शहरों में लोगबाग अपनी बालकनी से बारिश की रिमझिम का आनंद लेते हैं लेकिन गांव की कहानी कुछ औऱ है। मार्च के आखिरी दिनों में बिहार और देश कई हिस्सों में हुई बारिश ने किसानों का दिल तोड़ दिया। एक किसान के तौर पर 30 मार्च मेरे लिए कभी न भूलने वाली तारीख होगी।
उस दिन सुबह से ही मेघ को देखकर भय बना हुआ था। दरअसल कुछ ही दिन पहले मक्का के खेतों को पानी से सींचा था। मिट्टी अभी गिली ही थीं, इतनी गिली की हवा के झोंके में मक्के के जवान पौधे हिलने लग जाए। जो डर था वही हुआ। तेज आंधी और बारिश ने सब चौपट कर दिया।
बिन मौसम बारिश का इन दिनों कहर हर जगह देखा जा रहा है। एक किसान के तौर पर मैं इसे ग्लोबल वार्मिंग का हिस्सा मान रहा हूं। प्रकृति के संग हम जो छेड़छाड़ कर रहे हैं उसका नतीजा किसी अन्य ग्रह के लोग तो नहीं उठाएंगे न ! हमें ही उस कहर को भुगतना होगा।
मुझे याद है पहले बारिश तय समय पर हुआ करती थी। बारिश के वक्त गांव में गीत गाए जाते थे। फसल के अनुरुप बादलों का डेरा लगता था। बारिश मतलब केवल हम बरसात का मौसम समझते थे। जब खूब वर्षा होती थी तो हमारे आंगन के चूल्हे पर तरह तरह की मछलियां लाई जाती थी।
लोगबाग घोंघा खाते थे। मछलियों की ढेर सारी प्रजातियां हमारे खाने की थालियों में दिखने लगती थी। लेकिन लेकिन अब सब दंतकथा जैसी लगती है। बसंत में भी बारिश, सुनकर अजीब लगता था। गर्मी की शुरुआत हुई नहीं कि बारिश की बूंदों ने घर आंगन को जूलाई के महीने का आभास करा दिया।
कोसी के इस पार जहां पूर्णिया आदि जिले हैं वहीं उस पार दरभंगा आदि हैं। हम बचपन में उधर के लोगों के मुंह से सुनते थे कि पूर्णिया बिहार का चेरापूंजी है, कभी भी बारिश होने लगती है उधर ! लेकिन तब बारिश बिन मौसम नहीं हुआ करती थी। इन दिनों हर महीने एक न एक दिन ऐसी बारिश होती है जो हमें आपदा की तरह दिखती है। शायद किसानी कर रहे अन्य लोग इसे अनुभव कर सकते हैं।
दरअसल जब हमारी जरुरत पानी की होती है तब नहीं लेकिन पता नहीं कैसे उस वक्त मेघ अपना रुप विकराल कर लेता है जब हम पटवन कर लिए होते हैं। मेघ को देखकर एक भय का वातावरण पसर जाता है। गांव घर की वह कहावत याद आने लगती है, जिसमें कहा गया है- का बरखा जब कृषि सुखानी...
बिहार में कई जगह तो बारिश के साथ ओले भी पड़े। इसके कारण खेतों में पक रही गेहूं की फसल गिर गयी। जहां गेहूं की फसल को काट कर खलिहान में रखा गया है, वह भींग गया है। आम व लीची के छोटे फल काफी मात्र में गिरे हैं। मुजफ्फरपुर में गेहूं समेत सभी फसलों में बारिश का पानी लग गया है। मसूर, चना सरसों व राई काट कर कुछ किसानों ने अपने दरवाजे पर तो कुछ किसानों ने खेत में ही रखे थे, उनकी फसल भींग गयी है।
सीतामढ़ी में 75 फीसदी गेहूं की फसल गिर गयी। शिवहर में दलहन, गेहूं, आम व लीची को भारी क्षति की सूचना है। दरभंगा के बिरौल में आम व लीची के छोटे दाने काफी मात्र में गिर गये। गेहूं की फसल खेत में गिर गयी है। जिन किसानों ने फरवरी या देर से मक्का लगाया है, उन्हें इस बारिश से थोड़ा फायदा होगा, लेकिन जिनके मक्का बड़े हो गया हैं, उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा है।
मौसम की मार सबसे खतरनाक होती है। अब तो कई लोग मौसम को देखकर ही किसी कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार करते हैं। कुछ कंपनियां ऐसी हैं जो मौसम की सूचनाओं पर नजर रखती है और उस मुताबिक अपने क्लाइंट को व्यापारिक गतिविधियां या पार्टी वगैरह तय करने की सलाह देती है। लेकिन किसान भला ऐसी कंपनियों से राय कैसे ले पाएगी। लेकिन हम आने वाले दिनों में ऐसी आशा तो रख ही सकते हैं कि दिन अच्छे आएंगे।
वैसे यह कटु सत्य है कि नुकसान उठाना किसानी कर रहे लोगों की नियति है। तो भी हम आशा रखते हैं, बेहतर कल को लेकर। दरसल हम किसानों के हाथ में केवल बीज बोना होता है। फसल होगी या कैसी होगी यह बात प्रकृति के हाथों में हैं। असमय बारिश का उपद्रव आँखों की कोरों को गीला कर दिया है।
मेरे जैसे किसानों की उम्मीदें अब मिर्च के खेतों पर है। किसान हार मानता कहाँ है, वो तो आशा भरी निगाहों से बस आसमाँ को निहारता रहता है ... इस आशा के साथ कि इस साल नहीं तो अगले बरस जरूर अच्छी फसल होगी...
लेकिन मार्च के अंत में बिन मौसम बारिश ने हमें यह बता दिया कि कोई तो है जो हमें हमारी गलतियों की सजा हमें सुना रहा है..और ऐसे में मैं कुमार गंधर्व की आवाज में सुनने लगता हूं- “कौन ठगवा नगरिया लूटल हो....”
उस दिन सुबह से ही मेघ को देखकर भय बना हुआ था। दरअसल कुछ ही दिन पहले मक्का के खेतों को पानी से सींचा था। मिट्टी अभी गिली ही थीं, इतनी गिली की हवा के झोंके में मक्के के जवान पौधे हिलने लग जाए। जो डर था वही हुआ। तेज आंधी और बारिश ने सब चौपट कर दिया।
बिन मौसम बारिश का इन दिनों कहर हर जगह देखा जा रहा है। एक किसान के तौर पर मैं इसे ग्लोबल वार्मिंग का हिस्सा मान रहा हूं। प्रकृति के संग हम जो छेड़छाड़ कर रहे हैं उसका नतीजा किसी अन्य ग्रह के लोग तो नहीं उठाएंगे न ! हमें ही उस कहर को भुगतना होगा।
मुझे याद है पहले बारिश तय समय पर हुआ करती थी। बारिश के वक्त गांव में गीत गाए जाते थे। फसल के अनुरुप बादलों का डेरा लगता था। बारिश मतलब केवल हम बरसात का मौसम समझते थे। जब खूब वर्षा होती थी तो हमारे आंगन के चूल्हे पर तरह तरह की मछलियां लाई जाती थी।
लोगबाग घोंघा खाते थे। मछलियों की ढेर सारी प्रजातियां हमारे खाने की थालियों में दिखने लगती थी। लेकिन लेकिन अब सब दंतकथा जैसी लगती है। बसंत में भी बारिश, सुनकर अजीब लगता था। गर्मी की शुरुआत हुई नहीं कि बारिश की बूंदों ने घर आंगन को जूलाई के महीने का आभास करा दिया।
कोसी के इस पार जहां पूर्णिया आदि जिले हैं वहीं उस पार दरभंगा आदि हैं। हम बचपन में उधर के लोगों के मुंह से सुनते थे कि पूर्णिया बिहार का चेरापूंजी है, कभी भी बारिश होने लगती है उधर ! लेकिन तब बारिश बिन मौसम नहीं हुआ करती थी। इन दिनों हर महीने एक न एक दिन ऐसी बारिश होती है जो हमें आपदा की तरह दिखती है। शायद किसानी कर रहे अन्य लोग इसे अनुभव कर सकते हैं।
दरअसल जब हमारी जरुरत पानी की होती है तब नहीं लेकिन पता नहीं कैसे उस वक्त मेघ अपना रुप विकराल कर लेता है जब हम पटवन कर लिए होते हैं। मेघ को देखकर एक भय का वातावरण पसर जाता है। गांव घर की वह कहावत याद आने लगती है, जिसमें कहा गया है- का बरखा जब कृषि सुखानी...
बिहार में कई जगह तो बारिश के साथ ओले भी पड़े। इसके कारण खेतों में पक रही गेहूं की फसल गिर गयी। जहां गेहूं की फसल को काट कर खलिहान में रखा गया है, वह भींग गया है। आम व लीची के छोटे फल काफी मात्र में गिरे हैं। मुजफ्फरपुर में गेहूं समेत सभी फसलों में बारिश का पानी लग गया है। मसूर, चना सरसों व राई काट कर कुछ किसानों ने अपने दरवाजे पर तो कुछ किसानों ने खेत में ही रखे थे, उनकी फसल भींग गयी है।
सीतामढ़ी में 75 फीसदी गेहूं की फसल गिर गयी। शिवहर में दलहन, गेहूं, आम व लीची को भारी क्षति की सूचना है। दरभंगा के बिरौल में आम व लीची के छोटे दाने काफी मात्र में गिर गये। गेहूं की फसल खेत में गिर गयी है। जिन किसानों ने फरवरी या देर से मक्का लगाया है, उन्हें इस बारिश से थोड़ा फायदा होगा, लेकिन जिनके मक्का बड़े हो गया हैं, उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा है।
मौसम की मार सबसे खतरनाक होती है। अब तो कई लोग मौसम को देखकर ही किसी कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार करते हैं। कुछ कंपनियां ऐसी हैं जो मौसम की सूचनाओं पर नजर रखती है और उस मुताबिक अपने क्लाइंट को व्यापारिक गतिविधियां या पार्टी वगैरह तय करने की सलाह देती है। लेकिन किसान भला ऐसी कंपनियों से राय कैसे ले पाएगी। लेकिन हम आने वाले दिनों में ऐसी आशा तो रख ही सकते हैं कि दिन अच्छे आएंगे।
वैसे यह कटु सत्य है कि नुकसान उठाना किसानी कर रहे लोगों की नियति है। तो भी हम आशा रखते हैं, बेहतर कल को लेकर। दरसल हम किसानों के हाथ में केवल बीज बोना होता है। फसल होगी या कैसी होगी यह बात प्रकृति के हाथों में हैं। असमय बारिश का उपद्रव आँखों की कोरों को गीला कर दिया है।
मेरे जैसे किसानों की उम्मीदें अब मिर्च के खेतों पर है। किसान हार मानता कहाँ है, वो तो आशा भरी निगाहों से बस आसमाँ को निहारता रहता है ... इस आशा के साथ कि इस साल नहीं तो अगले बरस जरूर अच्छी फसल होगी...
लेकिन मार्च के अंत में बिन मौसम बारिश ने हमें यह बता दिया कि कोई तो है जो हमें हमारी गलतियों की सजा हमें सुना रहा है..और ऐसे में मैं कुमार गंधर्व की आवाज में सुनने लगता हूं- “कौन ठगवा नगरिया लूटल हो....”
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