फणीश्वर नाथ रेणु का जन्मदिन, हर साल हमें चार मार्च का इंतजार रहता है। यह दिन हमारे लिए खूब लिखने और खूब बात करने का होता है। अनौपचारिक ढ़ंग से, जैसा रेणु का जीवन रहा, कुछ - कुछ वैसा ही दिन गुजारने की हमारी तमन्ना रहती है।
चार मार्च को चनका रेसीडेंसी में हमने रेणु की दुनिया में डुबकी लगाने का प्रयास किया। रेणु के लिखे को पढ़ा गया, बांसुरी की आवाज से हमने रेणु को याद किया, लोकगीत में डूबे रहने वाले, चिड़िया - चुनमुन की आवाजों में जीवन का संगीत खोजने वाले रेणु को हमने बांसुरी और गिटार की आवाज से आवाज दी, इस उम्मीद से कि आम की मंजरियों को देव भाव से देखने वाले रेणु होंगे कहीं आसपास ही...
यह दिन हमने मंच, कुर्सी और रेणु की तस्वीर के बगैर गुजारने की हर संभव कोशिश की। हिंदी जगत में रेणु की महिमा का जो प्रकाश है उससे थोड़ा पीछे हटकर रेणु के जीवन को बांचने की कोशिश की। हमने रेणु को संत भाव से नहीं बल्कि हमारे गाम - घर के रेणु की तरह याद किया। रेणु को उनके लिखे ' विषयांतर ' की तरह हम सबने याद किया।
यह दिन खास इसलिए भी रहा क्योंकि हमने गिनती के ही सही लेकिन युवाओं के बीच रेणु की बात की। यह दिन इसलिए भी खास रहा क्योंकि जिला पूर्णिया के साहित्य - कला अनुरागी जिलाधिकारी राहुल कुमार हम सबके संग रेणु की दुनिया में डुबकी लगाते रहे, वे चुपचाप लगभग तीन घंटे पालथी मारकर जमीन पर बैठे रहे, उस मोटे कपड़े की दरी पे, जिसका सीधा संपर्क माटी से होता है , माटी का वही स्पर्श, जिसकी बात रेणु अक्सर करते थे।
बांसुरी, गिटार , रेणु साहित्य का पाठ, यह सब सुनते हुए राहुल कुमार हम लोगों को छात्र की तरह दिखे। उनकी उपस्थिति से हमने यही सीखा कि आप अपने व्यस्त समय के बीच कला - साहित्य - समाज के लिए वक़्त निकालते हैं तो इसका अर्थ यही हुआ कि अपने मन की सुन रहे होते हैं।
बातचीत की शुरुआत चिन्मया नंद सिंह के पाठ से हुई। उन्होंने बहुत ही रोचक अंदाज में रेणु का पाठ किया। रेणु ने अपने जन्म की जो कथा लिखी है, उसका कुछ अंश उन्होंने पढ़ा, संग ही रेणु के मुंबई प्रवास को लेकर खुद रेणु का जो संस्मरण है, उसका पाठ किया गया।
रेणु की हर बात होती रही, उस रेणु की बात हुई जिसके बारे में इस अंचल में ढेर सारी, रंग बिरंगी कहानियां हैं। यहां की बोलचाल में रेणु हैं। ऐसे में रेणु के जीवन के अन्य पक्षों पर भी बात हुई। उस रेणु पर बात हुई जो शायद ' ब्रांड को लेकर सबसे अधिक सचेत ' था।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित रेणु रचनावली का शुक्रिया हमेशा रहेगा क्योंकि पांच खंड में सम्पूर्ण रेणु हमें नसीब हुए।
रेणु पाठ के बाद हम सब रेणु को खोजने लगे अपनी बातचीत में। रेणु की ही क्यों, निराला की बात हुई, मोहन राकेश की बात हुई, राजेंद्र यादव की बात हुई और तो और रवींद्र नाथ ठाकुर की बात हुई। इन सब बातचीत के सूत्रधार बने जिलाधिकारी राहुल कुमार। वे जब बात कर रहे थे तो हमने महसूस किया कि वे हमें समालोचना का पाठ पढ़ा रहे हैं।
राहुल कुमार ने छंद से मुक्ति की बात की। साहित्य की बात करते हुए उनकी सहजता कई रंगों में सामने आई। वे आज के दौर के पाठकों की बात करने लगे, किताब - डिजिटल दुनिया, पश्चिम का साहित्य, इन सब मुद्दों पर उन्होंने अपनी राय रखी।
राहुल कुमार को हम सब जब सुन रहे थे मेरे जैसे श्रोता का मन कबिराहा मठ की यात्रा करने लगा था। रेणु या किसी भी साहित्यकार को पढ़ते हुए हम उसकी कृति का अवलोकन किस अंदाज में कर सकते हैं, रेणु की दुनिया में बैठकर राहुल कुमार ने हमें इस पर विस्तार से , सहज तरीके से बताया। उन्हें सुनकर लगा कि
परंपरा से विद्रोह करते हुए हम स्वयं अपनी उपलब्धियों से भी विद्रोह करते हैं और जब हम अपनी उपलब्धियों का विद्रोह करते हैं तो हमारी रचना और भी अलग रंग में, अलग रूप में सामने आती है।
रेणु का जन्मदिन हमें हर साल नया पाठ पढाता आया है। साहित्य के इतर रेणु के बहाने हम खूब बातें करते हैं। किताब पढ़ते रहने की बात हुई, डिजिटल स्पेस में पढ़ते रहने की बात हुई। इस अनौपचारिक रेणु बैठकी में विषेक चौहान ने खूब पढ़ते रहने की बात की। ये सब बातें हमने गाम - घर की दुनिया में की, दरअसल यही रेणु के इस अंचल की ताकत है।
माटी के कप में चाह की चुस्की के संग हमने बेबाक होकर रेणु के जीवन पर बात की, रेणु की प्रसिद्धि का महिमा मंडन नहीं बल्कि रेणु जो थे, उसकी बात हुई। रेणु स्केच, रिपोर्ताज लिखते थे, खूब चिट्ठी लिखते थे, ऐसे रेणु की बात हुई। इस बातचीत में गांधी की बात हुई, गांधी की बात हमें सबल बनाता है। नेहरू का अपने जीवन में लगातार लिखने की आदत पर बात हुई। जेल में बिताए दिनों में नेहरू के लेखन पर बात हुई। बातचीत में इतने सारे रंग भरने का काम राहुल कुमार ने किया। एक जिलाधिकारी का पाठक रूप हम लोगों ने रेणु के बहाने देखा।
रेणु के पूर्णिया के इस जिलाधिकारी की वह बात आज भी हमारे मन में बैठी है जो उन्होंने पूरैनिया महोत्सव के समापन कार्यक्रम में मंच से कहा था - " रेणु जी का जो कर्ज था उसे कुछ हद तक चुकाया है। "
रेणु का ऋणी होना क्या होता है, इसे समझने के लिए हमें रेणु के साहित्य, उनके जीवन के हर एक पहलू को समझना बूझना होगा। दरअसल रेणु सबकुछ देखते-भोगते शहर - गांव करते अंचल की कथा बांचते थे।उनका लोक संपर्क ही उनके लेखन का ' रॉ मैटेरियल ' था।
दोपहर दो - ढाई से सांझ कब हो गई पता ही नहीं चला, चार मार्च 2020 भी गुज़र गया, रेणु का जन्मदिन गुज़र गया।
चनका गांव से शहर पूर्णिया हम सब लौट आए, क्या लेकर लौटे यह सब अपने अपने अंदाज में बताएंगे लेकिन रेणु की ही बोली बानी में कहिए तो : " घाट न सूझे, बाट न सूझे, सूझे न अप्पन हाथ..'
1 comment:
काका मुझे इस बात का बहुत गम है कि मेरे उम्र के लोग रेणु के पास नहीं मुझे रेणु जी को और जानना है और अपने उम्र तक पहुंचना है
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