Saturday, February 27, 2016

पोखर के बहाने

पुरनका पोखर इन दिनों सूरज की ताप को महसूस करने लगा है। पोखर का कीचड़ सूखने के कगार पर है। कीचड़ों पर दूब उग आए हैं। वनमुर्गी  झुंड बनाकर दूब के आसपास मँडराती रहती है।

वहीं पोखर के पूरब के खेत में पटवन के बाद कीड़ों को ढूँढने के लिए बगूले आए हुए हैं। कुछ बगूले पोखर में भी ताकाझाँकी कर लेते हैं। जंगली बतकों के बच्चे 'पैक-पैक' करती हुई चक्कर मार रही है। सिल्ली चिड़ियाँ तो पोखर में जहाँ कुछ पानी बचा है उसमें डुबकी लगा रही है।

पोखर के कीचर में कोका के फूल आए हैं। पोखर को देखकर कोसी की उपधारा 'कारी-कोसी' की याद आ रही है। गाम की सलेमपुरवाली काकी कारी कोसी के बारे कहानी सुनाती थी। कहती थी कि डायन -जोगिन के लिए लोग सब कारी कोसी के पास जाते हैं। लेकिन हमें तो चाँदनी रात में कारी कोसी की निर्मल धारा में अंचल की ढेर सारी कहानियाँ दिखती थी।

बंगाली मल्लाहों के गीत सुनने के लिए कारी कोसी पर बने लोहे के पुल पर खड़ा हो जाता था। बंगाल से हर साल मल्लाह यहाँ डेरा बसाते थे और भाँति-भाँति की मछलियाँ फँसाकर बाज़ार ले जाते थे। इस पुल से ढेर सारी यादें जुड़ी हैं। यहाँ से दूर दूर तक परती ज़मीन दिखती है, बीच-बीच में गरमा धान के खेत भी हैं।

क़रीब दस साल पहले तक बंगाली मल्लाह कारी-कोसी के तट को हर साल बसाते थे, धार की जमीन में धान की खेती करते हुए सबको हरा कर देते थे। ये सभी मेहनत से नदी-नालों-पोखरों में जान फूँक देते थे।

गाँव का बिशनदेव उन बंगाली मछुआरों की बस्ती में ख़ूब जाता था और जब लौटकर आता तो  उसके हाथ में चार-पाँच देशी काली मछली और कुछ सफ़ेद मछलियाँ होती थी। यह सब अंगना में बने चूल्हे के पास रखकर वह कहता- 'सब भालो, दुनिया भालो, आमि-तुमि सब भालो, दिव्य भोजन माछेर झोल.....'

बिशनदेव की इस तरह की बातों को सुनकर गाम में सबने उसका नामकरण 'पगला बंगाली' कर दिया था। अब बिशनदेव नहीं है लेकिन आज पुराने पोखर के नज़दीक से गुज़रते हुए कारी-कोसी की यादें ताजा हो गयी।



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