भवानीप्रसाद मिश्र की कविता की पंक्ति है- "उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना " मार्च की शुरुआत में देश के विभिन्न हिस्सों में जब बे-मौसम बारिश हो रही है तो यह पंक्ति मुझे सबसे अधिक अपनी ओऱ खींच रही है।
इस खींचाव के पीछे गांव की पगडंडी है, जिसे आप गांव कनेक्शन कह सकते हैं। सोच रहा हूं कि यदि इन दिनों कोई फोटोग्राफर देश के अधिकांश गांवों की तस्वीरें खींचें तो आंखों के सामने कीचड़ से सनी सड़क और लबालब खेत पेंटिंग की तरह सबके सामने आ जाएगी।
इस खींचाव के पीछे गांव की पगडंडी है, जिसे आप गांव कनेक्शन कह सकते हैं। सोच रहा हूं कि यदि इन दिनों कोई फोटोग्राफर देश के अधिकांश गांवों की तस्वीरें खींचें तो आंखों के सामने कीचड़ से सनी सड़क और लबालब खेत पेंटिंग की तरह सबके सामने आ जाएगी।
बे –मौसम बारिश की बढ़ती रफ्तार से सूखे नहर में पानी ने दस्तक देने की कोशिश की है। उधर, खेत में गरमा धान की खुशी देखने लायक है। जहां पानी जमा है वहां मछली की छपाछप संगीत की भांति हमें खींच रही है। सच कहिए तो ये सब मेरी आंखों में अंचल की श्वेत-श्याम तस्वीरों की एलबम तैयार कर रही है, जिसे मैं अपने मन की आलमारी में सहेजकर रखना चाहूंगा।
आज से तीन साल पहले मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि धान, गेंहू, मूंग, तोड़ी या पटूआ की खेती किस महीने होती है, मुझे तो बस यही मालूम था कि बारिश में खेत सबसे सुंदर दिखती है, सखी की तरह। "हवा का ज़ोर वर्षा की झरी, झाड़ों का गिर पड़ना..."
घर के आगे दूर-दूर तक फैले खेत और उसकी सीमाओं पर खड़े पेड़ चुंबकीय आकर्षण पैदा करती रही है। आज बे-मौसम बारिश के बारे में लिखते वक्त जब किसानी के अनुभव को समझने बूझने लगा हूं तो खेती और लेखन का आनंद और बढ़ गया है।
बारिश के वक्त मुझे खेतों से एक अजीब तरह की सुगंध अपनी ओर खींचती है, मिट्टी की ऐसी खुश्बू और कहीं नहीं मिलती है, बस यहीं मिलती है, अपने गाम में। नहर में बलूहाई पानी और बारिश की तेज बूंदे धार (खेत, जहां पानी जमा होता है, पूर्णिया जिले में इसमें पटुआ को रखा जाता है) में इठलाती प्रवेश करती है तो गांव का सुदेस उरांव खुश हो जाता है क्योंकि सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर भांति-भांति की मछलियां जो गांव आ पहुंची है।
माछ, सुनकर ही मन छप-छप करने लगता है। यह बारिश सचमुच दीवाना बना रही है लेकिन अफसोस सुदेस के हाथों फंसाई गई मछली हमें इस साल नसीब नहीं हो रही है। उधर, बंसबट्टी (बांस) में बांस के नए-नए उपले उग आए होंगे। बांस के नवातुर गाछ के रंग मुझे रहस्मय लगते हैं। ऐसा हरापन कहां नसीब होता है? उस पर से बंसबट्टी की गंध, आह जादू रे...।
कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं बंसबट्टी को लेकर। बचपन से सुनता आया हूं कि पूर्णिमा की रात कोई आती है, उस बंसबट्टी में। सलेमपुर वाली (श्यामलपुर से ब्याह कर आई एक महिला) हमें जब यह कहानी सुनाती थी तो डर से अधिक रोमांच हुआ करता था।
तीन साल पहले ही वह गुजर गईं। वह खूब बीड़ी पीती थी। हमारे एक चैन स्मोकर चचा जब कामत पर आते थे, तो उनकी अधजली फेकी सिगरेट को सलेमपुर वाली बीछ कर पीती थी, और कहती थी- “एहन मजा ककरो में नै छै, आई हम कुमार साहेब वला सिगलेट पीने छी..।“ उससे अंतिम मुलाकात जब हुई थी तो मैं उसके लिए क्लासिक माइल्ड की एक डिब्बी ले गया था। सिगरेट फूंकते हुए वह अजीब संतुष्टि का अहसास पाती थी और उसी अंदाज में कहानियां भी सुनाती थी।
खैर, बांस भी हमारे यहां कई प्रकार के होते हैं। बांस के पास ही बेंत की झाड़ी लगाई जाती है। बेंत की झाड़ी भी कम मायावी नहीं होती है। सूरज के ताप में जब हरे बेंत झुकते हैं तो ऐसा लगता मानो वो कुछ छुपा रही हो, ठीक उसी वक्त धूप से बचने खरगोश उसमें पनाह लेते हैं।
हरे पर उजले का छाप बड़ा प्यारा लगता है। ठंड में बेंत को संथाल टोले के लोग काटने आते हैं, उस वक्त मुझे काफी दुख होता है क्योंकि इन्हीं बेंत के झाड़ और बंसबट्टी में हट्टा (बड़ी बिल्ली) भी रहता है। जंगल कट जाने से ये जंगली बिल्ली गांव को छोड़ दती है। हट्टे को संथाल अपने तीर का निशाना बनाते हैं। वैसे अब बांस की जगह कदंब, पोपुलर, न्यू सागवान जैसी लकड़ियों ने ले लिया। यदि किसान के पास जमीन प्रचुर है तो वह पांच साल में लाखों रुपये कमा लेता है। मतलब काटकर बेच दिजिए, प्लाइवुड के लिए।
माछ, सुनकर ही मन छप-छप करने लगता है। यह बारिश सचमुच दीवाना बना रही है लेकिन अफसोस सुदेस के हाथों फंसाई गई मछली हमें इस साल नसीब नहीं हो रही है। उधर, बंसबट्टी (बांस) में बांस के नए-नए उपले उग आए होंगे। बांस के नवातुर गाछ के रंग मुझे रहस्मय लगते हैं। ऐसा हरापन कहां नसीब होता है? उस पर से बंसबट्टी की गंध, आह जादू रे...।
कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं बंसबट्टी को लेकर। बचपन से सुनता आया हूं कि पूर्णिमा की रात कोई आती है, उस बंसबट्टी में। सलेमपुर वाली (श्यामलपुर से ब्याह कर आई एक महिला) हमें जब यह कहानी सुनाती थी तो डर से अधिक रोमांच हुआ करता था।
तीन साल पहले ही वह गुजर गईं। वह खूब बीड़ी पीती थी। हमारे एक चैन स्मोकर चचा जब कामत पर आते थे, तो उनकी अधजली फेकी सिगरेट को सलेमपुर वाली बीछ कर पीती थी, और कहती थी- “एहन मजा ककरो में नै छै, आई हम कुमार साहेब वला सिगलेट पीने छी..।“ उससे अंतिम मुलाकात जब हुई थी तो मैं उसके लिए क्लासिक माइल्ड की एक डिब्बी ले गया था। सिगरेट फूंकते हुए वह अजीब संतुष्टि का अहसास पाती थी और उसी अंदाज में कहानियां भी सुनाती थी।
खैर, बांस भी हमारे यहां कई प्रकार के होते हैं। बांस के पास ही बेंत की झाड़ी लगाई जाती है। बेंत की झाड़ी भी कम मायावी नहीं होती है। सूरज के ताप में जब हरे बेंत झुकते हैं तो ऐसा लगता मानो वो कुछ छुपा रही हो, ठीक उसी वक्त धूप से बचने खरगोश उसमें पनाह लेते हैं।
हरे पर उजले का छाप बड़ा प्यारा लगता है। ठंड में बेंत को संथाल टोले के लोग काटने आते हैं, उस वक्त मुझे काफी दुख होता है क्योंकि इन्हीं बेंत के झाड़ और बंसबट्टी में हट्टा (बड़ी बिल्ली) भी रहता है। जंगल कट जाने से ये जंगली बिल्ली गांव को छोड़ दती है। हट्टे को संथाल अपने तीर का निशाना बनाते हैं। वैसे अब बांस की जगह कदंब, पोपुलर, न्यू सागवान जैसी लकड़ियों ने ले लिया। यदि किसान के पास जमीन प्रचुर है तो वह पांच साल में लाखों रुपये कमा लेता है। मतलब काटकर बेच दिजिए, प्लाइवुड के लिए।
मार्च के महीने में जब खेतों में मक्का और गरमा धान चहक रहे हैं तो किसानी कर रहे लोग अंचल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए उसी रफ्तार में जी तोड़ मेहनत करने में जुट चुके हैं और ठीक उसी वक्त बारिश का अहसास मेरे जैसे किसान को रुहानी अहसास देने लगा है।
नहर-खेत के बहाने में गीतों में खो जाना चाहता हूं। हिंदी सिनेमा में बरसात को लेकर लिखे गीतों में डूब जाना चाहता हूं। देखिए न इस वक्त एक अदभुत फ़िलासॉफ़िकल गीत ''पानी रे पानी तेरा रंग कैसा'' तेज आवाज में सुनने का मन कर रहा है। किसानी का रंग यही है, अहसास यही है...
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