बिहार का पूर्णिया जिला आज अपना 248वां स्थापना दिवस मना रहा है। जिला स्तर पर ढेर सारे कार्यक्रम होते हैं। मीडिया में जिला के बारे में ढेर सारी रोचक कहानियाँ छपती है। हर बार पूर्णिया के पहले कलक्टर डुकरैल के बारे में लोग बातचीत करते हैं।अख़बारों में भी उनका नाम छप जाता है।
लेकिन इन सब जानकरियों के अलावा भी डुकरैल के बारे में बहुत कुछ जानने की ज़रूरत है। वे जब पूर्णिया के कलक्टर बनकर आए थे तो उन्हें पता चला कि किसी नजदीक के गांव में एक स्त्री विधवा हो गई है और लोग उसे सती बनाने जा रहे हैं।इतना सुनते ही डुकरैल सिपाहियों के साथ घोड़े पर सवार हुआ और उसने उस विधवा की जान बचाई। इतना ही नहीं, डुकरैल ने उस विधवा से विवाह कर लिया और सेवानिवृत्ति के बाद उसे अपने साथ लंदन ले गए। कई सालों के बाद अबू तालिब नामका एक यात्री जब लंदन गया तो उसने बुजुर्ग हो चुके डुकरैल और उसकी पत्नी के बारे में विस्तार से अपने वृत्तांत में लिखा।ये घटना उस समय की है जब भारत में सती प्रथा पर रोक लगाने संबंधी कानून नहीं बना था। वो कानून उसके बहुत बाद सन् 1830 में में राजा राम मोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंटिक के जमाने में बना-जबकि डुकरैल की कहानी 1770 की है। यानी सती प्रथा कानून से करीब 60 साल पहले की। लेकिन डुकरैल को कोई किसी ने सती प्रथा के समय याद नहीं किया, न ही उसे बाद में वो जगह मिली जिसे पाने का वो सही में हकदार था।
पूर्णिया निवासी और ऑक्सफोर्ड में पढ़ा चुके इतिहासकार डॉ रामेश्वर प्रसाद, जिन्होंने पूर्णिया की स्थापना पर शोध किया था, ने बिहार सरकार से आग्रह किया था कि पूर्णिया में डुकरैल के नाम पर कम से कम सड़क का नाम होना चाहिए-लेकिन बिहार सरकार ने इसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। कम से कम कलक्टर ऑफ़िस की तरफ़ जाने वाली सड़क को ही ‘डुकरैल लेन’ नाम दे दिया जाता !
डुकरैल के जीवन पर एक खूबसूरत कहानी बिहार सरकार में भू राजस्व विभाग में पदाधिकारी सुबोध कुमार सिंह ने 'परती-पलार' नामकी एक पत्रिका में (जनवरी-जून 2013 अंक) में लिखी थी, जिसका शीर्षक है- "यह पत्र मां को एक साल बाद मिलेगा"। यह सब पढ़ने के बाद लगता है कि हम सब कितने अनजान हैं। हम तो विभूति भूषण मुखोपाध्याय की किताब ‘कोशी प्रांगनेर चिठि’ भी नहीं पढ़ रहे।
पूरैनिया से अपना शहर पूर्णिया हो गया। यक़ीनन बहुत कुछ बदला है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम अपनी कथा, अपने इतिहास को ही भूल जाएँ। हम उन लोगों को भूल जाएँ, जिन्होंने इस माटी से बेपनाह मोहब्बत की। इस माटी के लोगों को फ़्रांसिस बुकानन का भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जिन्होंने ख़ूब मेहनत कर
1809-1810 में An Account of the district of Purnea लिखा। ओ मैली का भी जिन्होंने पूर्णिया रिपोर्ट तैयार किया। हम उस घर को भी संभाल नहीं सके जहाँ सर अलेक्जेंडर फोर्ब्स रहते थे।
आइए, इस बार पूर्णिया के 248 वें स्थापना दिवस पर अपने ज़िले की उन कहानियों के नायकों को याद करते हैं जिन्होंने पूर्णिया को बनाया। हम अपने स्तर पर ही लेकिन डुकरैल के लिए ज़रूर कुछ करें। आज भी पूर्णिया के बारे में कुछ भी पुरानी जानकारी यदि हमें चाहिए तो हम बुकानन और ओ मैली को ही पढ़ते हैं, ऐसे में हम उनके लिए कुछ तो करें...
पूर्णिया के पहले कलक्टर डुकरैल के नाम पर ‘चनका रेसीडेंसी’ छोटे स्तर पर ही सही लेकिन 2018 में ज़रूर कुछ करेगी। हमारी ही माटी के इतिहासकार डॉक्टर रत्नेश्वर मिश्र हैं, जिनसे हम बहुत कुछ सुन सकते हैं। रेणु और इस अंचल से स्नेह रखने वाले इतिहासकार और शोधार्थी सदन झा से हम बात कर सकते हैं। और इसी माटी के पुष्यमित्र हैं, जिनसे हम इस पुराने ज़िले पर लंबी बातकर सकते हैं।
तो डुकरैल साहेब, भरोसा रखिए इस वर्ष हम ज़रूर कुछ सार्थक बातचीत और काम करेंगे अपने पूरैनिया के लिए।
लेकिन इन सब जानकरियों के अलावा भी डुकरैल के बारे में बहुत कुछ जानने की ज़रूरत है। वे जब पूर्णिया के कलक्टर बनकर आए थे तो उन्हें पता चला कि किसी नजदीक के गांव में एक स्त्री विधवा हो गई है और लोग उसे सती बनाने जा रहे हैं।इतना सुनते ही डुकरैल सिपाहियों के साथ घोड़े पर सवार हुआ और उसने उस विधवा की जान बचाई। इतना ही नहीं, डुकरैल ने उस विधवा से विवाह कर लिया और सेवानिवृत्ति के बाद उसे अपने साथ लंदन ले गए। कई सालों के बाद अबू तालिब नामका एक यात्री जब लंदन गया तो उसने बुजुर्ग हो चुके डुकरैल और उसकी पत्नी के बारे में विस्तार से अपने वृत्तांत में लिखा।ये घटना उस समय की है जब भारत में सती प्रथा पर रोक लगाने संबंधी कानून नहीं बना था। वो कानून उसके बहुत बाद सन् 1830 में में राजा राम मोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंटिक के जमाने में बना-जबकि डुकरैल की कहानी 1770 की है। यानी सती प्रथा कानून से करीब 60 साल पहले की। लेकिन डुकरैल को कोई किसी ने सती प्रथा के समय याद नहीं किया, न ही उसे बाद में वो जगह मिली जिसे पाने का वो सही में हकदार था।
पूर्णिया निवासी और ऑक्सफोर्ड में पढ़ा चुके इतिहासकार डॉ रामेश्वर प्रसाद, जिन्होंने पूर्णिया की स्थापना पर शोध किया था, ने बिहार सरकार से आग्रह किया था कि पूर्णिया में डुकरैल के नाम पर कम से कम सड़क का नाम होना चाहिए-लेकिन बिहार सरकार ने इसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। कम से कम कलक्टर ऑफ़िस की तरफ़ जाने वाली सड़क को ही ‘डुकरैल लेन’ नाम दे दिया जाता !
डुकरैल के जीवन पर एक खूबसूरत कहानी बिहार सरकार में भू राजस्व विभाग में पदाधिकारी सुबोध कुमार सिंह ने 'परती-पलार' नामकी एक पत्रिका में (जनवरी-जून 2013 अंक) में लिखी थी, जिसका शीर्षक है- "यह पत्र मां को एक साल बाद मिलेगा"। यह सब पढ़ने के बाद लगता है कि हम सब कितने अनजान हैं। हम तो विभूति भूषण मुखोपाध्याय की किताब ‘कोशी प्रांगनेर चिठि’ भी नहीं पढ़ रहे।
पूरैनिया से अपना शहर पूर्णिया हो गया। यक़ीनन बहुत कुछ बदला है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम अपनी कथा, अपने इतिहास को ही भूल जाएँ। हम उन लोगों को भूल जाएँ, जिन्होंने इस माटी से बेपनाह मोहब्बत की। इस माटी के लोगों को फ़्रांसिस बुकानन का भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जिन्होंने ख़ूब मेहनत कर
1809-1810 में An Account of the district of Purnea लिखा। ओ मैली का भी जिन्होंने पूर्णिया रिपोर्ट तैयार किया। हम उस घर को भी संभाल नहीं सके जहाँ सर अलेक्जेंडर फोर्ब्स रहते थे।
आइए, इस बार पूर्णिया के 248 वें स्थापना दिवस पर अपने ज़िले की उन कहानियों के नायकों को याद करते हैं जिन्होंने पूर्णिया को बनाया। हम अपने स्तर पर ही लेकिन डुकरैल के लिए ज़रूर कुछ करें। आज भी पूर्णिया के बारे में कुछ भी पुरानी जानकारी यदि हमें चाहिए तो हम बुकानन और ओ मैली को ही पढ़ते हैं, ऐसे में हम उनके लिए कुछ तो करें...
पूर्णिया के पहले कलक्टर डुकरैल के नाम पर ‘चनका रेसीडेंसी’ छोटे स्तर पर ही सही लेकिन 2018 में ज़रूर कुछ करेगी। हमारी ही माटी के इतिहासकार डॉक्टर रत्नेश्वर मिश्र हैं, जिनसे हम बहुत कुछ सुन सकते हैं। रेणु और इस अंचल से स्नेह रखने वाले इतिहासकार और शोधार्थी सदन झा से हम बात कर सकते हैं। और इसी माटी के पुष्यमित्र हैं, जिनसे हम इस पुराने ज़िले पर लंबी बातकर सकते हैं।
तो डुकरैल साहेब, भरोसा रखिए इस वर्ष हम ज़रूर कुछ सार्थक बातचीत और काम करेंगे अपने पूरैनिया के लिए।
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