Wednesday, March 04, 2015

रेणु के नाम एक पतरी


रेणु बाबा को प्रणाम!



बहुत दिनों से इच्छा थी कि आपको पाती लिखूं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहा था। आज जब जीवन के प्रपंच में फंसकर  जीवन जीने की कला सीख रहा हूं तो हिम्मत जुटा कर आपको लिखने बैठा हूं।

कागजी किताबों फाइलों के अनुसार आज (4 मार्च) आपका जन्मदिन है। देखिए न, हर साल इस दिन मैं आपके लिए अपने भीतर कुछ न कुछ करता रहा हूं लेकिन इस साल कुछ नहीं कर पा रहा हूं इसलिए चिट्ठी लिखने बैठ गया हूं। अपने भीतर आपके पात्रों को विचरन करने के लिए छोड़कर शब्दों की माला पिरोने बैठ गया हूं। मेरा मन बाबूजी के आलमीरे से  मैला आंचल निकालकर पढ़ने की जिद कर रहा था लेकिन बाबूजी को पलंग पर जीवन और मौत से जूझते देखकर मैंने परती परिकथा निकाल ली है।

परती परिकथा के बहाने आपसे लंबी गुफ्तगू करने इच्छा रही है ठीक वैसे ही जैसे गुलजार से मुझे उनके गीतों पर कभी बात करनी है। एक बात कहूं बाबा ! बाबूजी की बीमारी मुझे आपसे और नजदीक करने लगी है। मां को उनकी अनवरत सेवा करते देखकर मैं बस आखें मूंद लेता हूं फिर सोचने लगता हूं कि आपने किस तरह परती परिकथा की एक उल्लेखनीय नारी पात्र गीता देवी को रचा होगा। गीता देवी जितेंद्र नाथ की मैम मां थीं। आज आपके जन्मदिन पर मैं बार बार गीता देवी को स्मरण कर रहा हूं।

रेणु बाबा, एक बात जानते हैं आप! इन दिनों मैं कई दफे आपके घर यानि औराही जा चुका हूं। आपके आंगन में पांव रखते ही मुझे कबीराहा माठ की याद आने लगती है। आंगन की माटी के स्पर्श से मन साधो साधो करने लगता है। इस बार हम सोचे थे कि चार मार्च को धूम धाम से आपके गाम में आपका जन्मदिन मनाएंगे लेकिन अफसोस हम कर नहीं सके। फिर सोचे पू्र्णिय़ा में करेंगे..लेकिन यहां भी नहीं। बाबा, मैं सरकारी सहायता से आपके नाम पर कार्यक्रम करने से डरने लगा हूं ..पता नहीं क्यों ? सरकारी क्या किसी भी सहायता से । जीवन का प्रपंच मुझे ऐसे कामों से दूर करन लगा है । ऐसे में मैं मन ही मन आपको याद कर लेता हूं।

खैर, एक बात और, हमने उस घर को भी छू लिया है जिसके बरामदे पर आपने लंबा वक्त गुजारा। आपके साहित्यिक गुरु सतीनाथ भादुड़ी के बासा को हमने देख लिया है। हालांकि वह बासा अब बिक चुका है लेकिन खरीददार के भीतर भी हमने सतीनाथ-फणीश्वरनाथ को पा लिया है। पता नहीं आपको लिखते वक्त मैं रुहानी क्यों हो जाता हूं लेकिन सच यही है कि आप मेरे लिए कबीर हैं। बहुत हिम्मत जुटाकर यह सब लिख रहा हूं बाबा। क्योंकि मुझे इस जिंदगी में जिस बात का सबसे ज्यादा मलाला रहेगा वह है- आपको नंगी आखों से न देख पाना। हालांकि मन की आंखों से तो आपको देखता ही रहा हूं।

याद है न आपको तीन साल पहले कानपुर में आज ही के दिन आप सपने में आए थे.....साथ में लतिका जी भी थीं। उस सपने में मैं टकटकी लगाए ‘लतिका-रेणु’ को देखने लगा। आखिर मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। आपके मैला आंचल में जिस तरह  डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ‘ममता’ को देख रहा था, – विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान – नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल...

और एक बात कहनी थी आपसे..मेरी एक किताब आ रही है- राजकमल प्रकाशन से। हालांकि किताब को लेकर तरह तरह की बातें होने लगी है लेकिन मुझे खुद पर भरोसा है। बाद बांकि आप पर छोड़ दिया हूं। बाबूजी यदि ठीक रहते तो वो भी आपको इस बात के लिए चिट्ठी लिखते लेकिन अफसोस वो भी आज बिछावन पर अचेत लेटे हैं। दरअसल आपने जिस परती को अपनी परिकथा के लिए चुना था वह अपनी अपनी अनुभव संपदा में सबसे अधिक उर्वरा थी और आप आने वाली पीढियों को भी इस उर्वरा के बारे में बताते रहे हैं।

बाबा, इन दिनों जब जीवन में तमाम तरह के झंझावतों को झेल रहा हूं तो अक्सर आपको याद करता हूं । जानते हैं क्यों? क्योंकि आप मेरे लिए ऐसे शख्स हैं जिसने जीवन में बहुत कुछ भोगा और सहा है...और इसी वजह से आप ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखाई देते हैं। आपने कभी अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपी। बाबूजी हमसे कहा करते थे कि ऐसे लोगों की शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।

आपके बारे में निर्मल वर्मा कहते थे कि जिस तरह कुछ साधु संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का अहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं , रेणु की मूक उपस्थिति हिंदी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती है। ' निर्मल वर्मा की यह पंक्ति मैं आपके लिए हर जगह दोहराता रहा हूं। आप मेरे लिए संत लेखक हैं। आपको गुस्सा आता होगा कि यह लड़का संत संत क्यों कह रहा है लेकिन बाबा, बात यह है कि आपने अपने लेखन में किसी चीज को त्याज्य या घृणास्पद नहीं माना। आपने हर  जीवित तत्व में पवित्रता, सौंदर्य और चमत्कार खोजेन की कोशिश की और ऐसा केवल संत ही कर सकता है।


आपके लेखन पर चर्चा करना मुझे कभी रास नहीं आया। मुझे तो बस आपकी बातें करने में आनंद आता है..देहातित आनंद।

बाबा, तो अब आज्ञा दीजिए। बाबूजी को दवा देने का वक्त आ गया है। पलंग पर लेटे लेटे वे मुझे देख रहे हैं, शायद वो भी मुझे कुछ कहना चाहते हैं...आप भी कुछ कहिए न बाबा....

आपका
गिरीन्द्र नाथ झा
ग्राम- चनका, पोस्ट- चनका, जिला-पूर्णिया, बिहार
4 मार्च, 2015

2 comments:

विकास त्रिवेदी said...

सुंदर...

Unknown said...

Nicely written. Good work of writing.