कॉलेज के दिनों में और फिर ख़बरों की नौकरी करते हुए प्रगति मैदान अपना ठिकाना हुआ करता था, पुस्तकमेले के दौरान। दिन भर उस विशाल परिसर में शब्दों के जादूगरों से मिलता था, उन्हें महसूस करता था।
हर बार अनुपम मिश्र से मिलता था। बाजार की चकमक दुनिया को अपनी बोली-बानी से निर्मल करने का साहस अनुपम मिश्र को ही था। अब जब वे नहीं हैं तो लगता है कि तालाब में पानी कम हो गया है, आँख का पानी तो कब का सूख गया...
उसी पुस्तक मेले में अपने अंचल के लोग मिल जाते थे तो मन साधो-साधो कह उठता था। अपने अंचल के लेखक चंद्रकिशोर जायसवाल से वहीं पहली दफे मिला था।
लेकिन समय के फ़ेर और खेती किसानी करते हुए हम धीरे धीरे इस मेले से दूर होते चले गए, शायद जीवन की माया यही है!
समय के फेर ने इस बार भी समय ने किसान को प्रगति मैदान से दूर रख दिया है लेकिन आभासी दुनिया में आवाजाही के कारण पुस्तक मेले को दूर से ही सही लेकिन महसूस कर रहा हूं।
मेले में मैथिली का मचान भी लगा है साथ पोथी घर भी , जहां दिल्ली वासी मैथिल प्रवासी का जुटान हो रहा है। उसको लेकर मन उत्सुक है। बार-बार फ़ेसबुक पर मैथिली मचान और पोथी घर का अपडेट देखता हूं। अपने सुशांत भाय की आज तस्वीर देखी, सत्यानंद भाई जी के जरिए, मन खुश हो गया।
आज गाँव में खेत की दुनिया में जीवन की पगडंडी तलाशते हुए किताबों की उस मेले वाली दुनिया की ख़ूब याद आ रही है। इसी बीच आभासी दुनिया की वजह से राजकमल प्रकाशन की दुनिया में 'जलसाघर ’ का सुख ले रहा हूं।
तस्वीरों और विडियो ज़रिए पता चल रहा है कि मेले में खूब लोग आ रहे हैं, आज भी। यह सब देखकर अच्छा लगता है। और चलते-चलते इस किसान की किताब ‘इश्क़ में माटी सोना’ को भी राजकमल प्रकाशन समूह के स्टॉल में देखा, किताब को देखने का अपना अलग ही सुख है!
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