Monday, April 10, 2017

चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल की ख़बरों के बीच...

पूर्णिया में एक मोहल्ला है -श्रीनगर हाता। कलक्टर साहेब और अन्य आला अधिकारियों का आवास इसी मोहल्ले में है, इसलिए इलाक़ा सबसे साफ़ है। आज सुबह सुबह यहाँ दो ट्रक दिखे, जिसमें गांधी जी की बड़ी-बड़ी तस्वीर लगी थी। ट्रक को रथ का लुक दिया गया है। गांधी जी के चम्पारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष के अवसर पर बिहार सरकार ने उनके संदेश, विचारों एवं जीवन पर बने फ़िल्म को आम लोगों के बीच पहुँचाने की योजना बनाई है। रथनुमा ट्रक के पास ही एक युवक से मुलाक़ात होती है। बातचीत के दौरान उसने बताया ' सब गांधी-गांधी हो गया है भैया। बिहार सेलिब्रेशन के मूड में है। अपना बिहार अब इवेंट स्टेट बन गया है।"

बिहार से बाहर पढ़ाई कर रहे इस युवा की बात मैं सुनता रहा। घर लौटकर जब अख़बार देखा तो गांधी जी से सम्बंधित लेख से समाचार पत्र भरे थे। यह सब पढ़ते हुए जिस दूसरी ख़बर पर नज़र टिकी वह थी- 'श्रीनगर में ख़ूनी मतदान फ़ायरिंग में छह की मौत '। 

चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल की ख़बरों , समारोह की सूचनाओं के बीच हम सब किस मोड़ पर खड़े हैं, इस पर विचार किया जाना चाहिए। गांधी जी को याद हम सब साल में दो बार तो ज़रूर ही करते हैं लेकिन उनके बताए रास्ते पर क्या हम चल रहे हैं ? 


पूर्णिया में गांधी जी के नाम पर दो मुख्य आश्रम हैं, एक टिकापट्टी में और दूसरा रानीपतरा में। दोनों ही आश्रम अब बस नाम के हैं। सबकुछ टूट चुका है । पता नहीं सत्याग्रह के सौ साल के नाम पर इन आश्रमों की साफ़-सफ़ाई हुई या नहीं। हमारे प्रिय मित्र सुशांत झा एक बार पूर्णिया आये थे तो उनके संग टिकापट्टी गया था लेकिन वहाँ गांधी जी के बारे में  बताने वाला कोई नहीं मिला। सुशांत भाई ने रामचंद्र गुहा की किताबों का अनुवाद किया है. गांधी जी के शुरुआती जीवन और राजनीतिक सफ़र पर गुहा ने 'गांधी भारत से पहले' किताब लिखी है और उनकी दूसरी किताब जिसने मुझे गांधी जी के क़रीब पहुंचाने का काम किया वह है - 'भारत गांधी के बाद.'

गांधी जी की बातें अभी हम सभी कर रहे हैं लेकिन इसकी भी वेलेडीटी पीरियड होगी, कार्यक्रम ख़त्म तो बातें भी ख़त्म। लेकिन क्या यह उचित है? याद करिए प्रकाश उत्सव  के बाद भी क्या पटना उतना ही चमक रहा है, जैसा इवेंट के दौरान जगमग कर रहा था? इस पर बहस होनी चाहिए। 

हमारे ज़िले में बुनियादी विद्यालयों की स्थिति पर कोई नहीं बात कर रहा है। मेरी बुआ 1960 से 1962 तक पूर्णिया ज़िला के श्रीनगर इलाक़े में स्थित एक बुनियादी विद्यालय में पढ़ती थीं। उनकी उम्र अभी 70 साल है। उन्होंने बताया कि उस वक़्त विद्यालय आश्रम की तरह था। सूत काटना उन्होंने वहीं सीखा। बुआ को जब उनके विद्यालय ले गया तो वह फफक फफक कर रोने लगी। बिखर गया था उनका स्कूल। बुनयादी विद्यालय के समीप ही एक विशाल भवन बनकर तैयार था, जिसे मॉडल स्कूल कहा जा रहा है, करोड़ों की लागत वाला। लेकिन गांधी विचार वाला विद्यालय कहीं खो गया है। कहते हैं कि बिहार  के मुख्यमंत्री की प्रमुख योजनाओं में एक यह विशाल-भव्य कंकरीट वाला स्कूल भी है। 

सत्याग्रह सौ साल के नाम पर गांधी जी की बातें हम सभी अलग अलग ढंग से कर रहे हैं। हमें उनकी सादगी पर भी बात करनी चाहिए। इवेंट्स मैनेजमेंट के इस दौर में सरकार को उनकी सादगी का नक़ल ही सही लेकिन करना चाहिए। गांधीजी की सादगी हमें खींचती है। कोई आदमी इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद इस तरह की सादगी कैसे बनाए रख सकता है, यह एक बड़ा सवाल है। अब तो एक छोटे से कार्यक्रम के लिए भी हम मोटा बजट बनाने बैठ जाते हैं । वहीं महात्मा ने सादगी कोई दिखाने या नाटक करने के लिए नहीं अपनाई थी. यह उनकी आत्मा से उपजी थी, जब उन्होंने देखा था कि ब्रिटिश हुकूमत में भारत का आम आदमी भूखा और नंगा बना दिया गया है. उन्होंने अपना कपड़ा खुद बुना और खुद धोया और जब वे वायसराय लॉर्ड इरविन से मिले तब भी अपनी चिर-परिचत वेशभूषा में थे जिसे देखकर चर्चिल ने घृणा से उन्हें 'अधनंगा फकीर' कहा था। 

हमने शुरुआत में जिस रथनुमा ट्रक की बात कही है उसके बारे में अख़बार से पता चला कि इसे ग्रामीण क्षेत्रों के पंचायतों में भी घुमाया जाएगा। गांधी जी ने कहा था – “अगर हिंदुस्‍तान के हर एक गांव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्‍वीर की सच्‍चाई साबित कर सकूंगा, जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी.” इस बारे में उनके विचार बहुत स्‍पष्‍ट थे. उनका मानना था कि जब पंचायती राज स्‍थापित हो जायेगा त‍ब लोकमत ऐसे भी अनेक काम कर दिखायेगा, जो हिंसा कभी भी नहीं कर सकती। लेकिन पंचायत व्यवस्था की हक़ीक़त क्या है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है।  ज़मीन पर गांधी जी का ग्राम स्वराज भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है. दुःख होता है, जब उनके ही नाम से शुरू हुई एक योजना में सबसे अधिक लूट हो रही है, जिसका नाम 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना' है. इस योजना में ग़रीबों के नाम पर जो लूटपाट होती है, उसे देखकर मुझे गांधी जी की मौत पर जॉर्ज बर्नाड शॉ की आई टिप्पणी को ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने का मन करता है. शॉ ने कहा था- "गांधी की हत्या बताती है कि अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है..."

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