आखिर क्या है मतलब किसान का बेटा होने का ? क्या कुछ अंतर है..? जवाब हां या नहीं में दे नहीं सकता, इसलिए कुछ बातों के सहारे उत्तर दूंगा। कुछ बातें ऐसी जरूर है, जो मैं जानता हूं, लेकिन आप नहीं जानते होंगे। अंतर साफ है क्योंकि मैं किसान का बेटा हूं। मुझे पता है धान रोपनी के लिए कादो करना (मिट्टी को गीला करना) जरूरी है। कादो शब्द है, जो किसानी करने वाला ही जान सकता है। ऐसे कई शब्द है, कई गीत हैं, कई औजार हैं और सबसे बढ़कर त्योहार हैं (धर्म से उठकर) जो किसान जानता है।
सुबह उठकर भैंस को खेतों में घूमाने के लिए एक अलग शब्द किसान प्रयोग में लाते हैं- पस्सर खोलना। आप ऐसे शब्दों में बिहार के गांवों में परिचित हो सकते हैं। चरवाहा जब भैंस को चराने (घूमाने) ले जाता है तो जानते हैं उस समय घड़ी की सूई कहां टिकी होती है, जनाब तब सुबह के साढ़े तीन से चार बजे होते हैं।
भैंस पर बैठकर आंचलिक गीतों को गाते चरवाहे से आपकी कभी मुलाकात हुई ? उसके गीतों के बोल आपको भले ही समझ में नहीं आएंगे लेकिन मन को जरूर पंसद आएगा। मसलन,
हे भगवान तू छैं कतो,
सब दिन भोर में उठि क
मन तमसा जाए छै हो....
ब्रहम वेला मे उठला पर
घरवाली तमसै छै हो....
हे हो भगवान.....
(हे ईश्वर तुम कहां हो, हर रोज सुबह में उठने से मन क्रोधित हो जाता है। ब्रहम वेला में जब उठता हूं तो घरवाली भी गुस्सा हो जाती है।)
ऐसे गीतों को सुनकर मैं खुद कहूं तो मन तृप्त हो जाता है, भले ही इन गीतों को सुने वर्षों बीत चुके हैं। गीतों की ही केवल बात करुं तो धान रोपनी के समय अलग-अलग गीत सुनने को मिलते हैं। फसल के हर मौसम के लिए अलग गीत है। ये गीत धर्म से उठकर होते हैं। इस समय एक एक बरसाती गीत गाने को जी मचल रहा है-
“भादव मास भयंकर रतिया-या-या,
पिया परदेस गेल धड़के मोर छतिया-या-या,
कैसे धीर धरौं मन धीरा-
आसिन मास नयन ढरै नीरा-आ-आ-आ..।“
फिर एक विरह गीत की याद आती है-
हे गे छौरि, हे गे छौरि कथि ले कनई छी गे
जैबो पोठिया, लानबौ भोटिया तोरे सुतैबौ गे...हे गे छौरि,
हे गे छौरि कथि ले कनई छी गे
जैबो पूरनिया, लैबो हरमोनिया, तोरे नचैबो गे ................
फसल कटने के बाद जब किसान के पास अन्न के साथ पैसे आ जाते हैं तो भगैत जैसे समारोह आयोजित होते हैं। उसमें गीत गाए जाते हैं, मसलन-
" हे हो... घोड़ा हंसराज आवे छै
गांव में मचते तबाही हो
कहॅ मिली क गुरू ज्योति क जय....."
हिन्दी अनुवाद-( सुनो सभी, घोड़ा हंसराज आने वाला है,गांव में मचेगी अब तबाही,सब मिलकर कहो गुरू ज्योति की जय )
इन्हीं बातों को जानने के कारण मेरी तरह के लोग यह कहकर गर्व महसूस करते हैं कि वह किसान का बेटा है। अब आप कहेंगे कि चुनावी मौसम में मैं देहाती बातें क्यों कर रहा हूं, दरअसल इन बातों में राजनीति होती नहीं है और इन बातों से हम उन शब्दों से एक बार फिर अपनापा महसूस करने लगते हैं, जिससे महानगरों की आपाधापी में हम दूर निकल गए हैं।
8 comments:
मैं क्या मेरे सात पीढ़ी के लोगों ने कभी खेती नहीं की लेकिन मुझे कुछ-कुछ शब्द अपनी बुआ के यहां सुनने को मिलते,उनके यहां खेती होती है। खेती भी कैसी, उसकी तारीफ में मां बताती है कि एक जमाना रहा जब फूफा के खेत के बैंगन,टमाटर और लौकी को खाद,बीज,कीटनाशक वाली कंपनियां फोटो घिचने आती। उसी में एक शब्द सुनता था, अगोरना। मेरे फुफेरे भाई कहा करते- खेत अगोरने जा रहे हैं। अगोरना माने रखवाली करना।
बहुत रोचक लेख है। हर प्रान्त के ग्रामीण जीवन के अपने ही शब्द होते हैं। मुझे पंजाब के कुछ शब्द याद आ रहे हैं, शायद कुछ गल्तियाँ भी हों। गाय भैंस के खाने के लिए खेतों में एक फसल बरसीन की बोई जाती है, गायों को झुंड में चराने को ले जाया जाता है, इस झुंड को चौना कहते हैं। आंचलिक शब्द होने से उनका उपयोग कहीं और नहीं हो पाता।
घुघूती बासूती
किसान होने का मतलब वही समझ सकता है, जिसने खेतों में चिलचिलाती धूप के बीच हाड तोड मेहनत की हो।
गिरीन्द्र भाई बहुत खूब , सच बात है कि यह सब वही जान सकता है को उस परिवेश में रहा हो । कितना आनंद मिलता है ।
एक विकल्प न लोगों के लिए जो किसान पुत्र नहीं हैं लेकिन जिनका मन ये सब जानने को होता है- रेणु को पढ़े, फणीश्वरनाथ रेणु को। लगेगा कि गांव को ट्रेन की सीट पर बैठकर नहीं बल्कि उसकी पगडंडियों से होकर गुजर रहे हैं।
बहुत अच्छा लगा यह आलेख ... किसान के बेटे को जो मालूम होता है ... वह भला शहरी बाबू को कहां से मालूम होगा ?
ठीके जा रहे हो भाई. अब शब्दकोष तैयार हो ही जाएगा. तनी-मनी मदद एन्ने से हमहूं कर देंगे. :)
रोचक लगा जी मिथाल्चल के गाँव दिहात के गीतों का संग.
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