Monday, December 03, 2018

अरविंद की किताब - बेख़ुदी में खोया शहर

अरविंद दास को उनके लिखे के लिए जानता-पहचानता हूं। उनका लिखा मुझे फील्ड नोट्स लगता है। हाल ही में उनकी किताब आई है- ' बेख़ुदी में खोया शहर- एक पत्रकार के नोट्स।' धन कटनी के तुरंत बाद यह किताब हाथ आई है। ऐसे में यह किताब अपने लिए नई फसल की आमद की तरह है। किताब के पन्नों को पलटते हुए देश- विदेश घूम आता हूं।

अरविंद का पुराना पाठक रहा हूं। उनके ब्लॉग को पढ़ता रहा हूं। उन्हें पढ़ते हुए इतिहासकार सदन झा की एक सीख याद आती है, उन्होंने एक दफे कहा था कि 'फील्ड नोट्स इकट्ठा करिये, यात्राओं और लोगों से मिलते हुए फील्ड नोट्स बनाते रहिये। " आज अरविंद दास की यह किताब पूरा पढ़ने के बाद उस फील्ड नोट्स की अहमियत समझ आई।

अरविंद के लिखे में देश है, परदेश में भी। पन्नों में कविताई खुश्बू है। किताब में बाबा नागार्जुन की धमक है, मिथिला पेंटिंग की छटा है और मेरे लिए सबसे प्यारी बात, जहां अंचल की याद बेतहाशा है। उनकी यह पोथी मुझे लोक, संस्कृति, भाषा, जन, साहित्य से रूमानी प्रेम करना सिखाती है।

अरविंद दास की इस किताब में एक संस्मरण है - 'घर एक सपना है ' इसे पढ़ते हुए मुझे जगजीत सिंह की गायी एक गजल याद आती है- “रेखाओं का खेल है मुक्कदर, रेखाओं से मात खा रही हो …”। इस संस्मरण में फारबिसगंज है, महषि है और जिगन भी। मतलब देश- परदेश सब। इसमें एक जगह  अरविंद कहते हैं- “गुदरीया बाबा हमारा भी हाथ देखते थे. क्या हमारे हाथ में विद्या रेखा है, क्या हम विदेश जाएँगे बताइए ना, हम उनसे पूछते थे. फ्रैंकफ़र्ट एयरपोर्ट पहुँच कर मैंने एक बार फिर से अपने हाथ को उलट-पुलट कर देखा, हां चंद्र पर्वत पर एक रेखा तो है शायद...!” यह किताब पाठक को कई पन्नों में बांधकर रख लेती है, अपने मोहपाश में।

किताब में पत्रकार के फील्ड नोट्स को पाँच खंडों में बांटा गया है- परदेश में बारिश, राष्ट्र सारा देखता है, संस्कृति के अपरूप रंग, उम्मीद-ए-सहर और स्मृतियों का कोलाज. पहले खंड में अरविंद ने  उन स्मृतियों, हलचलों को शब्द दिया है जो उन्होंने परदेश में महसूस किया। उनकी यह किताब परदेश की नदियों सेन, नेकर, टेम्स के करीब ले जाती है। नदी की बात करते हुए लेखक बहुत सहज हो जाते हैं। दिल्ली की यमुना से लेकर वे अपने अंचल की कमला-बलान तक का जिक्र करते हैं।

किताब का चौथा खंड मुझे बहुत अच्छा लगा। 'उम्मीद-ए-सहर' शीर्षक में जो नोट्स हैं उसमें अरविंद ने किताबों, पुस्तकालयों, दिल्ली, कश्मीर, मैकलोडगंज-तिब्बत आदि की बात की है। एक पाठक के तौर पर  इन सभी नोट्स को और अधिक पन्नों में पढ़ना चाहता हूं।

किताब में 'चंपारण सत्याग्रह का कलमकार' नामक लेख पढ़ते हुए पीर मुहम्मद मूनिस (1882-1949) के बारे में जानकारी मिलती है। मूनिस युवा पत्रकार थे और उन्होंने गांधी जी को चंपारण आने का निमंत्रण देते हुए पत्र लिखा था। इस लेख में अरविंद कहते हैं कि मूनिस का नाम न तो गांधी जी की आत्मकथा में मिलता है और न ही आधुनिक भारत के किसी इतिहास में। मूनिस उस वक्त कानपुर से निकलने वाले पत्र 'प्रताप' के संवाददाता थे। 1914 से वे नियमित रूप से प्रताप के लिए लिखते थे। अरविंद का यह लेख हमें पढ़ना चाहिए।

अरविंद ने 'गाँव में पुस्तकालय' शीर्षक से एक लेख लिखा है। इस लेख में उन्होंने गाँव के पुस्तकालय का जिक्र किया है। पुस्तकालय की चर्चा बहुत कम होने लगी है, ऐसे में इस लेख का अपना महत्व है। इन दिनों नॉर्वे में रहने वाले डॉक्टर प्रवीण झा फेसबुक पर पुस्तकालय को लेकर लोगों को लगातर लिखने की अपील कर रहे हैं।

विद्यापति, गुरुदेव, नागार्जुन, रेणु, निर्मल वर्मा से लेकर स्पिक मैके के किरण सेठ तक को अरविंद ने अपने नोट्स में शब्द दिया है। 'फिर क्या बोले' नामक नोट्स में अरविंद बड़ी बेबाकी से लिखते हैं- "बचपन में जब ऑल इंडिया रेडियो पर दोपहर में बिस्मिल्लाह खान या सिद्धेश्वरी देवी अपना राग अलापती थीं तब हम रेडियो बंद कर देते थे. तब ना तो संगीत की सुध थी ना समझ…” दरअसल अरविंद दास शास्त्रीय संगीत के प्रति अपने अनुराग को यहां पेश करते हैं लेकिन एकदम अलग ढंग से, कह सकते हैं एक शोधार्थी का दृष्टिकोण है, जिसमें पाठक कई कोण निकाल सकता है।

अरविंद की इस किताब में मन के करीब बहुत कुछ है। किताब की सबसे आखिरी नोट 'अंतिम पहर बीता' पढ़ते हुए भावुक हो जाता हूं। इसमें लेखक ने अपनी दाय ( दादी) को शब्द दिया है।  अरविंद लिखते हैं - '" दाय निरक्षर पर ज़हीन थी। लोक अनुभव का ऐसा संसार उसके पास था जहां शास्त्रीय ज्ञान बौना पड़ जाता है!  जब हम उसे चिढ़ाते तो वो अपना नाम हंसते हुए लिखकर दिखाया करती- जानकी। पर यह नाम उसे पसंद नहीं था। वो कहती कि जानकी के जीवन में बहुत कष्ट लिखा होता है...."

और इसी में अंत में अरविंद लिखते हैं- " हम रोजी रोटी के लिए इस शहर से उस शहर भटकते रहे। दाय खूंटे की तरह अपनी जमीन से गड़ी रही। जब भी उससे कहते दिल्ली चलो, तो उसका टका सा जवाब होता- मरते समय क्या मगहर जाऊंगी....."

अलग अलग रंग के फील्ड नोट्स को एक किताब में पढ़ना सचमुच अच्छा लगा। यह किताब अपने कवर के लिए भी याद रहेगी। आवरण चित्र में अनोखी मिथिला पेंटिंग है, हवाई जहाज भी मछली के रूप में है! मिथिला पेंटिंग की अद्भुत छटा !
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(किताब: बेख़ुदी में खोया शहर – एक पत्रकार के नोट्स
लेखक: अरविंद दास
प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, नई दिल्ली
मूल्य- ₹375 )

2 comments:

Gopi Raman said...

Ek nai pustak se parichay karaane ke liye aabhaar

Anonymous said...

You done a great job