एक जिद जमीन की भी होती है, जिसके संग कागज का मोह जुड़ा होता है। कागज भी कमाल का! जमीन की दिशा-दशा-मालिकाना सब कागज की उस पुड़िया में बंधी रहती है और जिद देखिए हर कोई उसे अपने हिस्से रखने की जुगत में लगा रहता है।
जमीन मायावी है, जमीन तिलस्मी है। लेकिन मैं इस मायावी जमीन पर अब 'नीम' लगाना चाहता हूँ। नीम, जिसे गाँव का दवाखाना कहा जाता है, नीम जिसे सूर्य का प्रतिबिम्ब माना जाता है। खेती को खटारा मानने वालों को खेत की दुनिया में डुबकी लगाना चाहिए और गाँव में वक़्त गुज़ारना चाहिए।
दरअसल मैं जमीन को कागजी दांव-पेंच से आगे एक जीवन की तरह देखता हूं। आप इसे एक किसान की माया कह सकते हैं, भरम मान सकते हैं लेकिन कदंब, बांस आदि के बाद अब नीम के पौधे लगाने की योजना है। ताकि मोह केवल जमीनी कागज का ही ना रहे बल्कि मोह प्रकृति से भी बना रहे, नीम की तरह।
यह सब इसलिए क्योंकि हम सब किसानी कर रहे लोग ज़मीन में उलझकर जीवन से अक्सर परेशान हो जाते हैं। उन कागजों में उलझकर किसानी पेशे का आनंद नहीं उठा पाते हैं। यह परेशान करने वाला सवाल है। लेकिन परेशान होकर जीवन जीने की आख़िर क्या ज़रूरत है, इसपर भी विचार करना चाहिए। सब्सिडी का लोभ और ऋण की लालसा किसान को कमज़ोर करती है। हो सकता है कि यह बात आपको पसंद न आए लेकिन ज़मीन की लड़ाई अब इसी के आसपास घूम रही है। ऐसे में पेड़ से प्रेम करना हम किसानों को सीखना होगा। ज़मीन की काग़ज़ी लड़ाई से कहीं आगे निकलकर माटी से इश्क़ करना होगा। ज़मीन बेचने की लत से छूटकारा तब ही मिलेगा जब हम धरती मैया के गोद में खेलेंगे और पौधे लगाएँगे। खटारा होती खेती में आइये हम सब मिलकर नई जान फूंकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे हमारे पुरखे करते थे जंगल से प्रेम, नीम और आँवला जैसे पेड़ से प्रेम।
जमीन मायावी है, जमीन तिलस्मी है। लेकिन मैं इस मायावी जमीन पर अब 'नीम' लगाना चाहता हूँ। नीम, जिसे गाँव का दवाखाना कहा जाता है, नीम जिसे सूर्य का प्रतिबिम्ब माना जाता है। खेती को खटारा मानने वालों को खेत की दुनिया में डुबकी लगाना चाहिए और गाँव में वक़्त गुज़ारना चाहिए।
दरअसल मैं जमीन को कागजी दांव-पेंच से आगे एक जीवन की तरह देखता हूं। आप इसे एक किसान की माया कह सकते हैं, भरम मान सकते हैं लेकिन कदंब, बांस आदि के बाद अब नीम के पौधे लगाने की योजना है। ताकि मोह केवल जमीनी कागज का ही ना रहे बल्कि मोह प्रकृति से भी बना रहे, नीम की तरह।
यह सब इसलिए क्योंकि हम सब किसानी कर रहे लोग ज़मीन में उलझकर जीवन से अक्सर परेशान हो जाते हैं। उन कागजों में उलझकर किसानी पेशे का आनंद नहीं उठा पाते हैं। यह परेशान करने वाला सवाल है। लेकिन परेशान होकर जीवन जीने की आख़िर क्या ज़रूरत है, इसपर भी विचार करना चाहिए। सब्सिडी का लोभ और ऋण की लालसा किसान को कमज़ोर करती है। हो सकता है कि यह बात आपको पसंद न आए लेकिन ज़मीन की लड़ाई अब इसी के आसपास घूम रही है। ऐसे में पेड़ से प्रेम करना हम किसानों को सीखना होगा। ज़मीन की काग़ज़ी लड़ाई से कहीं आगे निकलकर माटी से इश्क़ करना होगा। ज़मीन बेचने की लत से छूटकारा तब ही मिलेगा जब हम धरती मैया के गोद में खेलेंगे और पौधे लगाएँगे। खटारा होती खेती में आइये हम सब मिलकर नई जान फूंकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे हमारे पुरखे करते थे जंगल से प्रेम, नीम और आँवला जैसे पेड़ से प्रेम।
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