Saturday, September 24, 2022

पितृपक्ष और बाबूजी

पितृपक्ष शब्द ही खुद में एक शास्त्र है। इस दौरान हम अपने पुरखों को याद करते हैं, उनकी स्मृति में कुछ न कुछ जरूर करते हैं। मेरे लिए पितृपक्ष शक्ति पूजा की तरह है। मेरे लिए पितृपक्ष की  अलग अलग तिथि पूर्वजों का आशीष है। 
बाबूजी हर दिन तर्पण करते थे, वे पुरखों को याद करते थे। तर्पण की परम्परा हमने बाबूजी से ही सीखी। वे नियम से तर्पण करते थे। शास्त्रीय - धार्मिक पद्धति के अलावा वे एक काम और किया करते थे, वह था अपने पूर्वजों के बारे में बच्चों को जानकारी देना। दादाजी की बातें वे बड़े नाटकीय अन्दाज़ में सुनाते थे।  वे उसमें वे शिक्षा, व्यवहार के संग खेती- बाड़ी को जोड़ते थे। सबसे बड़ी बात वे किसी की भी निंदा नहीं करते थे। उनके भीतर जो चलता हो लेकिन बाहर वे किसी की निंदा करने से बचते थे। अपने किये के प्रचार से वे हमेशा दूर रहे। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि हमने ये किया.. वे सबकुछ 'अपने पिता का किया' कहते थे। 

पितृपक्ष की परंपरा को समझने- बूझने के दौरान आज बाबूजी की बहुत याद आ रही है। लगता है वे आसपास कहीं टहल रहे हैं। हर दिन जब संघर्ष का दौर बढ़ता ही जा रहा है और सच पूछिए तो चुनौतियों से निपटने का साहस भी बढ़ता ही जा रहा है, ऐसे में लगता है कि बाबूजी ही मुझे साहस दे रहे हैं। अक्सर शाम में पूरब के खेत में घूमते हुए लगता है कि वे सफेद धोती और बाँह वाली कोठारी की गंजी में मेरे संग हैं।

लोग पितृपक्ष में परंपराओं के आधार पर बहुत कुछ करते हैं, मैं कोई अपवाद नहीं। लेकिन मैं उन चीज़ों से मोहब्बत करने लगा हूं, जिसे बाबूजी पसंद किया करते थे। खेत, पेड़-पौधे, ढ़ेर सारी किताबें, डायरी में लिखा उनका सच और उनकी काले रंग की राजदूत।

बाबूजी की पसंदीदा काले रंग की राजदूत को साफ़ कर रख दिया है, साइड स्टेण्ड में नहीं बल्कि मैन स्टेण्ड में। वे साइड स्टेण्ड में बाइक को देखकर टोक दिया करते थे और कहते थे : " हमेशा सीधा खड़े रहने की आदत सीखो, झुक जाओगे तो झुकते ही रहोगे..."

सच कहूं तो अब अपने भीतर, आस पास सबसे अधिक बाबूजी को महसूस करता हूं। पितृपक्ष में लोगबाग कुश-तिल और जल के साथ अपने पितरों को याद करते हैं। लेकिन मैं अपनी स्मृति से भी अपने पूर्वजों को याद करता हूं क्योंकि स्मृति की दूब हमेशा हरी होती है और इस मौसम में सुबह सुबह जब दूब पर ओस की बूँदें टिकी रहती है तो लगता है मानो दूब के सिर पे किसी ने मोती को सज़ा दिया है।

आज बाबूजी से जुड़ा सबकुछ याद आ रहा रहा है। उनका अंत कष्ट से भरा रहा। जीवन के अंतिम दो साल मानो वे कष्ट के हर रंग को देखना चाहते थे। पितृपक्ष में मुझे बाबूजी की दवा, बिछावन, व्हील चेयर, किताबों वाला आलमीरा...सबकुछ याद आता है, मेरे लिए स्मृति भी एक तरह का तर्पण ही है। 

मैं हर दिन सबकुछ उन्हें अर्पित करता हूं। वे मेरे लिए एक जज्बाती इंसान थे लेकिन यह भी सच है कि वे ऊपर से एक ठेठ-पिता थे,  जिसने कभी अपना दुख साझा नहीं किया, जिसने अपनी पीड़ा को कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया।

आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्त्वपोऽञ्जलिम्।।
ॐ पितरस्यस्तृप्यन्ताम्।।




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