प्रवासियों के लिए भीड़ एक संज्ञा है! प्रवासियों का दर्द त्यौहारों में और बढ़ जाता है, वे भीड़ बन निकल पड़ते हैं अपनी माटी की ओर, जहां से उन्हें हफ्ते भर बाद लौट जाना होता है, फिर से भीड़ बनकर! बिहार का दर्द पलायन है, एक ऐसा दर्द जिसके नाम पर बिहार की राजनीति होती है. इस दर्द की दवा अबतक बिहार के किसी मुख्यमंत्री ने नहीं खोजी है क्योंकि सत्ता में रहने वालों को पता है कि यदि इस दर्द की दवा खोज ली जाएगी तो फिर बिहार से दुख-दर्द की राजनीति ही खत्म हो जाएगी.
दर्द से पलायन और पलायन का दर्द
दिल्ली, लुधियाना, मुंबई में रोजगार के सिलसिले में जानेवाले प्रवासी लोग भले ही दीवाली या दुर्गा पूजा में अपने गांव न आते हों, लेकिन छठ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है. आंगन-दुआर इन चार दिनों में चहक उठता है. किसी के पिता आते हैं, तो किसी के भाई-चाचा, लेकिन पर्व के समापन के साथ ही वे लौट जाते हैं, फिर वहीं जहां से उनकी रोजी रोटी चलती है. और इसके साथ ही खाली हो जाता है गांव- घर! बिहार से रोजी-रोटी कमाने बाहर गए लोगों का त्योहार के इस मौसम में घर लौटने का क्रम दशहरा व दिवाली से ही जारी है. चार दिवसीय छठ महापर्व के समीप आते-आते यह चरम पर पहुंच जाता है. इस बार भी लाखों की संख्या में देश के कोने-कोने से लोग बिहार के विभिन्न जिलों में अपने-अपने घर लौट रहे हैं, लेकिन ट्रेन हो या बस या फिर विमान, मारामारी इतनी होती है कि उनके लिए घर पहुंच पाना जंग जीतने से कम नहीं होता. छठ पूजा को लेकर बिहार के लोगों में उत्साह के संग एक पीड़ा भी छुपी रहती है. प्रवासियों के पास स्पेशल ट्रेन की सूचना तो रहती है लेकिन बिहार में रोजगार के लिए कोई स्पेशल जोन की सूचना नहीं रहती है.
दूरी नहीं, फिर लौटने की मजबूरी है देती दर्द
प्रवासियों का मन इस एक पूजा में लंबी दूरी को एक झटके में खत्म कर देता है, लेकिन फिर वे वहीं लौट जाते हैं, जहां से वे आये थे. यदि आप गौर से बिहार सरकार के क्रिया कलापों पर नजर डालेंगे तो बड़े स्तर पर पलायन को रोकने का कोई इंतजाम आपको दिखाई नहीं देगा. छठ के आसपास गांव के हर टोले का एक ही दर्द है - फिर खाली हो जायेगा गांव! लौटने वाले लोगों के परिवार से बात करने पर उनकी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है. बिहार की सरकार को इस पीड़ा से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन एक आम बिहारी हर दिन इस पीड़ा को महसूस करता है. गांव में हम सबने पलायन का दर्द झेला है. गांव के हर टोले में या तो बच्चा मिलता है या फिर बूढ़ा. ऐसे में छठ पूजा बिहार के गांव-घरों के लिए वरदान की तरह भी है. पर्व की बाध्यता ही सही, कुछ हफ्ते के लिए ही सही लेकिन लोग घर आ तो रहे हैं.
छठ के दौरान कुछ दिन के लिए ही सही, भारत का हर हिस्सा बिहार पहुंच जाता है. कामकाजी दुनिया में संघर्षरत लोगों को बिहार चार दिनों के लिए अपने पास बुला लेता है. गांव का सुरेश कहता है कि छठ में घर जाने की खुशी को बयां नहीं किया जा सकता. यह वैसा ही है, जैसे रोजी-रोटी के लिए घर-आंगन को छोड़ कर महानगरों में जाने के दर्द को कोई दूसरा नहीं समझ सकता. नौकरी और जिंदगी के लिए हम अपने आंगन-दुआर को छोड़ कर निकल पड़ते हैं. समाजशास्त्रियों को चाहिए कि छठ में आने-जानेवाले लोगों पर शोध करें, खासकर गांव पहुंचनेवालों पर. इस दौरान केवल लोग ही नहीं आ रहे हैं, उनके संग शहरों की संस्कृति भी गांव पहुंच रही, बोली बानी, गीत संगीत, ड्रेस से लेकर जूते चप्पल तक.
रोजगार का अभाव और पलायन का दंश
छठ में जो गांव आते हैं, उनसे लंबी बातें करते हुए आप इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि रोजगार के अभाव में ही वे रेलगाड़ियों में धक्के खाकर बिहार से भागने के लिए मजबूर हैं. और यह कोई उनकी ही नहीं पीड़ा है, यह उनके बाप - दादा की भी पीड़ा थी और शायद उनकी आने वाली पीढ़ी की भी रहेगी. बिहार का कोई भी जिला उद्योग की नगरी नहीं बन सका है. हम आज भी गौतम बुद्ध, चाणक्य, अशोक, पाटलिपुत्र की महिमा में उलझे हुए हैं और ट्रेन की भीड़ बनकर यहां से वहां भागे जा रहे हैं. हमारा वर्तमान उद्योग- रोजगार से कोसों दूर केवल जमीन, सर्वे, शराबबंदी में उलझा हुआ है, ऐसे में राज्य छोड़ने के अलावे कोई भी रास्ता बिहारी मानस के पास नहीं है. 1990 के दशक से बिहार से पलायन का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह लगातार जारी है. सामाजिक न्याय के नाम पर बनी राज्य और केन्द्र की सरकारों ने बिहार में रोजगार के लिए कुछ भी नहीं किया.
बिहार में आज भी उद्योग धंधों की स्थिति चौपट है. खेतों की जोत छोटी है, परिवार के सदस्यों की संख्या अधिक. इसलिए खेती से पेट भर नहीं रहा. लोग नौकरी के लिए मजबूर हैं. स्किल्ड या अनस्किल्ड, काम या नौकरी दोनों यहां मिल नहीं रही तो लाचारी में वे बाहर जा रहे हैं. गांव की एक दादी बताती है कि साल में एक ही बार वह अपने पोते का मुंह देख पाती है. टुकड़ों में बंटा परिवार छठ के घाट पर एक साथ, एक ही फ्रेम में दिख जाता है. संयुक्त परिवार का पुराना आंगन इन चार दिनों में अपने पुराने अंदाज में नजर आने लगता है. घर इन दिनों में बड़ा हो जाता है.
पर्यावरण, परिवार, पर्व और प्रेम
वहीं दूसरी ओर छठ के बहाने छोटे शहरों की नदियां चहक उठती हैं. दिल्ली में पढ़नेवाला रितेश सौरा नदी के घाट पर एकटक पानी के बहाव को देख रहा है. नाला बनते नदियों की बातें सुननेवाला रितेश सौरा नदी को निहार रहा है. आभासी होते लोगों के लिए गागर, नींबू और सुथनी जैसे फलों को समझने-बुझने का त्योहार है छठ. सब कुछ प्लास्टिक और फाइबर होते इस समय में छठ का मतलब सूप और बांस की टोकरी भी है.
छठ के बाद जब फिर घर-आंगन खाली होने जा रहा है, तब लगता है सचमुच हम अकेले हैं. गांव के अखिलेश काका की अपनी पीड़ा है, अब फिर वे अकेले हो जायेंगे, क्योंकि उनका बेटा सुशील फिर दिल्ली जा रहा है. कटिहार से महानंदा एक्सप्रेस पर सवार होकर वह चला जायेगा. काका फिर से अकेले अपने दुआर पर बैठे मिलेंगे, बिना किसी उत्साह के.छठ के बाद की तसवीर पर भी गौर करें. पलायन-विस्थापन की पीड़ा को हमें समझना चाहिए.
आने-जानेवाले लोगों का हिसाब-किताब भी छठ के बाद जरूरी है. रोजी-रोटी की जिद में प्रवासी बनते हम सब छठ के बहाने ही सही, कुछ ही दिनों के लिए अपने शहर-गांव आते हैं, लेकिन फिर एक दिन किसी सुबह-किसी शाम अपने लोगों को, अपनी माटी को छोड़ कर निकल जाते हैं रोजगार और बेहतर जिंदगी के लिए. कहीं भीड़ बढ़ रही है, तो कहीं से लोग निकल रहे हैं, लेकिन एक दिन सबको लौटना वहीं होता है, जहां से हम सब आते हैं.
[ABP News के लिए यह ब्लॉग लिखा है]
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