Thursday, June 14, 2018

बाबूजी

हर दोपहर, जब आसपास 
कोई नहीं होता,
पहुँच जाता हूं 
उस माटी के पास,
जहाँ हर बारिश में 
उग आती है
श्याम तुलसी।
यहीं करता हूं आत्मालाप!
आज साहस से
याद करता हूं
बाबूजी के शव को।
अंतिम संस्कार की विधि को,
अग्नि में समाहित बाबूजी को।
मुझे याद है,
उस दिन
बाबूजी के दोनों पाँव
सबसे पहले
जलते हुए झूल गए थे..
लम्बे थे पिता
मानो थक कर कह रहे हों
हो गया अब!
अब नहीं चला जाता..
मानो वह कह रहे हों
कि अब तुम अकेले चलो..
भीड़ में एकदम अकेले..
उस दिन लपटों के बीच
लाल अंगार में
बाबूजी और भी लाल दिख रहे थे
ठीक वैसे ही जैसे
अस्त होता सूरज दिखता है
हर रोज...


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