Saturday, January 25, 2025

दिन डायरी

आज का दिन कचहरी, दफ्तर आदि के चक्कर में गुज़र गया। दिन को गुजरना तो होता ही है!  

शहर पूर्णिया में जहां कलक्टर बैठते हैं, उसी परिसर के एक हिस्से में रजिस्ट्री ऑफिस भी है, जमीन जगह के कागजात का एक पुराना घर भी है। आसपास वकील, स्टाम्प वेंडर, टाइपिस्ट आदि का जमावड़ा लगा रहता है।

चाय की चुस्की से लेकर भोजन पानी का सिलसिला इधर चलता रहता है। आज कुछेक स्टाम्प के लिए उधर जाना हुआ, शुरुआत में कलक्टर दफ्तर के पास पत्रकार दोस्त सब मिल गए, हालचाल हुआ फिर आगे बढ़ गया। 

बिहार के मुख्यमंत्री पूर्णिया आने वाले हैं, सो सरकारी दफ्तरों के आसपास चमक दिख रही थी। एक पुराने, लगभग खत्म हो चुके तथाकथित तालाब को रंग दिया गया था, ऐसा लग रहा था मानो गड्ढे को कंक्रीट से तालाब बना दिया गया हो! 

खैर, अपना काम स्टाम्प लेना था, कोर्ट कचहरी जाना था, इसलिए आगे बढ़ गया। 

कुछ काम और जगहें ऐसी होती हैं, जहां पहुँच कर आप 'अतीत' हो जाते हैं, स्मृतियों में खो जाते हैं। अपने लिए शहर का यह ठिकाना कुछ ऐसा ही है। 

वकीलों के बीच से गुजरते हुए न्यायाधीश तक पहुंचते हुए पिता के जान पहचान के कई लोग मिल गए। इन मुलाक़ातों से हम समृद्ध ही होते हैं। 

इन मुलाक़ातों के दौरान हुई पुरानी बातों में 'पिता' दिख गए। मुँह में पान दबाए बुजुर्ग जब मुस्कान लिए मिलते हैं और बातचीत में जिक्र बाबूजी का हो जाता है तो लगता है कोई पुरानी चिट्ठी मिल गई हो! एक ने बताया, "आपको मालूम है कि आपके पिता का सबसे अधिक समय कचहरी में गुजरता था? जमीन के काग़ज़ों में, जमीन के झगड़ों में.... तो भी परेशानी के बीच उनकी मुस्कान हमेशा बनी रहती थी...! "

सचमुच हमने जब से होश सम्भाला बाबूजी को जमीन संबंधित मुकदमों में ही फंसे देखा। संथाल विद्रोह से लेकर अन्य गुटों से जमीन के मालिकाना हक को लेकर उनकी कानूनी लड़ाई लम्बे समय तक चलती रही। उनका कोर्ट कचहरी पर भरोसा था!

बाद बांकी उनके गुजरने के बाद उनकी लिखी डायरियों और चिट्ठी पतरी के मोटे मोटे फाइलों से उनका सच जान पाया! उनके एकाकी संघर्ष को जान पाया...

खैर, काम काज पूरा होने के बाद घर लौटते वक्त गांव-घर के कुछ लोग दिख गए। शहर खींच ही लेता है, किसी को मुसीबत में तो किसी को लोभ में ! यही शहर की माया है! 

[2025 का पहला ब्लॉग पोस्ट]

1 comment:

Anonymous said...

👏🏻👏🏻