अंचल |
न नींद नैना, न अंग चैना.. की तरह मन की तड़प कुलाचे मार रही थी, न जाने कब से। चाकरी का बैलेंस-सीट “न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर” की कहावत पर धड़ाम से गिर जाती है तो ठीक उसी वक्त कथावाचक को ख्याल आता है कि इसी अंचल में तो जिंदगी अपनी गुजरनी है। हम कहां बेरिस्टर हुए कि दिल्ली या पटने में आशियाना बसाएं...हमारा आशियाना तो न जाने कब से इसी अंचल में अपनी उपस्थिति दर्ज किए हुए है और हम पता नहीं किस माया के चक्कर में अब तक फंसे पड़े थे।
आपका कथावाचक, अंचल में गुजारी एक रात के बहाने शेष जिंदगी की कथा रचने की कोशिश करने लगा है। रात अभी भी वहां रात ही कहलाती है। रात का मतलब रात ही होता है और रात का शेष भी रात ही। तो उस रात जो अनुभव हुआ वह एक परिवेश का हिस्सा है। झिंगुर की आवाजें, मच्छर की भिनभिनाहट और सबसे जुदा मिट्टी की सोंधी खुश्बू। ये सब कहां नसीब होता है। भले ही सड़कें पक्की हो गई हो लेकिन मन के कई दरवाजों पर अभी भी माटी का अनुभव हो जाता है। आप कहेंगे कि कितना रुहानी खयाल है लेकिन कथावाचक के लिए यह यथार्थ है।
रात के बाद सुबह हुई, सुबह तो जाने कब की हो गई थी। कथावाचक तो सूरज को उगते देखना चाहता था और देखा भी। नारियल के पेड़ों के बीच से सूरज की पहली किरण उसके आंखों पर जब पड़ी तो वह खुद –ब-खुद बुदबुदाने लगा- “चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह, जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।”
मन के बीहड़ में सुबह का खयाल सचमुच जाने कितने दिनों बाद आया, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता। सुबह-सुबह उन सड़कों को खंगाला, जो जाने कब से खयालों में आते थे। उन सड़कों पर पांव रखना सच से मिलने की तरह लगा।
तड़के उस पेड़ के नीचे भी गया, जिसे पूरा ग्राम्य परिवेश पूजता है। मंदिरों की आपाधापी से दूर वह पेड़ कथावाचक को सुकून दे रहा था। आंखें बरबरस मूंद गई और मुस्कान की आरी-तिरछी रेखाएं चेहरे पर दौड़ने लगी..यह सब पहली बार हो रहा था..ओस की बूंदे तलवे को छू रही थी और मन साधो-साधो जप रहा था..।
2 comments:
भविष्य में गांव बचेंगे? गांव बसा पड़ेगा कथावाचक साहिब
इस बेजोड़ लेख के लिए बधाई स्वीकारें
नीरज
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