![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkX90VwpsZQB0vy9QH4yMnLK3SrlU3_qXj8tqi2q1iY3eEtL37KQPctnf5Cm9rJl-TSnBsQh7A9zinVy_BPLN5k4tWUh2JolfT1a5HCk9TO256Kz91c8h_JxixkhXuJro5wg/s1600/live+hindustan+11+april.jpg)
आम –लीची के नन्हें फलों को जमीन पर बिखरते देखा। किसानी करते हुए ही यह जान सका कि मौसम की मार सबसे खतरनाक होती है क्योंकि यह मार किसान के सपने को उड़ा ले जाती है।
देखिए न किसानी का ‘दुख-राग’ अलापते हुए भी मुझे अपने प्रिय कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ही याद आ रहे हैं। दरअसल वे किसानी करने वाले लेखक थे। वे खेती के अंदाज में लेखन करते थे। वे लेखन के जरिए किसान की नियति-रेखा को सबके सामने प्रस्तुत करने वाले अद्भूत शिल्पकार थे।
साहित्य की तकरीबन सभी विधाओं में बराबर कलम चलाने वाले रेणु आज के ही दिन यानि 11 अप्रैल 1977 को अनंत की ओर कूच कर गए थे। वे भले ही 38 वर्ष पहले हमसे दूर चले गए लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वे आज भी हमारे लिए जीवंत हैं। रेणु पैदाइशी किसान थे इसलिए वे किसानों के दर्द को शब्दों में उकेर देते थे।
आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान.. फणीश्वर नाथ रेणु ने जब यह लिखा था, तब पूर्णिया जिले के किसान इन्हीं दोनों (पटसन और धान) फसलों पर आश्रित थे । लेकिन उस वक्त मौसम इस तरह करवटें नहीं लिया करती थी। किसानी करने वाले लोगों का किसानी से मौसम की मार की वजह से मोह भंग नहीं हुआ था।
अपनी कथाओं के जरिए जन-मानस को गांव से करीब लाने वाले लेखक फणीश्वर नाथ रेणु अक्सर कहते थे कि खेती करना कविता करना है, कहानी लिखना है। रेणु ने एक दफे कहा था, “एक एकड़ धरती में धान उपजाना, उपन्यास लिखने जैसा है। लेखन का ही आनंद मिलेगा खेती करने में।“ साथ ही वे खेती को एक अलग नजरिए से लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करते थे।
बे-मौसम
बारिश में अपने खेतों को उजड़ते देखने के बाद यह सब लिखते हुए मैं भावुक हो चला
हूं लेकिन इसके बावजूद किसानी कर रहे लोगों का भरम नहीं तोड़ना चाहता। हमें आशा है कि किसानों का कल बेहतर होगा।
हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में हैं। बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे, हम जीवठ हैं। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेंगी ये तो हमे पता नहीं लेकिन इतना तो जरुर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मौसम की मार सहने के बाद फिर से खेतों में लग जाना है।
हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में हैं। बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे, हम जीवठ हैं। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेंगी ये तो हमे पता नहीं लेकिन इतना तो जरुर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मौसम की मार सहने के बाद फिर से खेतों में लग जाना है।
मक्का के खेत में पहाड़ी चिड़ियों के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए हंडी को काले रंग से पोतकर फिर से खड़ा करना है, और देखिए न यह लिखते वक्त मुझे फिर से रेणु याद आने लगे हैं। मेरे रेणु खेत-खलिहान में व्याप्त हैं। मैं अंखफोड़वा कीड़े की तरह ‘भन-भन’ करता हुआ मक्का के खेत में उड़ना चाहूंगा ताकि काले बादल के तेवर को समझ सकूं कि कब बरखा होगी और कब खूब धूप उगेगी।
इस कीड़े पर रेणु ने लिखा है- “ एक कीड़ा होता है- अंखफोड़वा, जो केवल उड़ते वक्त बोलता है-भन-भन-भन। क्या कारण है कि वह बैठकर नहीं बोल पाता? सूक्ष्म पर्यवेक्षण से ज्ञात होगा कि यह आवाज उड़ने में चलते हुए उसके पंखों की है। सूक्ष्मता से देखना और पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है। परिवेश से ऐसे ही सूक्ष्म लगाव का संबंध साहित्य से अपेक्षित है । ”
दरअसल रेणु कम शब्दों में अपनी बात रखते थे। बे-मौसम बारिश में गेंहू-मक्का को गंवाने के बावजूद भी रेणु के अंचल के किसान मुस्कुरा रहे हैं क्योंकि उनकी नजर अब अपने उन खेतों पर है जहां फसल अभी भी लहलहा रही है... क्योंकि किसानी कर रहे लोगबाग दुख में भी सुख के अंश खोज लेते हैं।
No comments:
Post a Comment