झिंगुर की 'झीं-झीं' और गिरगिट की 'ठीक-ठीक' आवाज़ को भीतर में छुपाए यह गाम की रात है। दिसंबर गुज़रने को बेताब है। कोहरा कम है लेकिन ठंड बढ़ गयी है।
आसपास की चुप्पी के बीच मन के अंधेरे में झाँकता हूं तो सुनता हूं एक आवाज़ - "पापी कौन बड़ो जग मौसे, सब पतितन में नामी..." । सच यही है कि भीतर की यह आवाज़ मन को धो देती है।
गाम का बूढ़ा मोती हर मुलाक़ात में पूछता था सूरदास को पढ़ें हैं ? उसका सवाल विचलित कर देता था। रात की बातें करते हुए देखिए न सूरदास आ गए मन में। मोती के ज़रिए सूरदास दाख़िल हो गये। याद नहीं लेकिन किसी ने सुनाया था- “साधुता वहां बसती है , जहां जूता गांठते हैं रैदास और चादर बुनते हैं कबीर ।”
मकान के चारों ओर खेत में मक्का के नन्हें पौधे हैं। सफ़ेद लिफ़ाफ़े की तरह कोहरे ने मक्का के नवजात पौधों को अपने भीतर छुपा लिया है।
रात के अंधेरे में खेत किसी नर्तकी की तरह दिखने लगती है। बचपन में सलेमपुर वाली दादी इन्हीं खेतों की कहानी सुनाती थी। कथा की शुरुआत में कोई रानी आती थी पायल में और खेत में ख़ूब नाचती थी। मेरी यादों की पोटली से अक्सर सलेमपुर वाली निकल आती है। उस बूढ़िया ने बाबूजी को गोदी में ख़ूब खिलाया था और बाद में मुझे भी। गाम की रात में वह बहुत याद आती है। जीवन के प्रपंचों के बीच जो कथा चलती है उसमें ऐसे चरित्रों को सहेज कर रखता हूं। काश ! बैंक में ऐसी स्मृतियों के लिए भी लॉकर होता !
किसी पूर्णिमा की रात मैं निकल पड़ता हूं पश्चिम के खेत। वहाँ एक पुराना पेड़ है पलाश का। साल के उन दिनों जब वह फूल से लदा होता है, उसे निहारता हूं। उस फूल में आग की लपट दिखती है, शायद सुंदरता में 'जलना' इसी को कहते हैं। बग़ल में एक बड़ा सा पोखर है। उसमें चाँद की परछाई निहारता हूं। रंग में सफ़ेद और आसमानी ही पसंद है। सब कहते हैं कि उमर से पहले बूढ़े हो चले हो !! लेकिन कैसे बताऊँ सफ़ेद रंग ही मेरे लिए बाबूजी हैं। बाबूजी की सफ़ेद धोती और कुर्ता मेरे मन के लॉकर में सुरक्षित है। मैं इस रंग में उन्हें ढूँढता हूं। जब पहली बार लिखकर पैसा कमाया था तो उनके लिए सफ़ेद रंग का एक गमछा और शॉल लाया था। बाबूजी ने उस शॉल को संभाल कर रखा, उनकी आलमारी में आज भी है।
आज की रात ऐसी ही कई यादें बारिश की बौछार की तरह भिंगा रही है। घास-फूस का एक बड़ा सा घर था इस अहाते में, मैंने बाबूजी को वहीं पाया था। माँ का भंसा घर और मिट्टी का एक चूल्हिया और दो चूल्हिया ! सब याद आ रहा है। दीदी सबका कमरा, जहाँ लकड़ी की आलमारी थी और माटी का रेख। हर चार साल पर उस फूस के घर का घास (खर) बदला जाता था।
हम यादों में क्या क्या खोजने लगते हैं ! अभी वह लकड़ी का बड़ा सा हैंगर याद आ रहा है, जिसमें पित्तल का सुनहरा हूक लगा था, बाबूजी का कुर्ता वहाँ टाँगा जाता था।
साँझ से रात की तैयारी और दोपहर से साँझ की तैयारी होती थी। चूल्हे की राख से लालटेन और लैम्प का शीशा चमकाया जाता था। यह सबकुछ खोज रहा हूं तो मन के भीतर अचानक रौशनी दिख जाती है। नहर से राजदूत की आवाज़ आने लगती है। बाबूजी आ रहे हैं, दुआर पर लोग हैं, जिन्हें बात करनी है।
अचानक बाहर देखता हूं तो कोई नहीं ! कोई आवाज़ नहीं। आँखें मूँदकर बैठ जाता हूं। समय के साथ बिजली के प्रकाश से अहाते में भले रौशनी फैल गई हो लेकिन इस वक्त आँख मूँदकर अँधेरा में डूब जाता हूं। भीतर मानो एक दीप जल रहा है, दीये की टेम की तरह बाबूजी दिखने लगते हैं।
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