विजय कुमार मेरे मित्रो मे एक हैं, पेशे से अनुवादक हैं और खुद में ढेर सारी जानकारी छुपा कर रखे हैं. कुछ दिन पहले इनसे मुलाकात हुई तो मैंने इन्हें अपने "अनुभव" के बारे में बताया. जनाब लिखने को तैयार हो गये. मिथिला के ग्रामीण इलाके से ये अब ढेर सारी बातों को अपने अनुभव के द्वारा "अनुभव" में बयां करेगें.
विजय भाई की पहली पाती "अनुभव" के लिए आपके सामने-
मिथिला की लोक संस्कृति का एक अभिन्न एवं अनुपम भाग वहां विभिन्न अवसरों पर गाया जानेवाला लोकगीत है जो बेजान से मौसम को भी रस-आनंद से सराबोर कर देता है। होली के इस रंगीन मौसम में पूरा वातावरण यहां तक कि भूमि, हवा, जल -- सारा कुछ रंगीन हुआ दिखता है। वैसे तो यह बसंत पर्व हर रिश्ते में मिठास घोलने के लिए रस मुहैया कराता है लेकिन इस मौसम में देवर-भाभी के बीच का सौम्य-प्रणय यहां कुछ अलग ही छटा बिखेरता है-
"भैयाक सनेह छै कि हमर गुलाल छै
किछु कहियौ ने केकर कमाल छै
हे यै भौजी ई गाल किएक लाल छै..."
उधर बागों में आम के महकते मज्जर में टिकोले आ जाते हैं और इधर होली का यौवन और प्रौढ़ हो जाता है और आ जाता है बैसाखी पर्व, 'जूड़-शीतल' – एकदम अलबेला... भांग की मस्ती में धूल-धुसरित... जहां रंग की जगह मिट्टी घोल और अबीर-गुलाल की जगह जन्मभूमि की सुरभित-सुवासित मिट्टी पाउडर बना मिलता है।
आनंद का यह मौसम अपना पंख और फैला लेता है जब गेहूं, दलहन आदि फसल कटने लगता है और किसानों की खाली कोठी-बखारी अनाजों से भरने लगते हैं। भैया दूज, चौठ-चन्द्र (गणेश चतुर्थी), दुर्गापूजा, दिवाली आदि के बाद छठ पर्व आता है जिसमें पोखरा, नदी आदि के किनारे सजे हुए कलश जहां उन आस्तिकों की श्रद्धा को दर्शाता है वहीं पूरा वातावरण रंग-बिरंगे सुरीले रागों से आह्लादित रहता है-
"अंगना में पोखरी खुनाइब
छठि मइया अएथिन्ह आइ..."
मुंडन, जनेऊ और विवाह गीत की चर्चा के बिना मिथिला लोकगीत की चर्चा बेमानी है। इन शुभ अवसरों पर प्रेम और आह्लाद के शृंगार से सुसज्जित गीत ऐसे ही स्वतः अपने साथ आनंदातिरेक में बहा ले जाता है। एक मुंडन गीत, जो सुनते ही बनता है, कुछ ऐसा है-
"...बउआ के मौसी हजमा तोरे देबौ रे
हजमा रे धीरे-धीरे कटही बौआक केश
कि बउआ बड दुलारू छै रे...."
अब एक जनेऊ गीत को देखें, जहां हर बरुआ में राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की छवि देखी जाती है-
"आगे माय के देता मूजक डोरी के मिरगा छाल
आगे माय के देता पियर जनेउआ बरुआ चारू भाय..."
वहीं शादी-विवाह में अपनी तीखे तेवरों वाली सालियों से घिरे दुल्हे राजा उनकी खिलखिलाती हंसी के बीच कुछ ऐसे मजाक का सामना करते हैं-
"अहांक बहिनी पूछत भैया रूसल छी किया
अप्पन शायरक नाम नइ हंसायब यौ दुल्हा
अप्पन चोटकल-चोटकल गाल के फुलाउ यौ दुल्हा…"
वहीं विवाह के अन्य गीतों का कुछ अपना ही गहरा भाव है-
"लाजो नइ लगै छौ रघुवर हाथ धरै छा
रघुनंदन हो पोषल धीया सियाजी हमार..."
वहीं सिन्दुरदान के समय का यह गीत-
"…दुल्हा सिन्दुर लियौ हाथ, सोना सुपारी के साथ
सीता उघारी लियौ मांग सिन्दुर लै लाय..."
सरीखे गीतों का माधुर्य हृदय को एक अलौकिक रसानुभूति कराता है। वहीं कन्यादान का यह गीत रिश्तों के अंतरंग दर्द से ओत-प्रोत गहरी संवेदना को जन्म देता है-
"…जंघिया चढ़ाय बाबा बैसल मंडप पर
आजु करिय धीयादान यौ..."
जिसपर जिन्दगी की हर खुशी निसार है वह दिल का टुकड़ा आज खुद से अलग हो रहा है, लगता है यह शरीर मृतप्राय होने जा रहा है, जबकि ये सामाजिक रश्म भार स्वरूप बेटी की विदाई पर खुश होने को कहता है...स्थिति ऐसी है जिसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। यह गीत ही बताता है कि इस संस्कृति में भावनात्मक स्तर पर आपसी रिश्तों की जुड़ाव का जड़ कितना गहरा है।
5 comments:
सच कहूं प्यारे गीत थे.. बहुत दिनों बाद मैथिली सुनने को मिली..
पढ़ने के बाद मिथिला के संस्कृति से पुनः साक्षात्कार हो गया.. गीत तो जड़ना तो मस्त था.. वास्तव में रस में डूब गया था मैं... अति सुन्दर ।
इनसे जुड़ने के बाद ना केवल हम अपनी संस्कृति के करीब आते हैं, बल्कि हम रिश्तों की मिठास को भी पहचानते हैं।
so, please Boys and girls really appreciate to Our Both Friend
Mr. Vijay and Mr. Girinder .
and i wish u all the best for ur career.
आप सभी को शुक्रिया की आपको मेरा यह नया प्रयोग अच्छा लगा. दरअसल ब्लाग में दूसरों के अनुभवों को स्पेस देने से उसकी बातों को एक प्लेटफार्म मिलती है, ऐसा मेरा मानना है.
(विजय भाई अभी और भी पाती देंगे अनुभव को,)
आप सबों को धन्यवाद.
बन्धु !
क्या बात है?
आपकी कृति अति प्रसंशनीय है,
मै अपने सम्पूर्ण आँफिस की तरफ से आप से भविष्य में इसी प्रकार के उत्तम लेख की कामना करता हूँ।
जय माता दी।
--- विनीत कुमार गुप्ता
Software Engineer
( Samtech Infonet Ltd.)
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