मुल्क में किसान फिर चर्चा में हैं। लोगबाग दिल्ली में किसान मार्च की बात कर रहे हैं। फिलहाल हम मक्का की बुआई में लगे हैं। मक्का हमारे लिए नकदी फसल है लेकिन सरकार इस फसल की कीमत तय नहीं करती है।
खैर, अभी धान की कटाई -तैयारी के बाद हम धान को 1000 रुपये प्रति क्विंटल बेच कर मक्का का बीज खरीदे, जबकि धान की सरकारी कीमत 1700 के आसपास है लेकिन इसके लिए हमें बहुत इंतज़ार करना पड़ता है और साथ ही भ्रष्टाचार का भी साथ देना पड़ता है।
फेसबुक टाइमलाइन पर किसान की भीड़ वाली तस्वीर और वीडियो देखकर मन बैचेन हो जाता है कि आखिर हम कब तक संघर्ष करते रहेंगे? धान-दाल-गेहूं-दुध-सब्जी की कीमत को लेकर अचानक सब बात करने लगे हैं, अफसोस है कि यह बात दिल्ली की सड़क और वहां के मैदान में हो रही है लेकिन ईमानदारी से कहिये कि आप सब हमारी उपज की सही कीमत देने से क्यों हिचकिचाते हैं?
सरकार तो चाहे जिसकी रहे, हमारी सुनेगी नहीं लेकिन आप तो गोभी -आलू-चावल की सही कीमत हमें दे सकते हैं, जरा सोचियेगा।
दरअसल, हम किसानी कर रहे लोग हमेशा से सरकार-बाजार के सॉफ्ट टारगेट रहे हैं और यही वजह है कि हम भीड़ बनते जा रहे हैं। हमारे दुख को प्रचारित कर बड़ा बाजार बनाया जाता रहा है लेकिन वह दुख कैसे मिटे इसकी बात कोई नहीं करता।
पिछले पांच साल से खेती बाड़ी कर रहा हूं इसलिए बहुत ही कड़वे लहजे में अपनी बात रखने का साहस कर रहा हूं। कटहल का एक कच्चा फल जो हम पांच रुपये में बेचते हैं, उसे आप चालीस रुपये प्रति किलोग्राम खरीदते हैं, क्या आपने कभी हमारी इस तरह की बातों को सुना है? इस पर अपने डाइनिंग टेबल पर चर्चा की है?
आज आप किसान मुक्ति मार्च का हैशटैग लगाकर तस्वीर आदि पोस्ट कर रहे हैं लेकिन क्या आप सीधे किसान से सब्जी खरीदकर कर उसे उसकी कीमत देते हैं?
माफ करियेगा, यदि सब हमें उचित मूल्य दे दें तो हम सरकारी अनुदान की बात भी नहीं करेंगे। सारी लड़ाई कीमत की है और वह आप पर निर्भर है। आप चाहेंगे तो हम 12 महीने खुशहाल रह सकते हैं लेकिन हमारी बात सुनता कौन है!
जो मार्च दिल्ली में हो रहा है न, दरअसल वह हर दिन पंचायत- जिला मुख्यालय में होना चाहिए। दिल्ली तो हमेशा से ऊंचा सुनती आई है साहेब, हम गाम-घर के लोग ऊंचा बोल ही नहीं सकते। हम असंगठित लोग हैं, हमें बांटकर रख दिया गया है, खेत की आल की तरह।
लेकिन हमने भी खेती को अब बस अपने लिए करना शुरू कर दिया है, बस अपने लिए! हम खाने भर का उपजाते हैं। कितना रोएं, अपने लिए उपजाकर ही अब हम संतुष्ट रहते हैं। हर किसान को अब स्वार्थी बनना होगा क्योंकि वह समय भी अब नजदीक है जब 'वही खायेगा, जो उपजायेगा' ...
खैर, अभी धान की कटाई -तैयारी के बाद हम धान को 1000 रुपये प्रति क्विंटल बेच कर मक्का का बीज खरीदे, जबकि धान की सरकारी कीमत 1700 के आसपास है लेकिन इसके लिए हमें बहुत इंतज़ार करना पड़ता है और साथ ही भ्रष्टाचार का भी साथ देना पड़ता है।
फेसबुक टाइमलाइन पर किसान की भीड़ वाली तस्वीर और वीडियो देखकर मन बैचेन हो जाता है कि आखिर हम कब तक संघर्ष करते रहेंगे? धान-दाल-गेहूं-दुध-सब्जी की कीमत को लेकर अचानक सब बात करने लगे हैं, अफसोस है कि यह बात दिल्ली की सड़क और वहां के मैदान में हो रही है लेकिन ईमानदारी से कहिये कि आप सब हमारी उपज की सही कीमत देने से क्यों हिचकिचाते हैं?
सरकार तो चाहे जिसकी रहे, हमारी सुनेगी नहीं लेकिन आप तो गोभी -आलू-चावल की सही कीमत हमें दे सकते हैं, जरा सोचियेगा।
दरअसल, हम किसानी कर रहे लोग हमेशा से सरकार-बाजार के सॉफ्ट टारगेट रहे हैं और यही वजह है कि हम भीड़ बनते जा रहे हैं। हमारे दुख को प्रचारित कर बड़ा बाजार बनाया जाता रहा है लेकिन वह दुख कैसे मिटे इसकी बात कोई नहीं करता।
पिछले पांच साल से खेती बाड़ी कर रहा हूं इसलिए बहुत ही कड़वे लहजे में अपनी बात रखने का साहस कर रहा हूं। कटहल का एक कच्चा फल जो हम पांच रुपये में बेचते हैं, उसे आप चालीस रुपये प्रति किलोग्राम खरीदते हैं, क्या आपने कभी हमारी इस तरह की बातों को सुना है? इस पर अपने डाइनिंग टेबल पर चर्चा की है?
आज आप किसान मुक्ति मार्च का हैशटैग लगाकर तस्वीर आदि पोस्ट कर रहे हैं लेकिन क्या आप सीधे किसान से सब्जी खरीदकर कर उसे उसकी कीमत देते हैं?
माफ करियेगा, यदि सब हमें उचित मूल्य दे दें तो हम सरकारी अनुदान की बात भी नहीं करेंगे। सारी लड़ाई कीमत की है और वह आप पर निर्भर है। आप चाहेंगे तो हम 12 महीने खुशहाल रह सकते हैं लेकिन हमारी बात सुनता कौन है!
जो मार्च दिल्ली में हो रहा है न, दरअसल वह हर दिन पंचायत- जिला मुख्यालय में होना चाहिए। दिल्ली तो हमेशा से ऊंचा सुनती आई है साहेब, हम गाम-घर के लोग ऊंचा बोल ही नहीं सकते। हम असंगठित लोग हैं, हमें बांटकर रख दिया गया है, खेत की आल की तरह।
लेकिन हमने भी खेती को अब बस अपने लिए करना शुरू कर दिया है, बस अपने लिए! हम खाने भर का उपजाते हैं। कितना रोएं, अपने लिए उपजाकर ही अब हम संतुष्ट रहते हैं। हर किसान को अब स्वार्थी बनना होगा क्योंकि वह समय भी अब नजदीक है जब 'वही खायेगा, जो उपजायेगा' ...
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