एक गर्म दोपहर दिल्ली में अपने कमरे में बैठा था। अपना दोस्त ‘ दादा’ आता है और कहता है आगरा चलोगे ? फिर फटाफट कार्यक्रम बनता है। वह अपनी कार निकालता है और हम निकल पड़ते हैं। वहाँ ताजमहल देखते हैं, शहर को समझते हैं। हम आगरा का मशहूर पैठा ख़रीदते हैं कि तभी मेरा वह बंगाल का दोस्त देवप्रियो सवाल पूछ बैठता है - ‘उस्ताद फ़ैयाज़ खान को जानते हो ? ‘हम बोले- ‘नहीं दादा, आगरा में केवल ताजमहल को जानता हूं। ‘ देवप्रियो झुंझला कर कहता है- ‘ अरे आफ़ताब-ए-मौसीकी खान साब को तुम नहीं जानता है और ख़ाली शास्त्रीय संगीत का बात करता है ! आगरा आ गया और आगरा घराना के बारे में कुछ नहीं पढ़ा...’
‘दादा’ दरअसल शास्त्रीय संगीत का जानकार आदमी था और हम ठहरे सुगम संगीत वाले। ख़ैर, उस यात्रा में पहली बार आगरा शब्द का मतलब ‘ आगरा घराना’ भी होता है, जाना। घराना शब्द से अनुराग उसी दादा ने करवाया फिर जब चिन्मय से मित्रता हुई तो उसने ढेर सारी कहानियाँ सुनाई। लेकिन मुझे अक्सर लगता है कि घराना अपने शहर में सबसे अधिक उपेक्षित रहता है। यह अक्सर घरानों के साथ हुआ है कि उन्हें अपने शहर में ही इज्जत नहीं मिली। आगरा वाले हों, दरभंगा वाले हों, कैराना वाले हों, अतरौली हो, भिंडीबाजार हो, या इटावा हो। सब इधर-उधर भागे, शहर में जैसे उन्हें कोई नहीं पूछता।
मुझे याद है मार्च २०१० में जब समाचार एजेंसी इंडो एशियन न्यूज़ सर्विस में काम करता था तो उस वक़्त उस्ताद अकील अहमद खान पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के आगरा घराने से ताल्लुक रखने वाले उस्ताद अकील अहमद खान उस वक़्त बहुत बीमार थे। सरकार की उपेक्षा से बेजार इस संगीत दिग्गज का उस वक़्त बयान आया था - “यहां सिर्फ मरने के बाद ही सम्मान किया जाता है। “ खान साहेब आगरा घराने के संस्थापक आफताब ए मुश्तकी उस्ताद फैय्याज अहमद खां के पौत्र थे। उन्होंने बताया था कि तंगी की हालत से जूझते हुए उन्होंने सोने के 5 मेडल बेच दिए।
अब देखिए न जिस आगरा से मेरे दोस्त ‘दादा’ ने परिचय करवाया था उसी आगरा घराना के उस्ताद वसीम अहमद खान से निकटता अंकुर की गायिकी की वजह से होती है। शास्त्रीय संगीत की बारीकी का इल्म नहीं है लेकिन गूगल से जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार आगरा घराने खानदान से अगर आखिरी टिमटिमाता सितारा बचा है, या शायद आगे ले जाएँ तो वो हैं वसीम अहमद खान।
पिछले साल पटना पुस्तक मेला में उस्ताद साहेब को सुना तो सुनता रह गया। एक दफे पूर्णिया में भी उनसे मुलाक़ात हुई थी। बेहद मिलनसार, उतने ही मधुर युवा उस्ताद वसीम अहमद खान से अभी हम लोगों को बहुत कुछ सुनना है।
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