पूर्णिया और इसके आसपास के इलाक़ों में पिछले पाँच साल से लगातार रहते हुए एक से बढ़कर एक स्थानीय लोगों से मुलाक़ात हो रही है। उनसे बातचीत होती है, बहस होती है और इस तरह कई नई जानकारियाँ हासिल होती जा रही है। हाल ही में अररिया ज़िले के नंदनपुर क़स्बे में राजीव नाम के युवक से मुलाक़ात होती है। राजीव टीवी दर्शक हैं और समाचार चैनल ख़ूब देखते हैं। उनका ज्ञान न्यूज़ चैनलों को लेकर काफ़ी समृद्ध है। वे जी न्यूज़ से लेकर एनडीटीवी तक को लेकर अपनी राय बेबाक़ी से रखते हैं।
एनडीटीवी के प्राइम टाइम को लेकर उनकी राय सुन रहा था। गाँव के चौपाल पर बात चल रही थी। यह गाँव मजबूत खेतिहर लोगों का है। धान की बालियों के बीच शाम में बैठकी जमी थी। राजीव कहते हैं कि एनडीटीवी वाले रवीश कुमार 'केंद्र और राज्य सरकारों के लिए काम की चीज़ हैं'। अपनी इस बात को वे आगे बढ़ाते हुए कहते हैं - " रवीश हर रात सरकार की कमी निकालते हैं और फिर उन बातों को लेकर फ़ेसबुक पर लोग इस पत्रकार को गरियाते हैं लेकिन पते की बात यह है कि रवीश के प्रोग्राम को सरकार अवश्य ही पोज़ेटिव तरीक़े से लेती होगी क्योंकि इस दौर में जब हर तरफ़ ख़बर दूसरे तरीके से पेश हो रही है उस दौर में सरकारी योजनाओं की हक़ीक़त कहाँ कोई पेश कर रहा है ? सरकार के भीतर के लोग भी तो बड़ाई के अलावा बहुत कुछ सुनना चाहते होंगे। "
राजीव अन्य चैनलों पर भी बात रखते जा रहे थे। वे आजतक, एबीपी की बात रखते हुए पूरे बहस के मूड में आ चुके थे। तभी एक बुज़ुर्ग गुनानंद बाबू आते हैं और कहते हैं समाचार चैनल वे केवल चुनाव के दौरान देखते हैं। उनका मानना है कि अख़बारों और न्यूज़ चैनल दोनों ही अब नाला हो गया है जिसमें जिसको जो मन होता है बहा देता है। वे बीबीसी रेडियो के पुराने दिनों की चर्चा छेड़ देते हैं। इसी बीच किसी ने एक पुराने शो ' ज़िंदगी लाइव' की बात शूरू कर दी। मतलब लोग टीवी की पुरानी बातें याद रखते हैं।
बातचीत के दौरान शमशेर नाम के व्यक्ति आते हैं और सवाल करते हैं कि तेल के दाम पर सब पत्रकार सब बात करता है लेकिन धान की क़ीमत बढ़ाने पर बहुत कम लोग बोलते हैं। शमशेर कहते हैं- "किसान क्या कभी न्यूज़ चैनल का बाज़ार तय कर पाएगा..."
दिल्ली से तक़रीबन १५०० किलोमीटर दूर दूरदराज़ के ग्रामीण इलाकों को लेकर न्यूज़ रूम जो सोचता हो लेकिन यह समाज न्यूज़ चैनलों पर अपनी राय रखता है, इसे समझना होगा। आख़िर यह दर्शक क्या देखना चाहता है, इस पर बात होनी चाहिए क्योंकि अब 'छतरी' (टाटा स्काई आदि) घर-घर में है।
पत्रकारिता को लेकर राय केवल पत्रकार ही रखते हैं, वही आलोचना करते हैं और वही तारीफ़ लेकिन उस दर्शक की कोई बात नहीं रखता जो सुदूर इलाक़े में नियम से टीवी ज़रूर देखता है। वह बड़े चाव से बगदादी की भी ख़बर देखता है तो उसी चाव से रामरहीम वाली ख़बर पर बात करता है। ऐसे में वह क्या क्या और देखना चाहता है इस पर कोई सर्वे एजेंसी बात नहीं करती क्योंकि वह केवल महानगर या बड़े शहर के दर्शकों के आधार पर नम्बर वन चैनल का तमग़ा किसी को लगा देती है , जबकि असली दर्शक किसी मचान पर बैठा रह जाता है, ठीक उसी मतदाता की तरह जो हर पाँच साल के लिए सरकार तो चुन लेती है लेकिन उसकी बात बस नेताजी के चुनावी भाषण में ही सिमटी रह जाती है।
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