Tuesday, March 21, 2017

चनका के किसान की डायरी

आलू, सरसों उपजाने के बाद किसानी करने वाले अभी हरियाली में डूबे पड़े हैं। खेतों में मक्का लहलहा रहा है। खेत की हरियाली इन दिनों देखते बनती है। मक्का की हरियाली में खेत डूबा हुआ है। वहीं जलजमाव वाले खेतों में फिर से धनरोपनी हुई है। धनरोपनी के हफ़्ते बाद खेत की सुंदरता देखने लायक होती है। ऐसा लगता है मानो खेत में हरे रंग की चादर बिछा दी गई हो। इन दिनों किसानी करने वाले खुश दिख रहे हैं। लगातार दो महीने मेहनत करने के बाद अभी कुछ दिन किसानों के लिए राहत का है। बस आँधी और ओलावृष्टि न हो !

किसानी की दुनिया को दूर से देखने वाले लोगबाग का कहना है कि लगातार मेहनत से मन ‘हार’ जाता है लेकिन मक्का की हरियाली ‘मन से हार’ को मिटाकर ‘मन को हरा’ कर देती। होली के बाद हवा ने भी रुख बदला है, धूल ने हवा का साथ दिया और गर्मी ने इन दोनों के बीच अपने लिए जगह बनाकर दस्तक देने की कोशिश की है, हालाँकि ठंड अभी भी है। वहीं दूसरी ओर कुछ दिन पहले हुई बारिश 
ने किसानों को पटवन से राहत तो दी है लेकिन हवा और उमड़ते-घुमड़ते बादल से आँधी का भय हमें सता रहा है। 

ख़ैर, अब सबकुछ मौसम के हवाले है। प्रकृति जो चाहेगी वही होगा। किसान ने खेत में मेहनत कर दिखा दिया है। खेत में अपना काम पूरा कर किसानी समाज इन दिनों अपनी दुनिया  में मगन है। सच कहें तो होली के बाद भी गाम –घर में अभी उत्सव जैसा माहौल बना ही हुआ है। किसी न किसी के घर में भगैत या कीर्तन हो रहा है। वहीं कुतुबु्द्दीन चाचा जलसा करवा रहे हैं। धर्म की दीवार लोगों के बीच नहीं है, यह देखकर और इसे अनुभव कर अच्छा लगता है।यहाँ फ़सल की तरह हर रंग में लोग डूबे हैं। 

उधर, आम, लीची, कटहल और नींबू के पेड़ फलों के लिए तैयार हो रहे हैं। आम के मंजर मन के भीतर टिकोले और पके आम के बारे में सोचने को विवश कर रहे हैं। मन लालची हुआ जा रहा है। उन मंजरों में किड़ों ने अपना घर बना लिया है, मधुमक्खियां इधर-उधर घूम रहे हैं। रेलवे की लाइन की तरह आम बाड़ी में पंक्तिबद्ध मालदह, कलकतिया, गुलाबखास, बम्बई, जर्दालू, आम्रपाली गाछों में मंज़र देखकर मन चहकने लगा है। लीची में भी मंज़र हैं लेकिन आम ने इस बार बाजी मारी है।

लीची बाड़ी में छोटी मधुमक्खियाँ आईं हुई हैं। मंज़रों में मधुमक्खियाँ लिपटी रहती हैं। वहीं कटहल अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगा है। नींबू तो काटों  के बीच मोती माला की तरह दिखने लगा है। 

बांस के झुरमुटों में कुछ नए मेहमान आए हैं। बांस का परिवार इसी महीने बढ़ता है। अभी से लेकर बरसात तक बांस की सुंदरता देखने लायक होती है। वहीं उसके बगल में बेंत का जंगल और भी हरा हो गया है। लगता है गर्मी की दस्तक ने उसे रंगीला बना दिया है। कुछ खरगोश दोपहर बाद इधर से उधर भागते फिरते मिल जाते हैं, वहीं गर्मी के कारण सांप भी अपने घरों से बाहर निकलने लगा है। जीव-जंतुओं का ग्राम्य संस्कृति में बड़ा दखल होता है, ऐसा मेरा मानना है।

ग्राम्य जीवन के इस महीने की व्याख्या शब्दों में करना संभव नहीं है।  यहां जीवन हर पल बदलता है। अपना अनुभव कहता है कि किसान के भीतर मां होती है, जो 12 महीने फसल के रुप में बच्चों को पालती-पोसती है और फिर फसल को तैयार कर जब मंडी पहुंचाया जाता है तो बेटी की विदाई जैसा माहौल किसान के मन में तैयार हो जाता है। शायद ऐसी जिंदगी आप किसी पेशे में नहीं जीते हैं। किसानी में ही ऐसा संभव है।

दरअसल किसानी को पेशा माना जाना चाहिए। हालाँकि अभी भी तथाकथित विकसित समाज इसे पेशा मानने को तैयार नहीं है। कई लोग ऐसे मिले जो किसानी को मजबूरी कहते हैं। 

वहीं किसानी में समय का अपना महत्व है या कहिए महामात्य है। हर कुछ समय पर होता है और मेहनत का फल भी समय पर मिल जाता है। गाम के कबीराहा मठ की ओर शाम में जब जाना होता है तो अंदर से साधो-साधो की आवाज गूंजने लगती है। मन ही मन बूदबूदाता हूं- “धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।  माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय”

जीवन की आपाधापी के बीच यार-दोस्त गाम में किसानी कर रहे अपने इस दोस्त के यहां आ जा रहे हैं। जब भी दूर नगर-महानगर से कोई दोस्त –यार आता है तो मन के भीतर हरियाली और भी बढ़ जाती है। मैं कबीर में खो जाता हूं और बस यही कहता हूं- 

“दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय  
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ “

(21 मार्च 2017 को प्रभात खबर के कुछ अलग स्तंभ में प्रकाशित)

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