वे मुझे पूर्णिया की कथा सुनाते थे, जिसे भी पूर्णिया की कहानियों से रुचि होती, वह ज़रूर एक दफे उनके घर जाता था। पूर्णिया से उन्हें ख़ास लगाव था। वे ऑक्सफोर्ड में पढ़ा चुके थे। वे हमारे इतिहासकार थे, लेकिन मेरे लिए तो कथाकार थे। वे डॉ रामेश्वर प्रसाद थे। आज उस इतिहासकार-कथाकार ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
आज दोपहर जब बासुमित्र भाई ने डॉ रामेश्वर प्रसाद के निधन की ख़बर दी तो मन के पन्ने पर ढेर सारे बिंब उभर कर सामने आ गए।
उनसे पहली मुलाक़ात बाबूजी ने करवाई थी। पहली भेंट में उन्होंने पूछा था कि यात्रा करते हो? पूर्णिया की यात्रा की है? नदी को निहारे हो?
इन सवालों के बाद वे यात्रा की अहमियत पर बोले थे, फिर एक ही झटके में वे हमें ऐसे नाटककार की तरह नजर आने लगे जो हर लाइन में कथा को विस्तार देता हो। मेरे लिए वे कथावाचक थे, जिनकी पोटली में अरण्य से पूर्णिया बनने की ढेर सारी कहानी थी।
इन दिनों अपने शहर, अपने गांव में वक्त गुजारने के अनुभव में यात्रा और इतिहास दोनों से अपनापा बढ़ता जा रहा है तो ऐसे में डॉ रामेश्वर प्रसाद की बातें मन में दौड़ लगाती दिखने लगती है।
आज उनके गुज़रने की बात लिखते हुए भीतर की नदी का जलस्तर बढ़ चला है। मानो कोसी के ग्रामीण इलाकों में कोसी प्रोजेक्ट के सूखे नहर में प्रोजेक्ट इंजीनियर ने अचानक पानी छोड़ दिया हो। मन के भीतर ऐसे ही भाव पनपने लगे हैं।
सामाजिक संबधों के पुल पर आवाजाही बढ़ती दिख रही है। रात के अंधेरे में झिंगुर की घनन-घनन आवाज सीधे अंचल की ओर ले जा रही है। एक साथ कई चीजें मन के अंचल में दौड़ लगा रही है। इस दौड़-भाग में तेज हवा के झोंके में मानो कुछ पेड़ गिर गए हैं।
रास्ते पर गिरे पेड़ की डालियों को हटाता हूं कि तभी फिल्म ‘दिल्ली 6’ का वह फ़कीर याद आता है, जिसके हाथ में हर वक्त एक आईना होता है..अपना चेहरा देखने के लिए, लोगों को चेहरा दिखाने के लिए..। हमने आज वैसा ही एक आईना खो दिया है।
डॉ रामेश्वर प्रसाद ने भरपूर जीवन जिया। उम्र के इस पड़ाव पर एक दिन मौत ही सत्य दिखती है। लेकिन उनका जाना पूर्णिया को ख़ाली कर देने जैसा है।
यह सब लिखते हुए कबीर की छवि मन के भीतर उभर आती है तो मन बोलने लगता है- “न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से, उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या?”
प्रोफ़ेसर साहेब को अंतिम बार न देख सका। जीवन की इस आपाधापी में पूर्णिया से दूर रहने के कारण रामेश्वर प्रसाद का अंतिम दर्शन न हो सका। उनके बारे में लिखना ही उनसे मिलने जैसा लग रहा है।
कवि कुंवर नारायण की यह कविता अपने इतिहासकार -कथाकर को फिर से सुनाने का मन करता है-
“अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा...”
आज दोपहर जब बासुमित्र भाई ने डॉ रामेश्वर प्रसाद के निधन की ख़बर दी तो मन के पन्ने पर ढेर सारे बिंब उभर कर सामने आ गए।
उनसे पहली मुलाक़ात बाबूजी ने करवाई थी। पहली भेंट में उन्होंने पूछा था कि यात्रा करते हो? पूर्णिया की यात्रा की है? नदी को निहारे हो?
इन सवालों के बाद वे यात्रा की अहमियत पर बोले थे, फिर एक ही झटके में वे हमें ऐसे नाटककार की तरह नजर आने लगे जो हर लाइन में कथा को विस्तार देता हो। मेरे लिए वे कथावाचक थे, जिनकी पोटली में अरण्य से पूर्णिया बनने की ढेर सारी कहानी थी।
इन दिनों अपने शहर, अपने गांव में वक्त गुजारने के अनुभव में यात्रा और इतिहास दोनों से अपनापा बढ़ता जा रहा है तो ऐसे में डॉ रामेश्वर प्रसाद की बातें मन में दौड़ लगाती दिखने लगती है।
आज उनके गुज़रने की बात लिखते हुए भीतर की नदी का जलस्तर बढ़ चला है। मानो कोसी के ग्रामीण इलाकों में कोसी प्रोजेक्ट के सूखे नहर में प्रोजेक्ट इंजीनियर ने अचानक पानी छोड़ दिया हो। मन के भीतर ऐसे ही भाव पनपने लगे हैं।
सामाजिक संबधों के पुल पर आवाजाही बढ़ती दिख रही है। रात के अंधेरे में झिंगुर की घनन-घनन आवाज सीधे अंचल की ओर ले जा रही है। एक साथ कई चीजें मन के अंचल में दौड़ लगा रही है। इस दौड़-भाग में तेज हवा के झोंके में मानो कुछ पेड़ गिर गए हैं।
रास्ते पर गिरे पेड़ की डालियों को हटाता हूं कि तभी फिल्म ‘दिल्ली 6’ का वह फ़कीर याद आता है, जिसके हाथ में हर वक्त एक आईना होता है..अपना चेहरा देखने के लिए, लोगों को चेहरा दिखाने के लिए..। हमने आज वैसा ही एक आईना खो दिया है।
डॉ रामेश्वर प्रसाद ने भरपूर जीवन जिया। उम्र के इस पड़ाव पर एक दिन मौत ही सत्य दिखती है। लेकिन उनका जाना पूर्णिया को ख़ाली कर देने जैसा है।
यह सब लिखते हुए कबीर की छवि मन के भीतर उभर आती है तो मन बोलने लगता है- “न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से, उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या?”
प्रोफ़ेसर साहेब को अंतिम बार न देख सका। जीवन की इस आपाधापी में पूर्णिया से दूर रहने के कारण रामेश्वर प्रसाद का अंतिम दर्शन न हो सका। उनके बारे में लिखना ही उनसे मिलने जैसा लग रहा है।
कवि कुंवर नारायण की यह कविता अपने इतिहासकार -कथाकर को फिर से सुनाने का मन करता है-
“अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा...”
No comments:
Post a Comment