बाबूजी का गाम
-गिरीन्द्र नाथ झा
-------------
बाबूजी का गाम दूर था
उस गाँव से
जहाँ वे रहते थे
बाबूजी का गाम
उनका 'देस' था
कोसी के उस पार।
कोसी के इस पार तो
वे किसान थे
लेकिन
उस पार थे
'धान-पटुआ वाले' !
बाबूजी के भीतर बसता था
दो गाँव
दो बस्ती
दो समाज।
वे अक्सर निकल पड़ते थे
अपने देस
धान,पटुआ, मूँग, गेहूँ उपजाकर।
अब जब वे निकल गए हैं
बहुत दूर
अपने 'लोक-देस' में
तब मैं भी घूम आता हूं
कभी-कभी
उनका देस।
हम प्रवासी
अपने भीतर
छुपाए रखते हैं
न जाने कितने गाम-घर!
कोसी के इस पार
घर के आगे क़दम-बाड़ी
सामने पोखर
नीलकंठ चिड़ियाँ
और उस पार
आम-लीची-पोखर-माछ ।
मुल्क की बदलती राजनीति
प्रेम के चौक़ीदार
'रंग' वाली 'गंध' वाली राजनीति
यह सब जीते-भोगते
आज अचानक
लोहे वाली काली आलमारी में
बाबूजी की एक चिट्ठी मिल गई
बाबूजी ने अपने बाबूजी को
भेजी थी वह चिट्ठी
५१ साल पुरानी चिट्ठी
जिसमें बाप-बेटे
खेत-खलिहान
और
देस की बात करते हैं
चिट्ठी में नहीं है ज़िक्र
राजनीति की
ज़िक्र है तो बस
नहर का
अच्छी फ़सल और
पटसन के दाम का
किसानी के नए अंदाज़ का
ट्रेक्टर ख़रीदने की योजना का
धान बेचकर
बंधक पड़ी ज़मीन छुड़ाने का।
चिट्ठी हाथ में थामते ही
हथेली से पुराने काग़ज़ की
गंध आती है
बार-बार सूंघता हूं और
काग़ज़ में खोजता हूं
बाबूजी को,
बाबूजी के बाबूजी को,
यह सब सोचते हुए
घर के आगे
पोखर के किनारे
जहाँ अब बाबूजी हैं
वहाँ पहुँच जाता हूं,
वहाँ उग आई हैं
ढेर सारी श्याम तुलसी
काग़ज़ का गंध
और तुलसी की महक
अब एक जैसी लगती है,
ठीक वैसे ही जैसे
बाबूजी को लगता था
उनका अपना देस!
(चनका, २३ मार्च, २०१७)
-गिरीन्द्र नाथ झा
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बाबूजी का गाम दूर था
उस गाँव से
जहाँ वे रहते थे
बाबूजी का गाम
उनका 'देस' था
कोसी के उस पार।
कोसी के इस पार तो
वे किसान थे
लेकिन
उस पार थे
'धान-पटुआ वाले' !
बाबूजी के भीतर बसता था
दो गाँव
दो बस्ती
दो समाज।
वे अक्सर निकल पड़ते थे
अपने देस
धान,पटुआ, मूँग, गेहूँ उपजाकर।
अब जब वे निकल गए हैं
बहुत दूर
अपने 'लोक-देस' में
तब मैं भी घूम आता हूं
कभी-कभी
उनका देस।
हम प्रवासी
अपने भीतर
छुपाए रखते हैं
न जाने कितने गाम-घर!
कोसी के इस पार
घर के आगे क़दम-बाड़ी
सामने पोखर
नीलकंठ चिड़ियाँ
और उस पार
आम-लीची-पोखर-माछ ।
मुल्क की बदलती राजनीति
प्रेम के चौक़ीदार
'रंग' वाली 'गंध' वाली राजनीति
यह सब जीते-भोगते
आज अचानक
लोहे वाली काली आलमारी में
बाबूजी की एक चिट्ठी मिल गई
बाबूजी ने अपने बाबूजी को
भेजी थी वह चिट्ठी
५१ साल पुरानी चिट्ठी
जिसमें बाप-बेटे
खेत-खलिहान
और
देस की बात करते हैं
चिट्ठी में नहीं है ज़िक्र
राजनीति की
ज़िक्र है तो बस
नहर का
अच्छी फ़सल और
पटसन के दाम का
किसानी के नए अंदाज़ का
ट्रेक्टर ख़रीदने की योजना का
धान बेचकर
बंधक पड़ी ज़मीन छुड़ाने का।
चिट्ठी हाथ में थामते ही
हथेली से पुराने काग़ज़ की
गंध आती है
बार-बार सूंघता हूं और
काग़ज़ में खोजता हूं
बाबूजी को,
बाबूजी के बाबूजी को,
यह सब सोचते हुए
घर के आगे
पोखर के किनारे
जहाँ अब बाबूजी हैं
वहाँ पहुँच जाता हूं,
वहाँ उग आई हैं
ढेर सारी श्याम तुलसी
काग़ज़ का गंध
और तुलसी की महक
अब एक जैसी लगती है,
ठीक वैसे ही जैसे
बाबूजी को लगता था
उनका अपना देस!
(चनका, २३ मार्च, २०१७)
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