Tuesday, April 21, 2009

अब लौटने का मन नहीं करता

अब इस शहर से लौटने का मन नहीं करता
अपने शहर की याद आती है लेकिन मन यहीं रहता है।

दिन भर की मेहनत और मंडी हाउस की शाम
अपने शहर को मुझसे दूर कर देती है

बरस हो गए अपने शहर गए
फिर भी सपनों में ही आता है अपना शहर

दोस्त भी अब वहां से कट गए
घर भी जैसे मानो होटल हो गया

हम गए, ठहरे खाया और अपनों से कहा- कैसे हैं आप
लोग कहने लगे है कि मैं अब शहरी हो गया

कभी सोचते थे कि लौट जाएंगे इस शहर से
रहने लगेंगे अपने शहर के अपने मकान में

पर अब मन नहीं करता यहां से लौटने का
सुना है अब वहां के लोग भी इसी शहर की तरह ढल गए हैं

वैसे सच कहूं तो सपनों में अभी भी वहीं लौटने का मन करता है
अपने शहर से दूर अपने गांव में रहने की ख्वाहिश.......................

8 comments:

Mohinder56 said...

लाखों लोगों की यही ख्वाहिश है कि वह अपने देस(गांव या शहर) लौट चलें परन्तु कभी दिल और कभी पेट कमबख्त आडे आ जाता है

Udan Tashtari said...

वैसे सच कहूं तो सपनों में अभी भी वहीं लौटने का मन करता है
अपने शहर से दूर अपने गांव में रहने की ख्वाहिश.......................

--सच कह रहे हो, मित्र..मगर कितना कुछ तो बदल गया है.

सुभाष चन्द्र said...

सच कहते हैं भाई,
ग़ालिब भी इसी से इतेफाक रखते थे, कौन जाय भला दिल्ली की गलियां छोड़कर.
पर मुस्किल ये है की गाँव की याद सताती है..

कमलेश प्रसाद said...

मन भी जैसे घडी का पेन्डुलम ही तो है..........

आशीष कुमार 'अंशु' said...

Sahee Likhe GIRINDRA BHAII

सुशील छौक्कर said...

गिरीन्द्र बाबू दिल्ली का जादू ही ऐसा है। वैसे रचना बहुत ही सुन्दर बन गई।

विनीत कुमार said...

इस शहर में बैठकर जब
अपने शहर को लेकर सोचते हैं तो
वहीं से सोचना शुरु करते हैं
वहीं तक सोचते रहते हैं जहां तक
हमने शहर को
साइकिल की पैंडल मारने के बाद छोड़ दिया था
जहां हमने निक्की को एक कार्ड दिया
औऱ वो लजाकर भाग गयी थी
जहां हमने बल्ब के निचले हिस्से का अल्युमिनियम निकालकर
बदलकर,सोनपापड़ी खाए थे
और जहां हमने अपनी जिद में पापा से कहा था
आप रहने दीजिए,हम अपना देख लेंगे।
हम शहर से बड़े होकर आए थे
औऱ यहां आकर अपने को अभी भी
बच्चा समझ रहे हैं
शायद इसलिए लौटना चाहते हैं वहां
लेकिन अब वो शहर भी
जवान हो चुका है, व्यावहारिक भी
इसलिए हम नाहक आने-जाने का झंझट
मोल लेना नहीं चाहते
हमने अब इसी शहर से प्यार
करना शुरु कर दिया है।....

SKV said...

गिरीन्द्र भाई,
"अब लौटने का मन नहीं करता" पढ़ कर अच्छा लगा लेकिन मन में एक टीस भी उठी. अपने घर जैसा और कुछ नहीं होता. इसलिए अपने मन में इस विचार को मरने मत दीजिए कि "अब लौटने का मन नहीं करता".
मेरे विचार में अपनी माटी अपनी ही होती है. इससे अलग होकर मन को कहीं चैन नहीं मिलता, कम से कम मेरा तो ऐसा ही मानना है. हाँ, काम धंदे के लिए देशाटन तो करना ही पड़ता है. लेकिन रूह को चैन अपनी माटी ही देती है.
मैं अपने गाँव से दूर जाकर कितनी ही तरक्की क्यों न करलूं लेकिन जबतक मेरा घर मेरा गाँव नहीं सुधरेगा मेरी तरक्की के शायद कोई माने नहीं होंगे. मेरा तो ऐसा ही मानना है.

शेष फिर !
आपका
श्रीकृष्ण वर्मा
team-skv.blogspot.com