कल देर रात साढ़े दस के क़रीब घर पहुँचा। कैंपस में दाख़िल होते ही पंखुड़ी ने हुक्म सुना दिया- "पापा अब तुम भी टीवी देखना शुरू करो, एनडीटीवी। अरे वही, जिसमें रवीश अंकल रात में दिखते हैं। आज तो मज़ा आ गया पापा, रवीश अंकल के प्रोग्राम में कार्टून नेटवर्क की तरह आवाज़ें आ रही थी, दो लोग आए थे। एक बात पता है पापा, मोदी सरकार ने सबसे कहा है कि चैनल पर केवल हँसाओ। अब तो तुमको टीवी देखना ही होगा मेरे साथ। "
पंखुड़ी की बातें सुनते हुए मुझे न हँसी आ रही थी और न ही ग़ुस्सा। पिछले छह महीने से टीवी एकदम नहीं देख रहा हूं। पंखुड़ी का पूरा जोर कार्टून नेटवर्क पर रहता है, इसलिए टीवी पर उसी का राज चलता है। ख़बरों के लिए मैं न्यूज पोर्टल क्लिक करता हूं। लेकिन आज जिस अन्दाज़ में पंखुड़ी ने मुझे बताया कि न्यूज़ चैनल पर केवल हँसाया जाएगा, सुनकर मैं सन्न हूं। यूट्यूब के ज़रिए रवीश का कार्यक्रम देखा। जब हुकूमत एक दिन के लिए एनडीटीवी इंडिया पर प्रतिबंध लगाने जा रही है, ऐसे वक़्त में रवीश ने जो तेवर दिखाया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है। लेकिन वहीं पाँच साल की बच्ची का प्राइम टाइम देखना और उस पर यह टिप्पणी करना- " एक बात पाता है पापा, मोदी सरकार ने सबसे कहा है कि चैनल पर केवल हँसाओ..." यह सुनकर लगता है कि आख़िर हम कहाँ जा रहे हैं।
रवीश ने व्यंग के बाण छोड़े, हम -आप समझ गए लेकिन छोटे बच्चे, जिन्हें टीवी की लत है, वे सब प्राइम टाइम के दो बेहतरीन मेहमान की कला को कार्टून नेटवर्क का चरित्र समझ रहे हैं। जिन्होंने रवीश का प्राइम टाइम देखा होगा, वे ' बाग़ों में बहार है' का अर्थ समझ रहे होंगे।
मेरा मानना है कि जब भी कहीं प्रतिबंध की बातें सुनाई दे तब ख़ूब पढ़ना चाहिए, लिखना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें मिली है। कल देर रात तक पढ़ता रहा, कुछ किताबें लेकर बैठ गया। कुलदीप नैयर की किताब 'फ़ैसला' कई दिनों से पढ़ रहा हूं बार-बार। पंखुड़ी जैसी छोटी बच्ची के ज़ुबान पर मोदी सरकार की बातें आना, मुझे डरा भी रहा है। यदि लोकसभा चुनाव के तुरन्त बाद मोदी जी का वह भाषण आपको याद है तो सुनिएगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर मोदी है और यही बच्चे बाद में वोटर बन जाएँगे।
पंखुड़ी अक्सर कार्टून नेटवर्क के एक प्रोग्राम 'रोल नंबर 21' की कहानी सुनाती है, जिसमें कृश नाम के स्कूली बच्चे को उसका प्रिंसिपल कनिष्क ख़ूब तंग करता है। वह उसे बोलने नहीं देता है। आज एनडीटीवी को लेकर जो बहस हो रही है, उसे सुनते हुए, पढ़ते हुए मुझे पंखुड़ी के पसंदीदा सीरियल ('रोल नंबर 21') की ख़ूब याद आ रही है।
यह सब टाइप करते हुए गुलज़ार की लिखी एक पंक्ति अभी याद आ रही है - "हमारा हुक्मरान बड़ा कमबख़्त है, जागते रहो ! " सोचता हूं कि आख़िर मीडिया आलोचना न करे तो क्या करे? केवल तारीफ़? क्या पत्रकार बस यही रटे कि बाग़ों में बहार है। यह अजीब समय है।
इस 'गोबर-गोईठा काल' में सभी पत्रकारों को पीआर एजेंसी खोलना चाहिए। हुक्मरानों की ख़ूब बड़ाई करनी चाहिए , जलेबी की तरह। लेकिन तभी इंडियन एक्सप्रेस के राजकमल झा की बातें याद आने लगती है कि यदि सरकार आलोचना करे तो उसे ईनाम समझना चाहिए। इस घुप्प अंधेरे में राजकमल झा, रवीश कुमार जैसे पत्रकारों को पढ़कर-सुनकर एक उम्मीद तो जगती है। गाम-घर-खेती -बाड़ी करते हुए यह समझ में आ गया है कि अंधेरा मिटाने के लिए एक लालटेन ही काफ़ी है। और हाँ, अपनी बात रखने की आज़ादी हम-सबके लिए और इस मुल्क के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है। बोल की लब आज़ाद हैं तेरे। और चलते-चलते अटल बिहारी वाजपेयी जी की इन पंक्तियों को पढ़िए और बांचिए। इन चार पंक्तियों को उन्होंने आपातकाल के बाद एक रैली में सुनाया था-
"बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने- सुनने को बहुत हैं अफ़साने,
खुली हवा में ज़रा साँस तो ले लें,
कब तक रहेगी आज़ादी, कौन जानें..."
पंखुड़ी की बातें सुनते हुए मुझे न हँसी आ रही थी और न ही ग़ुस्सा। पिछले छह महीने से टीवी एकदम नहीं देख रहा हूं। पंखुड़ी का पूरा जोर कार्टून नेटवर्क पर रहता है, इसलिए टीवी पर उसी का राज चलता है। ख़बरों के लिए मैं न्यूज पोर्टल क्लिक करता हूं। लेकिन आज जिस अन्दाज़ में पंखुड़ी ने मुझे बताया कि न्यूज़ चैनल पर केवल हँसाया जाएगा, सुनकर मैं सन्न हूं। यूट्यूब के ज़रिए रवीश का कार्यक्रम देखा। जब हुकूमत एक दिन के लिए एनडीटीवी इंडिया पर प्रतिबंध लगाने जा रही है, ऐसे वक़्त में रवीश ने जो तेवर दिखाया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है। लेकिन वहीं पाँच साल की बच्ची का प्राइम टाइम देखना और उस पर यह टिप्पणी करना- " एक बात पाता है पापा, मोदी सरकार ने सबसे कहा है कि चैनल पर केवल हँसाओ..." यह सुनकर लगता है कि आख़िर हम कहाँ जा रहे हैं।
रवीश ने व्यंग के बाण छोड़े, हम -आप समझ गए लेकिन छोटे बच्चे, जिन्हें टीवी की लत है, वे सब प्राइम टाइम के दो बेहतरीन मेहमान की कला को कार्टून नेटवर्क का चरित्र समझ रहे हैं। जिन्होंने रवीश का प्राइम टाइम देखा होगा, वे ' बाग़ों में बहार है' का अर्थ समझ रहे होंगे।
मेरा मानना है कि जब भी कहीं प्रतिबंध की बातें सुनाई दे तब ख़ूब पढ़ना चाहिए, लिखना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें मिली है। कल देर रात तक पढ़ता रहा, कुछ किताबें लेकर बैठ गया। कुलदीप नैयर की किताब 'फ़ैसला' कई दिनों से पढ़ रहा हूं बार-बार। पंखुड़ी जैसी छोटी बच्ची के ज़ुबान पर मोदी सरकार की बातें आना, मुझे डरा भी रहा है। यदि लोकसभा चुनाव के तुरन्त बाद मोदी जी का वह भाषण आपको याद है तो सुनिएगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर मोदी है और यही बच्चे बाद में वोटर बन जाएँगे।
पंखुड़ी अक्सर कार्टून नेटवर्क के एक प्रोग्राम 'रोल नंबर 21' की कहानी सुनाती है, जिसमें कृश नाम के स्कूली बच्चे को उसका प्रिंसिपल कनिष्क ख़ूब तंग करता है। वह उसे बोलने नहीं देता है। आज एनडीटीवी को लेकर जो बहस हो रही है, उसे सुनते हुए, पढ़ते हुए मुझे पंखुड़ी के पसंदीदा सीरियल ('रोल नंबर 21') की ख़ूब याद आ रही है।
यह सब टाइप करते हुए गुलज़ार की लिखी एक पंक्ति अभी याद आ रही है - "हमारा हुक्मरान बड़ा कमबख़्त है, जागते रहो ! " सोचता हूं कि आख़िर मीडिया आलोचना न करे तो क्या करे? केवल तारीफ़? क्या पत्रकार बस यही रटे कि बाग़ों में बहार है। यह अजीब समय है।
इस 'गोबर-गोईठा काल' में सभी पत्रकारों को पीआर एजेंसी खोलना चाहिए। हुक्मरानों की ख़ूब बड़ाई करनी चाहिए , जलेबी की तरह। लेकिन तभी इंडियन एक्सप्रेस के राजकमल झा की बातें याद आने लगती है कि यदि सरकार आलोचना करे तो उसे ईनाम समझना चाहिए। इस घुप्प अंधेरे में राजकमल झा, रवीश कुमार जैसे पत्रकारों को पढ़कर-सुनकर एक उम्मीद तो जगती है। गाम-घर-खेती -बाड़ी करते हुए यह समझ में आ गया है कि अंधेरा मिटाने के लिए एक लालटेन ही काफ़ी है। और हाँ, अपनी बात रखने की आज़ादी हम-सबके लिए और इस मुल्क के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है। बोल की लब आज़ाद हैं तेरे। और चलते-चलते अटल बिहारी वाजपेयी जी की इन पंक्तियों को पढ़िए और बांचिए। इन चार पंक्तियों को उन्होंने आपातकाल के बाद एक रैली में सुनाया था-
"बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने- सुनने को बहुत हैं अफ़साने,
खुली हवा में ज़रा साँस तो ले लें,
कब तक रहेगी आज़ादी, कौन जानें..."
5 comments:
Bahut badhiya, padh kar achchha laga. - @anand_chhabi
मीडिया आलोचना न करे?
तो पठानकोट में सैनिक ठिकानों की लाइव जानकारी देना, मीडिया की गाइडलाइन्स का खुले आम उल्लंघन करना, और समुचित प्रक्रिया का पालन कर के दंड पाना मीडिया को सरकार की आलोचना करने से रोकना है?
बहुत खूब गिरीन्द्र जी!
अपने गिरेबाँ में ना झाँकना ही मीडिया की आज़ादी है।
बेलगाम कलम एक सैलाब की तरह जो कि गाँव के गाँव डूबा देता है लेकिन बाहरी लगाम और भी खतरनाक है।नियंत्रण अंदर से आना चाहिए।- महात्मा गांधी
बेलगाम कलम एक सैलाब की तरह जो कि गाँव के गाँव डूबा देता है लेकिन बाहरी लगाम और भी खतरनाक है।नियंत्रण अंदर से आना चाहिए।- महात्मा गांधी
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