गाँव में इधर बहुत कुछ हो गया, कुछ बुरा तो कुछ अच्छा। मौसम में जब बदलाव आता है तब गाँव में भी बड़े स्तर पर बदलाव दिखते हैं। अंचल में लगातार यात्रा करते हुए कभी कभी लगता है कि जीवन का बही खाता मोटा ही होता जा रहा है लेकिन इन सबके बीच डायरी के पन्नों में फ़ील्ड-नोट्स जुड़ते जा रहे हैं।
अनुभव की थाली में खट्टे-मीठे अचार सजते जा रहे हैं। हमारे इधर ईमली और चीनी को मिलाकर एक अचार बनता है-'खट-मिट्ठी'। मुँह में जाते जाते हुए ही एक अजीब अहसास होता है। एक साथ , एक ही झटके में खट्टा भी और दूसरे ही पल मिठास।
जीवन में जब भी उलझनों से घिरता हूं तब इस अचार के बनने की प्रक्रिया याद कर ख़ुद को समझा लेता हूं।
हाल ही में गाम के दक्षिण टोले में आग लगी थी। इस महीने जब हवा का ज़ोर होता तब अगलगी की घटना बढ़ जाती है। आग की वजह से बिंदेसर का घर जल कर माटी में मिल गया। मटमेले मिट्टी का रंग काला हो गया। मिट्टी का भंडार , जिसे हम यहाँ 'कोठी' कहते हैं, उसमें एक मन चावल था, सब जलकर राख! सुबह तक बिंदेसर का चेहरा आने वाली विपत्तियों के बारे में सोचकर काला हो चुका था। आँगन में मातम फैला था, लेकिन दोपहर तक टोल के सबलोग एकजुट हुए और बिंदेसर की परेशानियों को बाँट लिया। बिंदेसर के जले घर की काली माटी पर पानी छिड़का गया था, धुआँ अब भी था लेकिन माटी की गंध ने शायद धुआँ को अपने वश कर लिया था। किसी ने बाँस दिया तो किसी ने घास, बिंदेसर का घर बनने लगा। आँगन में बिंदेसर का चार साल का पोता दौड़ लगा रहा था। मानो कुछ हुआ ही न हो।
शाम में टोले के 'पीपल थान' से ढोलक और झाल की आवाज़ें आने लगी थी। रामलखन की आवाज़ में चैता सुनने को मिल रहा था- ""आई गइले चैत के महिनमा हो राम, पिया नहीं आयल।आम मंजरी गेल,लगले टिकोलवा, कोइली कुहुक मारे तनमा हो रामा, पिया नाही आयो।"
बिंदेसर का दुःख इन गीतों और ढोलक-झाल की आवाज़ों में खो गया और ख़ुद बिंदेसर ही मूलगैन बनकर गाने लगा- "जनम लिये रघुरैया हो रामा, चईत महिनवां" । गाँव में रहते हुए जाना कि जीवन में दुख को हरने की कला पीपल थान जाकर ही समझा जा सकता है। गीत की ताक़त यही है, समूह गान का जादू यही है, बाबा नागार्जुन की दुःखहरण टिकिया की तरह।
इन दिनों जीवन के प्रपंचों के बीच इस तरह की घटनाओं को जब देखता हूं तब विश्वास बढ़ जाता है, समूहिकता पर भरोसा जग जाता है। रात भर चाँद और टिमटिमाते तारों के बीच बिजली की रोशनी की आवश्यकता नाटक के उस पात्र की तरह जान पड़ती है जिसे मजबूरी में मंच पर खड़ा किया गया हो। कभी कभी महसूस होता है कि प्रकृति से प्रीत और माटी से इश्क़ चाँद की दूधिया रोशनी और बढ़ा देती है ।
इन दिनों हर शाम खेतों की ओर घूमते टहलते हुये जंगली खरगोशों से मुलाक़ात होती है। भूरे रंग का ख़रगोश बाँस बाड़ी और मक्का के खेतों से दौड़कर निकलता है और फिर किसी दूसरे खेत में छुप जाता है। ख़रगोश की तेज़ी देखकर लगता है वह हर बार बाज़ी जीतकर अपना मोहरा हासिल कर लेता है। ख़रगोश की दौड़ देखकर गाम की पगडंडियाँ कनाट प्लेस के सर्किल को तोड़ती दिखने लगती है, आज़ादी का यह भाव अक्सर गाम से दिल्ली के तार को जोड़ देती है। अनायास ही दिल्ली की सड़कें आँखों के सामने आ जाती है।
इन दिनों ख़ुद को टेलिविज़न और ख़बरों के अन्य माध्यमों से दूर रखने की कोशिश करता हूं। यात्राओं और गाम घर के पुराने लोगों से गुफ़्तगू ज़्यादा करता हूं, इस आशा के साथ कि उनके अनुभवों से कुछ सीख पाऊँ क्योंकि प्रपंच का जाल इतने महीन तरीक़े से समाज में बुना जा चुका है कि हम सब उसमें आसानी से फँसते जा रहे हैं और फँसाने वाला अपनी बाज़ीगिरी से अपनी हाँ में हाँ कहलाने में सफल होता जा रहा है। ऐसे में गाम के बूढ़े लोगों से बातकर अंचल की कथा समझने की कोशिश में जुटा हूं।
इन दिनों गाम के कबीराहा मठ की ओर जाना कम हो गया है। लेकिन पिछले हफ़्ते अनायास ही मोटरसाइकिल उधर मुड़ गयी। मठ का मकान अब पक्का का हो गया है। मठ की ज़मीन पर मक्का लहलहा रहा है , मठ का विस्तार हो रहा है...लेकिन कबीर तो कहते थे -"राम हमारा नाम जपे रे, हम पायो विश्राम..." यहाँ तो कुछ और ही जपा जा रहा है..ख़ैर अब यह कहना कि - "कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर.." वाजिब थोड़े माना जाएगा।
इन दिनों यही सब हो रहा है। हाल ही में आँधी-बारिश हुई थी। नुक़सान हुआ लेकिन बिंदेसर को देखकर अपना नुक़सान तो शून्य लगा। हाँ, किशोरवय बाँस जब इस आँधी में टूटकर बिखर गए तब ज़रूर मन टूटा लेकिन जो अपने हाथ में नहीं है उसपर क्या रोना ! मन टूटता है तो जुड़ भी जाता है न !
1 comment:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन माखन लाल चतुर्वेदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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