिक चुका है लेकिन मोहल्ले की सड़क भादुड़ी जी के नाम से है.  

इस शहर को, इस अंचल को नए सिरे से नहीं बल्कि इसके पुराने तार के सहारे समझने बूझने की जरुरत है. 

हम इस उम्मीद में हैं कि 2020 में पर्यावरण के मुद्दे पर हम जागरुक होंगे और वृक्ष से मोहब्बत करना सीखेंगे. यहां की उस संस्कृति को समझने की जरुरत है जहां घर-घर में पेड़-पौधे को लेकर कहावतें हुआ करती थी- घर के आगू मैना पात, पाछू केला गाछ ( घर के आगे मैना पौधा और पीछे केला का पौधा रहना चाहिए.) 

कोई जिला 250 साल का होने जा रहा है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि पूर्णिया के पास ढेर सारे अनुभव होंगे ठीक घर के उस बुजुर्ग की तरह जिसने सबकुछ आंखों के सामने बदलते देखा है. ऐसे में पूर्णिया को अपनी कहानी सुनानी होगी, अपने उस दर्द को बयां करना होगा जब 1934 में आए भूकंप में सबकुछ तबाह हो गया था लेकिन पूर्णिया फिर से उठ खड़ा हुआ.

पूर्णिया को अपने गांधी सर्किट की कथा बांचनी होगी. महात्मा गांधी 1925, 1927 और 1934 में पूर्णिया आते हैं. यहां 13 अक्टूबर 1925 में बापू की पूर्णिया के एक गांव की यात्रा का जिक्र जरूरी है. बापू पूर्णिया शहर से 25 मील दूर एक गांव विष्णुपुर पहुंचते हैं, एक पुस्तकालय का उद्घाटन करने. वहां उन्हें सुनने के लिए हजारों लोग जमा थे. गांधी ने वहां लोगों को संबोधित किया. शाम में वे एक पुस्तकालय पहुंचते हैं, जिसका नाम मातृ मंदिर था. गांधी जी ने इस पुस्तकालय का उद्घाटन किया. चौधरी लालचंद जी ने अपनी पत्नी की स्मृति में इस पुस्तकालय की स्थापना की थी. 

गांधी जी ने पुस्तकालय के बाहर महिलाओं के एक समूह को संबोधित किया था. शहर से दूर देहात में पुस्तकालय और बापू का पहुंचना ही पूर्णिया परिचय है.



6 comments:

Amit said...

बहुत ही अच्छा लिखते हैं आप गिरीन्द्र भाई ऐसे ही लिखते रहिये और अपने विचार लोगों के बीच साझा करते रहिए।
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Manoj Kumar Jangra said...

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Dhaval Hirapara said...

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Amiket said...

Sahi likhe hai sir, tithutaur bhagalpur ke sath purnia ko hi British ne v sabse jyada value diya lekin aaj ki generation ko purnea ka amol itihaas kam hi pta hai.