Tuesday, March 07, 2017

पूंजी के लिए परेशान किसान

गाँव का हरीश कमाई को लेकर हमेशा परेशान रहता है। इस बार आलू की पैदावार अच्छी हुई लेकिन क़ीमत नहीं मिलने के कारण हरीश फिर से परेशान है। यह किसान बार -बार पंजाब का ज़िक्र करता है। हरीश को बताता हूं कि पंजाब में किसानी कर रहे लोग भी परेशान हैं, लेकिन वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल आप देश के किसी भी हिस्से के ग्रामीण इलाक़ों का दौरा कर आइए, हर जगह पंजाब की खेती की तारीफ़ सुनने को मिलेगी। हालाँकि वहाँ  के किसान भी अब परेशान हैं लेकिन तो भी देश के अन्य हिस्सों की तुलना में पंजाब के किसान ख़ुशहाल हैं। किसी भी राज्य के किसान की ख़ुशहाली की वजह क्या हो सकती है? इसका एक ही जवाब है- पैसा। जिस तरह किसी भी व्यवसाय में पैसे से पैसा बनता है, ठीक वैसे ही खेती  में यदि किसान  के पास पूँजी हो तो वह ऊँची उड़ान भर सकता है।

हाल में एनएसएसओ (नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन) के एक सर्वे पर नज़र गई। सर्वे के अनुसार देश में पंजाब राज्य का किसान हर महीने सबसे ज्यादा 18059 रुपए की कमाई करता है,जबकि बिहार का किसान देश में सबसे कम मात्र 3558 रुपए प्रति महीना कमाता है। हालाँकि यह सर्वे रिपोर्ट तीन साल पुरानी है लेकिन गाँव में खेती-बाड़ी करते हुए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।  किसान आज भी परेशान हैं।

हाल ही में इंदौर के एक किसान ने आलू की खेती में हुए घाटे का जब ज़िक्र किया तो नेशनल मीडिया ने इस ख़बर को प्रमुखता दी। दरअसल किसी ने आलू खेती में इंदौर के इस किसान के घाटे की बात को ट्वीट के ज़रिए प्रधानमंत्री तक पहुँचा दिया। इस बार इंदौर के किसान राजा चौधरी के लिए आलू की खेती करना बेहद घाटे का सौदा साबित हुआ। राजा चौधरी ने इंदौर के चोयथराम मंडी में 20 क्विंटल आलू बेचा था, जिसके दाम मिले 1075 रुपए। वहीं किसान को आलू मंडी में पहुंचाने में खर्च हो गए 1074 रुपए। यानी किसान को महज एक रुपए का फायदा हुआ। इस किसान का दावा है कि इस बार तो उसे एक रुपए का मुनाफा भी हुआ है, लेकिन पिछली बार उसने 1620 रुपए के आलू बेचे थे, जबकि खर्च हुए थे 2393 रुपए। यानी 773 रुपए का उसे नुकसान हुआ है।  अपनी बात को साबित करने के लिए किसान राजा चौधरी ने खर्च और आमदनी का बिल अपने पास संभालकर रखा है।

बिहार के हरीश और मध्य प्रदेश के राजा चौधरी का ज़िक्र हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि किसान को वाजिब क़ीमत नहीं मिल रही है जबकि बाज़ार में उसकी बढ़ियाँ क़ीमत तय है लेकिन खेत में नहीं। तो क्या किसान के पास बड़ा गोदाम होना चाहिए, जहाँ वह फ़सल का स्टॉक करे? यह बेहद ही परेशान करने वाला सवाल है। हम किसानी कर रहे लोग हर साल इस तरह की दिक़्क़तों का सामना करते हैं। बाज़ार भाव क्या होता है, यह हम समझ ही नहीं पाते हैं।

इस बार धान को लेकर भी बिहार के ग्रामीण इलाक़ों में आलू की तरह ही परेशानी हुई। हम किसान सरकारी दर पर यदि धान बेचना चाहें तो तीन महीने तक हमें धान का स्टॉक रखना पड़ता है, फिर उसे प्राथमिक कृषि साख समिति (पैक्स) और बैंक का चक्कर अलग से लगाना पड़ता है। अब आप ही बताएँ कि यदि हम पहले फ़सल न बेंचें तो खेत में नए फ़सल को कैसे लगाएँगे। बात हर मोड़ पर पूँजी में आकर अटक जाती है और यहीं से आरम्भ होता है किसानों का पलायन। बिहार का किसान देश के अन्य हिस्सों में मज़दूर बन जाता है। अन्नदाता के मजदूर बनने की पीड़ा को शब्दों में ढाला नहीं जा सकता है। यह एक किसान की पीड़ा है। खेत और पूँजी के बीच एक रास्ता तो तैयार करना ही होगा, वह भले ही समूह बनाकर खेती ही क्यों न  हो। किसानों को मिल बैठकर इस पर विचार करना होगा। वैसे बात यह भी है कि हम किसानी समाज के लोग अपनी लड़ाई लड़ने के लिए ख़ुद ही तैयार नहीं है। हम ख़ुद के लिए सड़क पर उतरने के लिए तैयार नहीं है। तर्क गढ़ते हैं बस। आलू की क़ीमत कम मिलती है तो भी हम शांत हैं, अपने भाग्य का रोना रोते हैं और अगली फ़सल में जुट जाते हैं, जबकि वक़्त लड़ने का है। लेकिन अब किसान को ललित निबंध से नाता तोड़कर संगठित होकर खेती करना होगा। 

1 comment:

Unknown said...

Hello Sir,
Hum agriculture product ka value addition kar ne k baare me kisano ko train nai kar sakte..?