किसानी करते हुए हम साल में तीन फ़सल को बनते -बिगड़ते देखते हैं। कभी तेज़ बारिश तो कभी आँधी हमें निराश करता है तो वहीं एक वक़्त ऐसा भी आता है, जब सबकुछ सुंदर लगता है। यह वही समय होता है जब खेत मुझे कैनवास लगता है, जिसके पेंटर हम किसान होते हैं लेकिन फ़्रेम में ढालने का काम प्रकृति करता है।
किसानी एक ऐसा पेशा है जिसकी कमान मौसम के हाथ है। यदि आप खेती को कंपनी की नज़र से देखेंगे तो आपको यह कहना होगा कि किसानी पेशे का सीईओ 'मौसम' ही है। आप खेत में लाख मेहनत कर लें, परिणाम मौसम के अनुसार ही होगा।
आज सुबह सुबह चनका के खेत में धान की नई बालियों को देखकर मन झूमने लगा। अब इन बालियों का अन्न से भरने का इंतज़ार है। खेत अब हरे रंग में रंग चुका है, पीले रंग का असर अब दिखेगा तो तोते के झुंड खेत में चहलक़दमी करते दिखेंगे। तोता एक चिड़ियाँ है, जिसे धान बहुत पसंद है। खेतों में तोता जब झुंड में पहुँचती है तो हरे रंग का ज़बरदस्त कमाल देखने को मिलता है। खेती-किसानी करते हुए हम प्रकृति के संग जीने लगते हैं।
धान की ये नई बालियाँ मुझे उस आँगन की तरह दिखती है, जहाँ बेटियों की किलकारी सुनने को मिलती है। हमारे यहां तो धान को बेटी का दर्जा प्राप्त है. धान हमारे घर में ख़ुशहाली लाती है. बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि गौतम बुद्ध के पिता का नाम था- शुद्धोदन यानी शुद्ध चावल. वट वृक्ष के नीचे तप में लीन गौतम बुद्ध ने एक वन-कन्या सुजाता के हाथ से खीर खाने के बाद बोध प्राप्त किया और बुद्ध कहलाए. इस कहानी को पढ़कर लगता है शायद इसी वजह से 70 के दशक में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ इलाक़ों में एक पुरानी नस्ल की धान का नाम 'सुज़ाता' होगा. इस धान का चावल बहुत ही सुगन्धित हुआ करता था.
पहले धान की देसी क़िस्मों से खेत गुलज़ार रहता था, उस वक़्त हाईब्रीड नस्ल ने जाल नहीं फैलाया था। बाबूजी की पुरानी डायरी पलटते वक़्त पता चलता है कि पहले धान का नाम बहुत ही प्यारा हुआ करता था, मसलन 'पंकज' 'मनसुरी' , 'जया', 'चंदन', 'नाज़िर', 'पंझारी', 'बल्लम', 'रामदुलारी', 'पाखर', 'बिरनफूल' , 'सुज़ाता', 'कनकजीर' , 'कलमदान' , 'श्याम-जीर', 'विष्णुभोग' आदि. लेकिन नब्बे के दशक से अचानक ये नाम गुम हो गए और इनकी जगह बना हायब्रिड नस्ल के धान के बीज का बाज़ार जिसे अंकों में पहचाना जाने लगा, जैसे 1121 बासमती, 729, 1010 आदि.
आज अपने खेत में इन धान की बालियों को देखकर मन के भीतर का खेत भी हरा हो गया। ज़रूरत है अब धान के उन नस्लों को फिर से खेत में उगाने का, जिसकी वजह से पहले हम किसान पहचाने जाते थे।
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