अरविंद दास |
चेहरे में अपनापन संग एक झोला। अरे हां, अपना फेसबुक कहता है कि मैकबुक भी। दुनिया जहान उन्हें अरविंद दास के नाम से पुकारती है। लेकिन मैं अरविंद दास को उनके लिखे के लिए जानता-पहचानता हूं। जिनके लिखे में परदेश में भी कविताई खुश्बू है, जो ययावर हैं, जिनके शब्द में साहस है। जहां बाबा नागार्जुन की धमक है, जहां मिथिला पेंटिंग की छटा है और मेरे लिए सबसे प्यारी बात, जहां अंचल की याद बेतहाशा है। जी हां, मेरे लिए वहीं अरविंद रहते हैं, अपने ब्लॉग में, लिखते हुए, मुस्कुराते हुए।
अरविंद दास शोधार्थी हैं, लेकिन मेरे लिए वह एक ऐसे ब्लॉगर हैं, जहां सबकुछ ऐसा पढ़ने को मिलता है, जो आजाद है, बंधनों से मुक्त। उनका लिखा, मानो मां के हाथ से बनाया आलू का भरता (सन्ना) हो, जिसमें झोंक के दौरान हींग दिया गया हो। मतलब साफ है, लिखे में सुंगंध जहां मिल जाए, वही अरविंद दास टहलते दिख जाते हैं।
अरविंद दास शोधार्थी हैं, लेकिन मेरे लिए वह एक ऐसे ब्लॉगर हैं, जहां सबकुछ ऐसा पढ़ने को मिलता है, जो आजाद है, बंधनों से मुक्त। उनका लिखा, मानो मां के हाथ से बनाया आलू का भरता (सन्ना) हो, जिसमें झोंक के दौरान हींग दिया गया हो। मतलब साफ है, लिखे में सुंगंध जहां मिल जाए, वही अरविंद दास टहलते दिख जाते हैं।
अरविंद दास के ब्लॉग पर लिखते हुए मन भर जाता है। माटी की खुश्बू के संग शब्दों की ऐसी विरासत मिलती है, जिसमें पाठक जुड़ाव महसूस करता है। यहां का सबसे ताजा पोस्ट- ‘अजब शहर में एक योगी’ है। यहां हम लेखक की ईमानदारी से उस वक्त रूबरू होते हैं, जब वे लिखते हैं- “बचपन में जब ऑल इंडिया रेडियो पर दोपहर में बिस्मिल्लाह खान या सिद्धेश्वरी देवी अपना राग अलापती थीं तब हम रेडियो बंद कर देते थे. तब ना तो संगीत की सुध थी ना समझ…”
दरअसल अरविंद दास शास्त्रीय संगीत के प्रति अपने अनुराग को यहां पेश करते हैं लेकिन एकदम अलग ढंग से, कह सकते हैं एक शोधार्थी का दृष्टिकोण है, जिसमें पाठक कई कोण निकाल सकता है।
मुझे यहां एक पोस्ट अपनी ओर अजीब मोह के संग खींचती है- सावन का संगीत। इसमें एक जगह अरविंद बोलते हैं- “स्मृतियों के एलबम में हम अक्सर चित्रों को सहेजते हैं पर ध्वनियाँ भी अनकहे संग हो लेती हैं. जब-तब आश्रय पा कर ये ध्वनियाँ हमें उद्वेलित कर जाती हैं. इस बार जब सावन में घर गया तो मेरी आँखें पुराने घर को ढूंढ़ रही थी. गाँव से सटे रेलवे हॉल्ट पर डीजल से चलने वाली ट्रेन में कोयले से चलने वाली ट्रेनों की छुक-छुक और घुम-घुम ढूंढ़ रही थी.”
इसे पढ़ते हुए मन की रेलगाड़ी मधुबनी जिले के सकरी होते हुए इशाहपुर पहुंच जाती है, तो ठीक उसी पल पूर्णिया भी। यही है शब्दों की काबिलियत और हम अरविंद दास से जुड़ जाते हैं फटाक से।
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बाबा नागर्जुन पर उनका लिखा- नागार्जुन: सच का साहस के चर्चे के बगैर अरविंद दास को समझना मुश्किल है। यहां वे बाबा को समझाते हैं, मुझे तुरंत कबीर दिखने लगते हैं। मन साधो-साधो करने लगता है। वे बाबा के गाम की बात करते हैं, बाबा के शब्दों की बात करते हैं लेकिन इन सबके साथ वे जिस साफगोई से अपनी बात रखते हैं, वह कला ही है और कुछ नहीं और यह कलाकारी कोई उन्हीं से सीखे।
वे वियना यात्रा की बात रखते हैं, सब कुछ कम शब्दों में लेकिन यादें इतनी कि, पन्ने कम पड़ जाएं। यात्राओं के दौरान वे बड़ी शिद्दत से निर्मल वर्मा को याद करते हैं, इससे पाठक भी अपना जुड़ाव महसूस करने लगता है। वे अपने ब्लॉग पोस्ट के शीर्षकों पर मानो दिल से काम करते हैं, नहीं तो कोई शीर्षक में यह नहीं लिखेगा- “धूप चमकती है, चांदी की साड़ी पहने..”
अरविंद दास का एक पोस्ट पढ़ते हुए मुझे जगजीत सिंह की गायी एक गजल याद आती है, जिसे वे कहते हैं- “रेखाओं का खेल है मुक्कदर, रेखाओं से मात खा रही हो …”। मैं जिस पोस्ट की बात कर रहा हूं, वहां अरविंद कहते हैं- “गुदरीया बाबा हमारा भी हाथ देखते थे. क्या हमारे हाथ में विद्या रेखा है, क्या हम विदेश जाएँगे बताइए ना, हम उनसे पूछते थे. फ्रैंकफ़र्ट एयरपोर्ट पहुँच कर मैंने एक बार फिर से अपने हाथ को उलट-पुलट कर देखा, हां चंद्र पर्वत पर एक रेखा तो है शायद...!”
अरविंद के इस पोस्ट को पढ़ते हुए मैं भावुक हो जाता हूं। जल्दी भावुक होने वाला यह शख्स आंख की कोर को पोछने लगता है, चुपके से..।
लेकिन अरविंद दास का जो पोस्ट मेरे सबसे करीब है, वह है- “थिसिस लिख रहे हो क्या..”। यहां वे मां के जरिए अपनी बात रखते हैं, साथ ही अपने पिता की एक बात को वे बड़े सलीके से रखते हैं।
मिथिलांचल से ताल्लुक रखने की वजह से उनकी यह बात मुझे करीब लगी। वे लिखते हैं- “ पापा कहते थे कि ‘स्कॉलर बनो’. मिथिला के उस कूपमंडूक समाज में पता नहीं उनके दिमाग़ में यह बात कैसे आई. मैथिलों ने ‘पोथी-पतरा-पाग’ में से पोथी को बोझ समझ कर बहुत पहले ही त्याग दिया लेकिन पतरा और पाग से वे चिपके रहे…”
लेकिन अरविंद दास का जो पोस्ट मेरे सबसे करीब है, वह है- “थिसिस लिख रहे हो क्या..”। यहां वे मां के जरिए अपनी बात रखते हैं, साथ ही अपने पिता की एक बात को वे बड़े सलीके से रखते हैं।
मिथिलांचल से ताल्लुक रखने की वजह से उनकी यह बात मुझे करीब लगी। वे लिखते हैं- “ पापा कहते थे कि ‘स्कॉलर बनो’. मिथिला के उस कूपमंडूक समाज में पता नहीं उनके दिमाग़ में यह बात कैसे आई. मैथिलों ने ‘पोथी-पतरा-पाग’ में से पोथी को बोझ समझ कर बहुत पहले ही त्याग दिया लेकिन पतरा और पाग से वे चिपके रहे…”
इसी पोस्ट में आगे अरविंद दास शोध की दुनिया का जिक्र करते हैं। शोध के प्रति अनुराग की व्याख्या करते हैं। वे सीधे कहते हैं- “शार्ट कट के रास्ते सब कुछ संभव है, शोध नहीं…”
तो यदि वक्त हो तो जरुर जाएं अरविंद दास के ब्लॉग पर, यकीन मानिए आप निराश नहीं होंगे। पता वही है- अरविंद दास
7 comments:
शुक्रिया गिरिंद्र. पर क्या कहूँ...कुछ ज्यादा है अपनापन इसमें...आलोचना लिखते तो मेरे काम का कुछ होता...खैर! अच्छा लगा आपने अपने ब्लॉग पर मेरे ब्लॉग का जिक्र किया. बेहतर लिखने का और प्रयास करुँगा...
देखिए, आलोचना नहीं कर सकता क्योंकि पढ़े से आनंद मिला, जिस दिन उसमें कुछ कमी मिलेगी तो जरुर आलोचनात्मक प्रतिक्रिया दूंगा। शुक्रिया।
अरविन्दजी से परिचय कराने के लिए आभार आपका ...बहुत अच्छा वर्णन किया है
Arvind Ji ka likha to pahte aaye hain Mohalla me. Apne blog ka address dekar achcha kiya ab aur gahrai me utarane ko milega.
Waise Girindra Bhai, kabhi ham par bhi likh daliye kuchh. Ha ha ha. Mazak hai, sahi me na likh daliyega.
क्या खूब परिचय दिया है अरविन्द जी का आपने...अब बिना वहां गए रुकना मुश्किल है...
नीरज
अरविन्द जी से परिचय कराने के लिए आभार
अरविंद दास जी को पढ़ा, अच्छा लगा.
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