हाल ही में मेरे अंचल में एक गैर सरकारी अस्पताल का भूमि पूजन हुआ। देश की एक बड़ी संस्था के बैनर तले यह अस्पताल बनेगा। बनना भी चाहिए। रोगी की उम्मीद जब सरकार से टूट जाए तब निजी अस्पताल ही उनके लिए सहारा बनते हैं। उम्मीद के नाम पर देश में बहुत कुछ हो रहा है। आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से। हम लोग उम्मीद के नाम पर कुछ भी देख सकते हैं। बस कोई उम्मीद दिखा दे।
जब भूमि पूजन वाली खबर पढ़ने को मिली तो लगा कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारें सरकारी अस्पताल भवन, पंचायत भवन या फिर विद्यालय भवन के निर्माण में करोड़ों रुपये फूंकती है ? मुझे यह सवाल हमेशा से परेशान करता रहा है। हर रोज जब शहर से गांव की तरफ जाता हूं तो करोड़ रुपये की लागत से बने पंचायत सरकार भवन पर नजर टिकती है। ताला लगा हुआ है, उस आलिशान भवन में कुछ भी नहीं हो रहा है बस कहने के लिए करोड़ रुपये फूंक दिए गए। बहुत ही सुंदर डिजाइन है उस भवन का। बिहार सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में एक है – पंचायत सरकार भवन।
पंचायत सरकार भवन की तरह ही करोड़ों रुपये खर्च कर राज्य भर के प्रखंड में मॉडल स्कूल बनाए गए। क्या शानदार भवन लेकिन वहां भी ताला। उस बहुमंजिला भवन को लाल, पीला और सफेद रंग में रंगा गया लेकिन अब उस रंग पर बारिश के पानी ने खेल कर दिया है।
जब कुछ करना ही नहीं है तो पैसे क्यों फूंके जा रहे हैं? शायद यही वजह है कि गैर सरकारी संस्थाओं को रास्ता मिल जाता है कुछ करने के लिए। लेकिन जब इलाज, शिक्षा आदि के लिए इतना शानदार सिस्टम बना हुआ हो तो फिर निजी संस्थाओं को आखिर क्यों आगे आना पड़ रहा है ? मेरे एक दक्षिण भारतीय मित्र अक्सर सवाल करते हैं कि शिक्षा , अस्पताल आदि क्षेत्रों में जब निजी कंपनियां, निजी संस्थाएं, ट्रस्ट आदि घुस ही रहे हैं तो पुलिस स्टेशन में भी क्यों नहीं प्रवेश कर रहे हैं ? यह सवाल मुस्कुराने की वजह तो देता है लेकिन संग ही कई मुद्दों पर सोचने के लिए भी विवश करता है।
यही नहीं संस्थाओं को हमने जाति-धर्म के नाम पर शैक्षणिक और स्वास्थ सेवाओं में घुसते देखा है। सेवा को धर्म और जाति के दीवार से बांधने से हमें बचना होगा लेकिन क्या करिएगा अब तो बाजार भी इन्हीं सबका बन रहा है।
तो बात हमने जिस भूमि पूजन शुरु की थी तो उसका विरोध तो नहीं किया जाना चाहिए लेकिन पैसों वालों को सरकारी संस्थाओं पर भरोसा तो दिखाना ही होगा। ऐसे लोगों को निजी प्रेक्टिस करने वाले डॉक्टरों के साथ गाम घर आना चाहिए और बिना किसी रजिस्टर्ड बैनर के तले भी कुछ काम करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि कहीं न कहीं लोगबाग यह सब काम जरुर ही कर रहे होंगे। हाल ही में मधुबनी जिले के एक गांव सरिसब पाही जाना हुआ। वहां बोइंग इंडिया और सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर एक्शन सोशियोलॉजी ने ग्राम पंचायत के सहयोग से काम करना शुरु किया है। संस्था ने अपने बैनर का इस्तेमाल न करके ग्राम पंचायत के मुखिया का साथ दिया और ग्रामीणों के साथ मिलकर काम की शुरुआत कर दी। कहने का मतलब यही है कि बहुत कुछ हो रहा है।
यह सब लिखते हुए मुझे देश के एक आईएएस अधिकारी अवनीश कुमार शरण के बारे में बात करने का मन कर रहा है। अनवीश जी छत्तीसगढ के बलरामपुर जिले के कलेक्टर हैं। उन्होंने अपनी पांच साल की बेटी का दाखिला सरकारी स्कूल में कराया है। कलेक्टर साहब ने बेटी की प्राथमिक स्तर की पढ़ाई के लिए जिला मुख्यालय के शासकीय प्रज्ञा प्राथमिक विद्यालय को चुना है। खबरों से पता चला कि यह पहली बार नहीं है जब कलेक्टर अवनीश कुमार ने ऐसा कदम उठाया हो, इससे पहले अपनी बेटी को पढ़ाई के लिए आंगनवाड़ी स्कूल में भी भेज चुके हैं। अवनीश कुमार का यह फैसला मेरे जैसे उन अभिवावकों के लिए एक बड़ा संदेश है जो सरकारी स्कूल में कमियां निकालते हैं और फिर मोटी रकम चुका कर अपने बच्चों का दाखिला निजी संस्थानों में करा देते हैं।
यदि हम भी चाहें तो सरकारी संस्थाओं की स्थिति सुधार सकते हैं। सरकारी अस्पतालों में हमें जाना चाहिए, वहां के डॉक्टरों से बातचीत करनी चाहिए। सरकारी स्कूलों में प्रवेश करना चाहिए। वहां भी बात करनी चाहिए। बात बन सकती है और हां, इससे हमारा-आपका अनाप-शनाप खर्च भी बच सकता है।
जब भूमि पूजन वाली खबर पढ़ने को मिली तो लगा कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारें सरकारी अस्पताल भवन, पंचायत भवन या फिर विद्यालय भवन के निर्माण में करोड़ों रुपये फूंकती है ? मुझे यह सवाल हमेशा से परेशान करता रहा है। हर रोज जब शहर से गांव की तरफ जाता हूं तो करोड़ रुपये की लागत से बने पंचायत सरकार भवन पर नजर टिकती है। ताला लगा हुआ है, उस आलिशान भवन में कुछ भी नहीं हो रहा है बस कहने के लिए करोड़ रुपये फूंक दिए गए। बहुत ही सुंदर डिजाइन है उस भवन का। बिहार सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में एक है – पंचायत सरकार भवन।
पंचायत सरकार भवन की तरह ही करोड़ों रुपये खर्च कर राज्य भर के प्रखंड में मॉडल स्कूल बनाए गए। क्या शानदार भवन लेकिन वहां भी ताला। उस बहुमंजिला भवन को लाल, पीला और सफेद रंग में रंगा गया लेकिन अब उस रंग पर बारिश के पानी ने खेल कर दिया है।
जब कुछ करना ही नहीं है तो पैसे क्यों फूंके जा रहे हैं? शायद यही वजह है कि गैर सरकारी संस्थाओं को रास्ता मिल जाता है कुछ करने के लिए। लेकिन जब इलाज, शिक्षा आदि के लिए इतना शानदार सिस्टम बना हुआ हो तो फिर निजी संस्थाओं को आखिर क्यों आगे आना पड़ रहा है ? मेरे एक दक्षिण भारतीय मित्र अक्सर सवाल करते हैं कि शिक्षा , अस्पताल आदि क्षेत्रों में जब निजी कंपनियां, निजी संस्थाएं, ट्रस्ट आदि घुस ही रहे हैं तो पुलिस स्टेशन में भी क्यों नहीं प्रवेश कर रहे हैं ? यह सवाल मुस्कुराने की वजह तो देता है लेकिन संग ही कई मुद्दों पर सोचने के लिए भी विवश करता है।
यही नहीं संस्थाओं को हमने जाति-धर्म के नाम पर शैक्षणिक और स्वास्थ सेवाओं में घुसते देखा है। सेवा को धर्म और जाति के दीवार से बांधने से हमें बचना होगा लेकिन क्या करिएगा अब तो बाजार भी इन्हीं सबका बन रहा है।
तो बात हमने जिस भूमि पूजन शुरु की थी तो उसका विरोध तो नहीं किया जाना चाहिए लेकिन पैसों वालों को सरकारी संस्थाओं पर भरोसा तो दिखाना ही होगा। ऐसे लोगों को निजी प्रेक्टिस करने वाले डॉक्टरों के साथ गाम घर आना चाहिए और बिना किसी रजिस्टर्ड बैनर के तले भी कुछ काम करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि कहीं न कहीं लोगबाग यह सब काम जरुर ही कर रहे होंगे। हाल ही में मधुबनी जिले के एक गांव सरिसब पाही जाना हुआ। वहां बोइंग इंडिया और सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर एक्शन सोशियोलॉजी ने ग्राम पंचायत के सहयोग से काम करना शुरु किया है। संस्था ने अपने बैनर का इस्तेमाल न करके ग्राम पंचायत के मुखिया का साथ दिया और ग्रामीणों के साथ मिलकर काम की शुरुआत कर दी। कहने का मतलब यही है कि बहुत कुछ हो रहा है।
यह सब लिखते हुए मुझे देश के एक आईएएस अधिकारी अवनीश कुमार शरण के बारे में बात करने का मन कर रहा है। अनवीश जी छत्तीसगढ के बलरामपुर जिले के कलेक्टर हैं। उन्होंने अपनी पांच साल की बेटी का दाखिला सरकारी स्कूल में कराया है। कलेक्टर साहब ने बेटी की प्राथमिक स्तर की पढ़ाई के लिए जिला मुख्यालय के शासकीय प्रज्ञा प्राथमिक विद्यालय को चुना है। खबरों से पता चला कि यह पहली बार नहीं है जब कलेक्टर अवनीश कुमार ने ऐसा कदम उठाया हो, इससे पहले अपनी बेटी को पढ़ाई के लिए आंगनवाड़ी स्कूल में भी भेज चुके हैं। अवनीश कुमार का यह फैसला मेरे जैसे उन अभिवावकों के लिए एक बड़ा संदेश है जो सरकारी स्कूल में कमियां निकालते हैं और फिर मोटी रकम चुका कर अपने बच्चों का दाखिला निजी संस्थानों में करा देते हैं।
यदि हम भी चाहें तो सरकारी संस्थाओं की स्थिति सुधार सकते हैं। सरकारी अस्पतालों में हमें जाना चाहिए, वहां के डॉक्टरों से बातचीत करनी चाहिए। सरकारी स्कूलों में प्रवेश करना चाहिए। वहां भी बात करनी चाहिए। बात बन सकती है और हां, इससे हमारा-आपका अनाप-शनाप खर्च भी बच सकता है।
2 comments:
>>जब कुछ करना ही नहीं है तो पैसे क्यों फूंके जा रहे हैं?
हो सकता है की काम करने के लिए लोग ही न हों , सरकार के पास .
bahut sahi kahaa apne mai apke vichaaron se poorntah sehmat hoon
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