चुप रहना और ठहरना
दो अलग चीजें हैं।
दोनों को एकाकार करना सीख रहा हूं।
कितना अलग लगता है चुप रहना और फिर
कहीं देर तक ठहर जाना।
इन दोनों अवस्थाओं में,
हम खुद से कितनी ईमानदारी बरतते हैं
या खुद से कितना बेईमान हो जाते हैं।
अक्सर रातों में उठकर इन अवस्थाओं पर सोचना
कभी-कभी लाजमी लगता है तो कभी मुर्खता..।
लंबे समय तक वक्त के साथ कदम बढ़ाना
या यूं कहें वहीं ठहर जाना
हर किसी के लिए अलग-अलग मायने रखता होगा।
लाख बार आंखों के सामने उलट-फेर देखते हुए भी चुप रहना
किसी की मजबूरी हो सकती है
तो किसी की आदत भी।
लेकिन इस चुप्पी के भी मायने निकल सकते हैं,
यदि निकाला जाए तो..।
चुप्पी और ठहराव के व्याकरण को समझना
ठीक वैसे ही जैसे कभी आत्मालाप करना..।
4 comments:
भाई !
पहली बार आपकी कविता से गुजरा हूँ ...
आप तरीके से अपनी बात कह जाते है , यह एक अच्छी कला आपके पास है |
और समय निकल कर आपकी और कवितायेँ देखूंगा ...
यह कविता भी अच्छी लगी ...
एक बड़ी आत्मीय - सी यानी निजी कविता , परन्तु इसकी स्फीति व्यापक है ...
बधाई... ...
वाह गिरिन्द्र जी ,
बहुत ही भावपूर्ण रचना लिखी है ..शुभकामनाएं
अजय कुमार झा
चुप रहना और ठहरना
दो अलग चीजें हैं।
दोनों को एकाकार करना सीख रहा हूं।
-ओह!! क्या बात है दार्शनिक चिन्तन चल रहा है भाई..सब ठीक ठाक तो है..बड़ी उम्दा रचना दे गये, वाह!!
बधाई स्वीकारो, मित्र.
चुप रहना और ठहरना दोनों अलग-अलग कैसे है गिरींद्र मुझे तो लगता है कि अपन चुप इसलिए रहते हैं क्योंकि हमें मजबूरन कहीं ठहरना होता है ।
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