Monday, August 12, 2019

किसानी के सात साल

अद्भूत , आज फेसबुक मेमोरी में अपना ही स्टेटस मोहक लग रहा है ! किसानी करते हुए सात साल गुजर गए। इन सात सालों में जीवन इंद्रधनुष की माफिक हो गया। कितना कुछ बदल गया। एक से बढ़कर एक लोग मिलते रहे, कारवां बनता गया।

इन सात साल में बहुत कुछ खोया भी, बहुत कुछ पाया भी। आप अपने काम-धाम का लेखा-जोखा करने बैठते हैं तो आपका मन शिक्षक की भूमिका में सामने खड़ा हो जाता है।

इन सात साल में गाम -घर और खेती-बाड़ी जीवन का हर रंग दिखाने में कामयाब रहा और यह चेतावनी भी देता रहा कि अभी बहुत कुछ करना बांकी है, पड़ाव आते रहेंगे, वह हमारी मंजिल नहीं होगी।

इन सात साल में धान, मक्का, गाछ-वृक्ष, जल-जंगल-जमीन, सबकुछ किताब के पन्नों की तरह जीवन में समा चुका है। किसान की आवाज़ अंदर-भीतर आलाप करता रहता है। 'एक ऋतु आये एक ऋतु जाए' की सीख इसी पेशे में मिली।

किसानी करते हुए सात साल गुजर गए और जब इन गुजरे साल का हिसाब करने बैठा हूँ तो धान की हरियाली और भी मोहक लगने लगी है। खेत को देखता हूँ लगता है कि कबीर लाठी लिए सामने खड़े हैं और चेतावनी दे रहे हैं कि मन के भीतर कितना मैल बैठ गया है, पहले उसे साफ करो...

बाबूजी जब अनंत यात्रा पर निकल गए तो एकबारगी लगा कि अब क्या ! लेकिन वक्त सबसे बड़ा शिक्षक है, वही सम्पादक है, वही साथी है, वह सबकुछ सीखा देता है। इन गुजरे सात साल में बाबूजी की छाया भीतर पानी की तरह समाने लगी है, वे हर दिन कुछ नया दे जाते हैं ताकि संघर्ष जारी रहे।

खेती बाड़ी करते हुए लोगबाग से करीबी बढ़ती जा रही है, खेत की माया गाछ-वृक्ष की छाया में समाते जा रही है, नाटक की तरह। इन सात साल में गाँव भी बदला है, बहुत कुछ बदला। लेकिन किसानी के पेशे में आने के बाद जिस चीज ने मुझे मजबूत बनाया है वह संघर्ष ही है, रेणु की बोली में- 'तेरे लिए मैंने लाखों के बोल सहे...'

अभी बहुत कुछ करना बांकी है, यात्रा जारी है, हम सब यात्री बने रहें...

2 comments:

Nutan Singh said...

आप का देख देख मेरा भी मन होता है अपनी खेती अपने गाँव को कैसे जोड़ूँ अपने से । मन कचोटता है। नौकरी पाँच सौ किलोमीटर दूर । रिटायरमेंट के बाद तो और नहीं हो पाएगा।
आपकी पोस्ट से जुड़ाव महसूस होता है।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

शुक्रिया