Thursday, February 13, 2025

अथ सीसीटीवी कथा

कई चीजें जीवन में घटनाओं के जरिए आती है, ऐसी ही एक चीज है- सीसीटीवी कैमरा! बीते 8 फ़रवरी को शहर पूर्णिया वाले मेरे घर में चोरों ने ढंग से उत्पात मचाया। और इसी बदरंग घटना की वज़ह से सीसीटीवी कैमरे का जाल अपने घर आया!

8 फ़रवरी को सुबह सवेरे पूर्णिया के नवरतन हाता स्थित आवास में छत के रास्ते चोर फर्स्ट फ्लोर के फ्लैट में आसानी से प्रवेश करता है और किराएदार को लाखों की चपत लगाकर निकल जाता है। दरअसल किराएदार घर में था नहीं जिसका अंदाजा शायद चोर को था।
इस डिजिटल युग में चोरी की घटनाओं पर नजर डालने के लिए बाजार में सीसीटीवी कैमरे ने अपनी ऐसी जगह बना ली है, जैसे बुखार के मामले में पैरासिटामोल!

चोर शातिर होता ही है, इसलिए उसने रास्ता वही अपनाया जहां कैमरा नहीं लगा था। इस घटना के बाद पुलिस और मीडिया से जुड़े मित्रों का तुरंत सहयोग मिला और प्राथमिकी ( FIR) भी दर्ज हुई। पुलिस अनुसंधान में जुटी है।

ये तो हुई घटना की बात लेकिन इस घटना ने मुझे सीसीटीवी कैमरे के करीब लाकर खड़ा कर दिया। चोरी की वजह से मुझे भी अपने घर को सीसीटीवी कैमरे की कैद में करने को मजबूर कर दिया। 

दुनिया भर में लोग इस उपकरण की चपेट में हैं। एक वेबसाइट के अनुसार दुनिया भर में 770 मिलियन कैमरे हैं जो खतरनाक अपराध दरों को रोकने में मदद करते हैं। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है लेकिन इतना तो सही है कि हम सब चोर की निगाह से बचने के लिए सीसीटीवी कैमरे की निगाह में कैद हो चुके हैं। 

मोबाइल ने तो पहले से ही हमें अपनी गिरफ्त में कर रखा है अब बड़ी तेजी से दीवार से लेकर खंभों तक में टांगे गए कैमरों की नजर हम सब पर बन चुकी है।

पूर्णिया के नवरतन हाता में जहां अपना घर है, ठीक उसके सामने बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का एक ऑफिसनुमा बड़ा सा कैम्पस है, यहां यह इसलिए लिखा जा रहा है क्योंकि जगह की पहचान घटनाओं के जिक्र में काफी मायने रखती है।

पूर्णिया पुलिस के जो अधिकारी घटना के तुरंत बाद आए, उनकी तेजी और कार्यशैली ने प्रभावित किया। लेकिन जिस तरह राज्य भर में चोरी और अन्य अपराध की घटनाएं हो रही हैं, उसपर केवल चिंता जाहिर करने से काम नहीं चलने वाला है।

चोरी की घटना की वज़ह से एक बड़ा खर्च कैमरे से कैम्पस को तथाकथित तौर पर सजाने में भी बर्बाद हुआ है और चोर के रास्ते को राज मिस्त्री के मार्फत बंद करने का खर्च सो अलग!

खैर, कैमरे से याद आया कि नासा के साथ मिलकर निकॉन ने अपना मिररलेस कैमरा स्पेस में भेजा है, Nikon Z9, जो इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में पहुंच चुका है। इसका इस्तेमाल पृथ्वी की तस्वीरें खींचने के लिए किया जाएगा। ये पहला मिररलेस कैमरा है, जिसे स्पेस स्टेशन भेजा गया है। 

कैम्पस में हुई चोरी और फिर सीसीटीवी कैमरे से घर के कोनों कोनों को कैद करवाते वक्त मनोज बाजपेयी की एक फिल्म की खूब याद आ रही थी - 'गली गुलियां '

यह एक साइकोलॉजिकल ड्रामा है जो शहर की दीवारों और अपने दिमाग की उलझन में फंसे एक चुप्पी साधे व्यक्ति के बारे में है। यह फिल्‍म खुद को अपने दिमाग की दीवारों के कैद से आजाद करने की कहानी है।

फिल्म में मनोज बाजपेयी की दुनिया रहस्यमयी है। सिनेमाई पर्दे पर वह अकेलेपन की जिंदगी जी रहे होते हैं। फिल्म के चुप्पी साधे नायक ने अपना एकांत खुद चुना है लेकिन दूसरों की जिंदगी में चोरी-छुपे झांक कर खुद को व्यस्त रखता है। 

फिल्म का नायक पेशे से इलेक्ट्रीशियन है और पुरानी दिल्ली की गलियों और कई लोगों के घरों में उसने सी सी टी वी कैमरे फिट कर दिए हैं। घर में लगे कंप्यूटर पर वह सबकी जिंदगियों पर नजर रखता है कि कहां-क्या-क्यों हो रहा है। बिजली के उलझे तारों की तरह ही उसके बाल-दाढ़ी हैं और वह मनोरोगी लगता है।

यह सब लिखते वक्त सीसीटीवी के तार की दुनिया और फिर उस कैमरे में दर्ज फुटेज को खंगालते पुलिस विभाग के लोगों के बारे में सोचने लगता हूँ, सचमुच सीसीटीवी की मायावी दुनिया एक समानांतर दुनिया बनाने में जुट गई है!

Sunday, February 09, 2025

मेला किताबों का 2025

जब दिल्ली में था तो गाम के मेले को याद करता था। मेले की पुरानी कहानी बांचता था, और अब जब दिल्ली से दूर अपने गाम-घर में हूं तो 'किताब मेला' और 'जलसाघर ’ की याद आ रही है। क्योंकि आज पुस्तक मेला का अंतिम दिन है!

कॉलेज के दिनों में और फिर ख़बरों की नौकरी करते हुए प्रगति मैदान अपना ठिकाना हुआ करता था, पुस्तकमेले के दौरान। दिन भर उस विशाल परिसर में शब्दों के जादूगरों से मिलता था, उन्हें महसूस करता था।

हर बार अनुपम मिश्र से मिलता था। बाजार की चकमक दुनिया को अपनी बोली-बानी से निर्मल करने का साहस अनुपम मिश्र को ही था। अब जब वे नहीं हैं तो लगता है कि तालाब में पानी कम हो गया है, आँख का पानी तो कब का सूख गया...

उसी पुस्तक मेले में अपने अंचल के लोग मिल जाते थे तो मन साधो-साधो कह उठता था। अपने अंचल के लेखक चंद्रकिशोर जायसवाल से वहीं पहली दफे मिला था।

लेकिन समय के फ़ेर और खेती किसानी करते हुए हम धीरे धीरे इस मेले से दूर होते चले गए, शायद जीवन की माया यही है!

समय के फेर ने इस बार भी समय ने किसान को प्रगति मैदान से दूर रख दिया है लेकिन आभासी दुनिया में आवाजाही के कारण पुस्तक मेले को दूर से ही सही लेकिन महसूस कर रहा हूं।

मेले में मैथिली का मचान भी लगा है साथ पोथी घर भी , जहां दिल्ली वासी मैथिल प्रवासी का जुटान हो रहा है। उसको लेकर मन उत्सुक है। बार-बार फ़ेसबुक पर मैथिली मचान और पोथी घर का अपडेट देखता हूं। अपने सुशांत भाय की आज तस्वीर देखी, सत्यानंद भाई जी के जरिए,  मन खुश हो गया।

आज गाँव में खेत की दुनिया में जीवन की पगडंडी तलाशते हुए किताबों की उस मेले वाली दुनिया की ख़ूब याद आ रही है। इसी बीच आभासी दुनिया की वजह से राजकमल प्रकाशन की दुनिया में  'जलसाघर ’ का सुख ले रहा हूं।

तस्वीरों और विडियो ज़रिए पता चल रहा है कि मेले में खूब लोग आ रहे हैं,  आज भी। यह सब देखकर अच्छा लगता है।  और चलते-चलते इस किसान की किताब ‘इश्क़ में माटी सोना’ को भी राजकमल प्रकाशन समूह के स्टॉल में देखा, किताब को देखने का अपना अलग ही सुख है! 

Thursday, February 06, 2025

पतझड़ सावन बसंत बहार!

पछिया हवा का ज़ोर आज ख़ूब दिख रहा है। तेज़ हवा के संग धूल जब देह से टकराता है न तो गुदगुदी का अहसास होता है। 
बसंत की झलक आज दिखने लगी है। मानों झिनी झिनी चदरिया से कोई हमें देख रहा हो। गाम में आज गाछ -वृक्ष की पत्तियाँ उड़ान भर रही है। सरसों के खेत से एक अलग तरह की महक आ रही है। 

सरसों के पीले फूल की पंखुड़ी इन हवाओं में और भी सुंदर दिख रही है। लीची की बाड़ी में इस बार मधुमक्खियों ने अपना घर बनाया है। पछिया हवा की वजह से मधुमक्खियाँ भी झुंड में इधर उधर उड़ रही है।
उधर, पछिया हवा के कारण बाँस बाड़ी मुझे सबसे शानदार दिख रहा है- एकदम रॉकस्टार! दरअसल इन हवा के झोंकों में बाँस मुझे रॉकस्टार की तरह लग रहा है। बाँस की फूंगी और बाँस का बीच का हिस्सा जिस तरह डोल रहा है , उसे देखकर लगता है कि बॉलीवुड का कोई नायक मदमस्त होकर नाच रहा है। 

इन हवाओं के संग रंगबिरंगी तितलियाँ भी आई है। मक्का के खेत में इन तितलियों ने डेरा जमाया है। मक्का के गुलाबी फूलों से इन तितलियों को मानो इश्क़ हो गया है !

पीले रंग की तितली जब मक्का के नए फल के लिए गुलाबी बालों में उलझती है तो लगता है कि प्रकृति में कितना कुछ नयापन है! इन्हीं गुलाबी बालों में मक्का का भुट्टा छुपा है। 

पछिया हवा के इन झोंकों से खेत पथार भी देह की माफ़िक़ इठलाने लगा है। फ़सलों के बीच से गुज़रते हुए आज यही सब अनुभव कर रहा हूं। पटवन का काम हो चुका है इसलिए मोबाइल पर देहाती दुनिया टाइप करता रहता हूं।

गाम घर का जीवन मौसम की मार के गणित में यदि फँसता है तो यक़ीन मानिए इन्हीं मौसम की वजह से अन्न देने वाली माटी सोना भी बनती है। 

वहीं गाछ-वृक्ष-फूल-तितली-जानवर आदि इन्हीं मौसमों में अपनी ख़ुशबू से हमें रूबरू भी कराते हैं...यही वजह है कि किसानी करते हुए अब हम भी कहने लगे हैं - पतझड़-सावन - बसंत- बहार ....

Saturday, February 01, 2025

इतिहासकार प्रो. रत्नेश्वर बाबू के नाम

कुछ व्यक्ति, कुछ संस्थाएं, कुछ इमारतें ऐसी होती हैं,  जिनसे शहर की पहचान बनती हैं,  जिन्हें देखकर, जिनसे मिलकर, सुनकर या फिर याद कर लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार होता है! मेरे लिए प्रो. रत्नेश्वर मिश्र ऐसे ही शख्स हैं। 
रत्नेश्वर बाबू का आज जन्म दिन है। एक फरवरी 1945 को उनका जन्म हुआ। वे आज भी जिज्ञासु छात्र की तरह आपको दिख जाएंगे, उम्र की माया से परे!

हम उन्हें घण्टों सुन सकते हैं। वे आपको जिज्ञासु बनाते हैं, वे आपको इतिहास के पन्नों से आपके लिए कथा चुनकर आपको देते हैं, वो भी रोचक अंदाज में! फिर आप उस कथा से अपने हिस्से का ज्ञान हासिल कर घर लौट आते हैं।

पूर्णिया जिला को पहचान दिलाने वालों में एक नाम रत्नेश्वर बाबू का भी है। यदि आप उनसे मिलेंगे तो ज्ञान का आडम्बर आपको कहीं नहीं देखेगा, न ही प्रचार-प्रसार की धमक...दिखेगा तो बस बहती नदी की तरह अविचल सूचनाओं का संग्रह!

वे आपको शब्दों के जाल में फंसाते नहीं मिलेंगे बल्कि एक अभिभावक की तरह शब्द की महत्ता बताते दिख जाएंगे।

वे जब भी पूर्णिया आते हैं और उनसे मिलने का यदि सौभाग्य हमें मिल जाता है तो लगता है किसी पुरानी डायरी को पलट रहा हूं।

गूगल सर्च, चैट जीपीटी आदि के इस दौर में जब हम मूल बात तक पहुंचने से बचते हैं, उस दौर में रत्नेश्वर बाबू हमें ठहरने की सलाह देते मिल जाते हैं, लिखते रहने की प्रेरणा देते हैं। 

उम्र के इस पड़ाव में आकर भी आप अकादमिक जगत में सक्रियता से न केवल हिस्सा ले रहे हैं बल्कि मुखर भी हैं। 

अंचल से लगाव रखने की वजह से रत्नेश्वर बाबू हमें आकर्षित करते आए हैं। मुझे याद है, दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर जब निकल रहा था तो बाबूजी ने बताया था कि पूर्णिया जिला का अपना समृद्ध इतिहास रहा है, यह एक जिला भर नहीं है, पूर्णिया एक दस्तावेज है! 

हम जब भी रत्नेश्वर बाबू से मिलते हैं, उनको सुनते हैं तो बाबूजी की कही बात याद आती है कि  'पूर्णिया महज एक शहर नहीं, इतिहास का दस्तावेज है ' !

यदि आप पुराने पूर्णिया जिला की कहानियों से रूबरू होना चाहते हैं तो रत्नेश्वर बाबू के पास बैठ जाइए और बस एक सवाल उनके समक्ष छोड़ दें,  वे कथाओं में आपको डूबो देंगे। 

मेरे लिए वे एक ऐसे इतिहासकार हैं,  जो समृद्ध कथावाचक हैं और संग ही शाश्वत शिशु भी हैं,  जो हर दिन और हर किसी से कुछ सीखने के लिए उतारू है। 

अनेक पुरस्कारों से नवाजे जा चुके रत्नेश्वर बाबू विविध संस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहते आए हैं। आज उनका जन्मदिन है और हमें इस बात का गर्व है कि पूर्णिया को उनका सानिध्य प्राप्त है। 

Saturday, January 25, 2025

दिन डायरी

आज का दिन कचहरी, दफ्तर आदि के चक्कर में गुज़र गया। दिन को गुजरना तो होता ही है!  

शहर पूर्णिया में जहां कलक्टर बैठते हैं, उसी परिसर के एक हिस्से में रजिस्ट्री ऑफिस भी है, जमीन जगह के कागजात का एक पुराना घर भी है। आसपास वकील, स्टाम्प वेंडर, टाइपिस्ट आदि का जमावड़ा लगा रहता है।

चाय की चुस्की से लेकर भोजन पानी का सिलसिला इधर चलता रहता है। आज कुछेक स्टाम्प के लिए उधर जाना हुआ, शुरुआत में कलक्टर दफ्तर के पास पत्रकार दोस्त सब मिल गए, हालचाल हुआ फिर आगे बढ़ गया। 

बिहार के मुख्यमंत्री पूर्णिया आने वाले हैं, सो सरकारी दफ्तरों के आसपास चमक दिख रही थी। एक पुराने, लगभग खत्म हो चुके तथाकथित तालाब को रंग दिया गया था, ऐसा लग रहा था मानो गड्ढे को कंक्रीट से तालाब बना दिया गया हो! 

खैर, अपना काम स्टाम्प लेना था, कोर्ट कचहरी जाना था, इसलिए आगे बढ़ गया। 

कुछ काम और जगहें ऐसी होती हैं, जहां पहुँच कर आप 'अतीत' हो जाते हैं, स्मृतियों में खो जाते हैं। अपने लिए शहर का यह ठिकाना कुछ ऐसा ही है। 

वकीलों के बीच से गुजरते हुए न्यायाधीश तक पहुंचते हुए पिता के जान पहचान के कई लोग मिल गए। इन मुलाक़ातों से हम समृद्ध ही होते हैं। 

इन मुलाक़ातों के दौरान हुई पुरानी बातों में 'पिता' दिख गए। मुँह में पान दबाए बुजुर्ग जब मुस्कान लिए मिलते हैं और बातचीत में जिक्र बाबूजी का हो जाता है तो लगता है कोई पुरानी चिट्ठी मिल गई हो! एक ने बताया, "आपको मालूम है कि आपके पिता का सबसे अधिक समय कचहरी में गुजरता था? जमीन के काग़ज़ों में, जमीन के झगड़ों में.... तो भी परेशानी के बीच उनकी मुस्कान हमेशा बनी रहती थी...! "

सचमुच हमने जब से होश सम्भाला बाबूजी को जमीन संबंधित मुकदमों में ही फंसे देखा। संथाल विद्रोह से लेकर अन्य गुटों से जमीन के मालिकाना हक को लेकर उनकी कानूनी लड़ाई लम्बे समय तक चलती रही। उनका कोर्ट कचहरी पर भरोसा था!

बाद बांकी उनके गुजरने के बाद उनकी लिखी डायरियों और चिट्ठी पतरी के मोटे मोटे फाइलों से उनका सच जान पाया! उनके एकाकी संघर्ष को जान पाया...

खैर, काम काज पूरा होने के बाद घर लौटते वक्त गांव-घर के कुछ लोग दिख गए। शहर खींच ही लेता है, किसी को मुसीबत में तो किसी को लोभ में ! यही शहर की माया है! 

[2025 का पहला ब्लॉग पोस्ट]

Sunday, November 03, 2024

छठ के बहाने गुलजार हुए बिहार के गांव पर्व के बाद फिर होंगे खाली, कब रुकेगा ये पलायन?


प्रवासियों के लिए भीड़ एक संज्ञा है! प्रवासियों का दर्द त्यौहारों में और बढ़ जाता है, वे भीड़ बन निकल पड़ते हैं अपनी माटी की ओर, जहां से उन्हें हफ्ते भर बाद लौट जाना होता है, फिर से भीड़ बनकर! बिहार का दर्द पलायन है, एक ऐसा दर्द जिसके नाम पर बिहार की राजनीति होती है. इस दर्द की दवा अबतक बिहार के किसी मुख्यमंत्री ने नहीं खोजी है क्योंकि सत्ता में रहने वालों को पता है कि यदि इस दर्द की दवा खोज ली जाएगी तो फिर बिहार से दुख-दर्द की राजनीति ही खत्म हो जाएगी. 

दर्द से पलायन और पलायन का दर्द

दिल्ली, लुधियाना, मुंबई में रोजगार के सिलसिले में जानेवाले प्रवासी लोग भले ही दीवाली या दुर्गा पूजा में अपने गांव न आते हों, लेकिन छठ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है. आंगन-दुआर इन चार दिनों में चहक उठता है. किसी के पिता आते हैं, तो किसी के भाई-चाचा, लेकिन पर्व के समापन के साथ ही वे लौट जाते हैं, फिर वहीं जहां से उनकी रोजी रोटी चलती है. और इसके साथ ही खाली हो जाता है गांव- घर! बिहार से रोजी-रोटी कमाने बाहर गए लोगों का त्योहार के इस मौसम में घर लौटने का क्रम दशहरा व दिवाली से ही जारी है. चार दिवसीय छठ महापर्व के समीप आते-आते यह चरम पर पहुंच जाता है. इस बार भी लाखों की संख्या में देश के कोने-कोने से लोग बिहार के विभिन्न जिलों में अपने-अपने घर लौट रहे हैं, लेकिन ट्रेन हो या बस या फिर विमान, मारामारी इतनी होती है कि उनके लिए घर पहुंच पाना जंग जीतने से कम नहीं होता. छठ पूजा को लेकर बिहार के लोगों में उत्साह के संग एक पीड़ा भी छुपी रहती है. प्रवासियों के पास स्पेशल ट्रेन की सूचना तो रहती है लेकिन बिहार में रोजगार के लिए कोई स्पेशल जोन की सूचना नहीं रहती है. 

दूरी नहीं, फिर लौटने की मजबूरी है देती दर्द

प्रवासियों का मन इस एक पूजा में लंबी दूरी को एक झटके में खत्म कर देता है, लेकिन फिर वे वहीं लौट जाते हैं, जहां से वे आये थे. यदि आप गौर से बिहार सरकार के क्रिया कलापों पर नजर डालेंगे तो बड़े स्तर पर पलायन को रोकने का कोई इंतजाम आपको दिखाई नहीं देगा. छठ के आसपास गांव के हर टोले का एक ही दर्द है - फिर खाली हो जायेगा गांव! लौटने वाले लोगों के परिवार से बात करने पर उनकी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है. बिहार की सरकार को इस पीड़ा से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन एक आम बिहारी हर दिन इस पीड़ा को महसूस करता है. गांव में हम सबने पलायन का दर्द झेला है. गांव के हर टोले में या तो बच्चा मिलता है या फिर बूढ़ा. ऐसे में छठ पूजा बिहार के गांव-घरों के लिए वरदान की तरह भी है. पर्व की बाध्यता ही सही, कुछ हफ्ते के लिए ही सही लेकिन लोग घर आ तो रहे हैं.

छठ के दौरान कुछ दिन के लिए ही सही, भारत का हर हिस्सा बिहार पहुंच जाता है. कामकाजी दुनिया में संघर्षरत लोगों को बिहार चार दिनों के लिए अपने पास बुला लेता है. गांव का सुरेश कहता है कि छठ में घर जाने की खुशी को बयां नहीं किया जा सकता. यह वैसा ही है, जैसे रोजी-रोटी के लिए घर-आंगन को छोड़ कर महानगरों में जाने के दर्द को कोई दूसरा नहीं समझ सकता. नौकरी और जिंदगी के लिए हम अपने आंगन-दुआर को छोड़ कर निकल पड़ते हैं. समाजशास्त्रियों को चाहिए कि छठ में आने-जानेवाले लोगों पर शोध करें, खासकर गांव पहुंचनेवालों पर. इस दौरान केवल लोग ही नहीं आ रहे हैं, उनके संग शहरों की संस्कृति भी गांव पहुंच रही, बोली बानी, गीत संगीत, ड्रेस से लेकर जूते चप्पल तक. 

रोजगार का अभाव और पलायन का दंश

छठ में जो गांव आते हैं, उनसे लंबी बातें करते हुए आप इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि रोजगार के अभाव में ही वे रेलगाड़ियों में धक्के खाकर बिहार से भागने के लिए मजबूर हैं. और यह कोई उनकी ही नहीं पीड़ा है, यह उनके बाप - दादा की भी पीड़ा थी और शायद उनकी आने वाली पीढ़ी की भी रहेगी. बिहार का कोई भी जिला उद्योग की नगरी नहीं बन सका है. हम आज भी गौतम बुद्ध, चाणक्य, अशोक, पाटलिपुत्र की महिमा में उलझे हुए हैं और ट्रेन की भीड़ बनकर यहां से वहां भागे जा रहे हैं. हमारा वर्तमान उद्योग- रोजगार से कोसों दूर केवल जमीन, सर्वे, शराबबंदी में उलझा हुआ है, ऐसे में राज्य छोड़ने के अलावे कोई भी रास्ता बिहारी मानस के पास नहीं है. 1990 के दशक से बिहार से पलायन का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह लगातार जारी है. सामाजिक न्याय के नाम पर बनी राज्य और केन्द्र की सरकारों ने बिहार में रोजगार के लिए कुछ भी नहीं किया. 

बिहार में आज भी उद्योग धंधों की स्थिति चौपट है. खेतों की जोत छोटी है, परिवार के सदस्यों की संख्या अधिक. इसलिए खेती से पेट भर नहीं रहा. लोग नौकरी के लिए मजबूर हैं. स्किल्ड या अनस्किल्ड, काम या नौकरी दोनों यहां मिल नहीं रही तो लाचारी में वे बाहर जा रहे हैं. गांव की एक दादी बताती है कि साल में एक ही बार वह अपने पोते का मुंह देख पाती है. टुकड़ों में बंटा परिवार छठ के घाट पर एक साथ, एक ही फ्रेम में दिख जाता है. संयुक्त परिवार का पुराना आंगन इन चार दिनों में अपने पुराने अंदाज में नजर आने लगता है. घर इन दिनों में बड़ा हो जाता है.

पर्यावरण, परिवार, पर्व और प्रेम

वहीं दूसरी ओर छठ के बहाने छोटे शहरों की नदियां चहक उठती हैं. दिल्ली में पढ़नेवाला रितेश सौरा नदी के घाट पर एकटक पानी के बहाव को देख रहा है. नाला बनते नदियों की बातें सुननेवाला रितेश सौरा नदी को निहार रहा है. आभासी होते लोगों के लिए गागर, नींबू और सुथनी जैसे फलों को समझने-बुझने का त्योहार है छठ. सब कुछ प्लास्टिक और फाइबर होते इस समय में छठ का मतलब सूप और बांस की टोकरी भी है.

छठ के बाद जब फिर घर-आंगन खाली होने जा रहा है, तब लगता है सचमुच हम अकेले हैं. गांव के अखिलेश काका की अपनी पीड़ा है, अब फिर वे अकेले हो जायेंगे, क्योंकि उनका बेटा सुशील फिर दिल्ली जा रहा है. कटिहार से महानंदा एक्सप्रेस पर सवार होकर वह चला जायेगा. काका फिर से अकेले अपने दुआर पर बैठे मिलेंगे, बिना किसी उत्साह के.छठ के बाद की तसवीर पर भी गौर करें. पलायन-विस्थापन की पीड़ा को हमें समझना चाहिए.

आने-जानेवाले लोगों का हिसाब-किताब भी छठ के बाद जरूरी है. रोजी-रोटी की जिद में प्रवासी बनते हम सब छठ के बहाने ही सही, कुछ ही दिनों के लिए अपने शहर-गांव आते हैं, लेकिन फिर एक दिन किसी सुबह-किसी शाम अपने लोगों को, अपनी माटी को छोड़ कर निकल जाते हैं रोजगार और बेहतर जिंदगी के लिए. कहीं भीड़ बढ़ रही है, तो कहीं से लोग निकल रहे हैं, लेकिन एक दिन सबको लौटना वहीं होता है, जहां से हम सब आते हैं.

[ABP News के लिए यह ब्लॉग लिखा है]