खेत में फ़सल इस बार अच्छी है। आम -लीची में मंजर भी शानदार हैं। फिर भी बिन आपके यह कैंपस सुना लग रहा है। नीलकंठ चिड़ियाँ , जिसे देखकर आप सबसे अधिक ख़ुश होते थे, कैंपस में झुंड में आई हुई है। आप जब भी इस मौसम में इस चिड़ियाँ को देखते तो कहते थे- "इस बार गेहूं और मकई अच्छी ही होगी। भंडार भर जाएगा।" फिर आप कोई डाकवचन सुनाते थे...
गाम में दोपहर में जब अकेले रहता हूं तब नीलकंठ, ख़ंजन, बुलबुल, पहाड़ी मैना की आवाज़ें मेरे अकेलेपन को दूर करती है लेकिन इन सबके बावजूद लगता है कि आप कहीं आसपास ही हैं। मुझे याद आता है आपका बैठकखाना, जहाँ दोपहर में आप शतरंज खेला करते थे। मुझे तो शतरंज कभी समझ में नहीं आया लेकिन आपकी चालें अब याद आ रही हैं। शतरंज की बात से आप ही याद आते हैं और फिर मैं गुलज़ार का लिखा बुदबुदाने लगता हूं-
"दोपहरें ऐसी लगती हैं
बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल....."
बाबूजी, पुराने गोबर गैस प्लांट के पास आपने जो खजूर का पेड़ लगाया था न वह इस बार भी चहक रहा है। चिड़ियों ने इस पेड़ में घौसला बना लिया है, एकदम ऊँचाई पर। वहीं दरभंगा से आपने जो लक्ष्मेश्वरभोग नामक आम का पौधा लाया था न, इस बार उसमें ख़ूब मंज़र आया है। इन पेड़-पौधों को देखकर आप 'अब नहीं हैं' इस शब्द को ग़लत साबित करने में जुट जाता हूं लेकिन यह जानता हूं कि यह मेरा भरम है, जो टूट चुका है।
ख़ैर, पछिया और पूरबा हवा का असर अब भी है। पश्चिम के खेत में मक्का इस बार ठीक ठाक है लेकिन नहर इस बार भी बिन पानी है। आपकी डायरी पलट रहा था तो पाया कि 70 के दशक में जब नहर में पानी नहीं छोड़ा जाता था तब आप सिंचाई विभाग का चक्कर लगाते थे गाँव वालों के ख़ातिर। डायरी में ढ़ेर सारे आवेदन मिले, किसानी के अलावा आपके काम को देखना मन को सुकून देता है। इस बार के आम बजट में हर खेत तक पानी पहुँचाने की बात कही गयी है, देखते हैं बात कब रंग लाती है।
मक्का खेत में है तो गाम –घर में अभी उत्सव जैसा माहौल है। किसी न किसी के घर में भगैत या कीर्तन हो रहा है। हालाँकि पंचायत चुनाव की वजह से गाम में अभी चुनावी गणित का हिसाब चल रहा है।
उधर, आम और लीची के पेड़ फलों के लिए तैयार हो रहे हैं। आम के मंजर मन के भीतर टिकोले और आम के बारे में सोचने को विवश कर रहे हैं। मन लालची हुआ जा रहा है। उन मंजरों में किड़ों ने अपना घर बना लिया है, मधुमक्खियां इधर-उधर घूम रही है।
बांस के झुरमुटों में कुछ नए मेहमान आए हैं। बांस का परिवार इसी महीने बढ़ता है। वहीं उसके बगल में बेंत का जंगल और भी हरा हो गया है। लगता है गर्मी की दस्तक ने उसे रंगीला बना दिया है। कुछ खरगोश दोपहर बाद इधर से उधर भागते फिरते मिल जाते हैं, वहीं गर्मी के कारण सांप भी अपने घरों से बाहर निकलने लगा है। जो कुछ देखता हूं आज वो सब आपको सुनाने बैठा हूं बाबूजी।
अरे हाँ, यह तो बताना भूल ही गया, आपके गाम में अब सड़कों का जाल बिछ रहा है। नहर की पगडंडी से इतर अब सड़क दिखने लगी है। बिजली के खम्बे भी अब गिराए जा रहे हैं। गाम - घर की दुनिया अब बदल रही है बाबूजी। इतना कुछ बदल रहा है लेकिन अफ़सोस आप नहीं हैं।
होली से पहले गाँव में आपकी बैठकी को उत्सव कहा जाता था। गीत-नाद का आयोजन होता था। लेकिन आपके बिछावन पर जाने के बाद से सबकुछ कहीं खो गया। वक़्त कितनी तेज़ी से गुज़रता है, अब इसका अहसास हो रहा है। कुछ रूकता कहाँ हैं, बस यादें रह जाती है। बाँकि तो सबकुछ चलता रहता है।
दुर्गा पूजा , दीवाली के बाद अब होली भी आपके बिना होगी। यह सत्य है लेकिन कड़वा लग रहा है। गाम की होली, पूर्णिया की होली.... इस बार से आपके बिना ही होगी। शाम में सफ़ेद-धोती कुर्ता पहनना, बड़ों के पाँव में अबीर लगाकर आशीष लेना, लोगों को आग्रह कर मालपुआ खिलाना ....सब अब यादों की एक मोटी डायरी में बंद हो चुका है। मैं आज यादों की पोटली खोलकर बैठ गया हूं बाबूजी ....मैं कबीर की वाणी के ज़रिए आपको याद करता हूं-
“दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ “
गाम में दोपहर में जब अकेले रहता हूं तब नीलकंठ, ख़ंजन, बुलबुल, पहाड़ी मैना की आवाज़ें मेरे अकेलेपन को दूर करती है लेकिन इन सबके बावजूद लगता है कि आप कहीं आसपास ही हैं। मुझे याद आता है आपका बैठकखाना, जहाँ दोपहर में आप शतरंज खेला करते थे। मुझे तो शतरंज कभी समझ में नहीं आया लेकिन आपकी चालें अब याद आ रही हैं। शतरंज की बात से आप ही याद आते हैं और फिर मैं गुलज़ार का लिखा बुदबुदाने लगता हूं-
"दोपहरें ऐसी लगती हैं
बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल....."
बाबूजी, पुराने गोबर गैस प्लांट के पास आपने जो खजूर का पेड़ लगाया था न वह इस बार भी चहक रहा है। चिड़ियों ने इस पेड़ में घौसला बना लिया है, एकदम ऊँचाई पर। वहीं दरभंगा से आपने जो लक्ष्मेश्वरभोग नामक आम का पौधा लाया था न, इस बार उसमें ख़ूब मंज़र आया है। इन पेड़-पौधों को देखकर आप 'अब नहीं हैं' इस शब्द को ग़लत साबित करने में जुट जाता हूं लेकिन यह जानता हूं कि यह मेरा भरम है, जो टूट चुका है।
ख़ैर, पछिया और पूरबा हवा का असर अब भी है। पश्चिम के खेत में मक्का इस बार ठीक ठाक है लेकिन नहर इस बार भी बिन पानी है। आपकी डायरी पलट रहा था तो पाया कि 70 के दशक में जब नहर में पानी नहीं छोड़ा जाता था तब आप सिंचाई विभाग का चक्कर लगाते थे गाँव वालों के ख़ातिर। डायरी में ढ़ेर सारे आवेदन मिले, किसानी के अलावा आपके काम को देखना मन को सुकून देता है। इस बार के आम बजट में हर खेत तक पानी पहुँचाने की बात कही गयी है, देखते हैं बात कब रंग लाती है।
मक्का खेत में है तो गाम –घर में अभी उत्सव जैसा माहौल है। किसी न किसी के घर में भगैत या कीर्तन हो रहा है। हालाँकि पंचायत चुनाव की वजह से गाम में अभी चुनावी गणित का हिसाब चल रहा है।
उधर, आम और लीची के पेड़ फलों के लिए तैयार हो रहे हैं। आम के मंजर मन के भीतर टिकोले और आम के बारे में सोचने को विवश कर रहे हैं। मन लालची हुआ जा रहा है। उन मंजरों में किड़ों ने अपना घर बना लिया है, मधुमक्खियां इधर-उधर घूम रही है।
बांस के झुरमुटों में कुछ नए मेहमान आए हैं। बांस का परिवार इसी महीने बढ़ता है। वहीं उसके बगल में बेंत का जंगल और भी हरा हो गया है। लगता है गर्मी की दस्तक ने उसे रंगीला बना दिया है। कुछ खरगोश दोपहर बाद इधर से उधर भागते फिरते मिल जाते हैं, वहीं गर्मी के कारण सांप भी अपने घरों से बाहर निकलने लगा है। जो कुछ देखता हूं आज वो सब आपको सुनाने बैठा हूं बाबूजी।
अरे हाँ, यह तो बताना भूल ही गया, आपके गाम में अब सड़कों का जाल बिछ रहा है। नहर की पगडंडी से इतर अब सड़क दिखने लगी है। बिजली के खम्बे भी अब गिराए जा रहे हैं। गाम - घर की दुनिया अब बदल रही है बाबूजी। इतना कुछ बदल रहा है लेकिन अफ़सोस आप नहीं हैं।
होली से पहले गाँव में आपकी बैठकी को उत्सव कहा जाता था। गीत-नाद का आयोजन होता था। लेकिन आपके बिछावन पर जाने के बाद से सबकुछ कहीं खो गया। वक़्त कितनी तेज़ी से गुज़रता है, अब इसका अहसास हो रहा है। कुछ रूकता कहाँ हैं, बस यादें रह जाती है। बाँकि तो सबकुछ चलता रहता है।
दुर्गा पूजा , दीवाली के बाद अब होली भी आपके बिना होगी। यह सत्य है लेकिन कड़वा लग रहा है। गाम की होली, पूर्णिया की होली.... इस बार से आपके बिना ही होगी। शाम में सफ़ेद-धोती कुर्ता पहनना, बड़ों के पाँव में अबीर लगाकर आशीष लेना, लोगों को आग्रह कर मालपुआ खिलाना ....सब अब यादों की एक मोटी डायरी में बंद हो चुका है। मैं आज यादों की पोटली खोलकर बैठ गया हूं बाबूजी ....मैं कबीर की वाणी के ज़रिए आपको याद करता हूं-
“दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ “
2 comments:
गिरीन्द्र भैया, आप तो बिना कुछ कहे ही महफ़िल लूट ले जाते हैं। जब कृष्ण राधा के ऊपर रंग डालता है, तो राधा कहती है.... ऐसी होरी ना खेलो कन्हाई रे। फिर जब श्याम चला जाता है..... तो यादें, पछतावा, आँसू.......
Girindra Ji, I got to know all about urself from FB under change India... I couldn't resist to read ur Anubhav.. Really I felt the "mati ki mahak" Gaon ki khushbu... I wish I could meet you one day
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