Thursday, October 06, 2011

कहीं दूर जब दिन ढल जाए...


दिन को ढलते देखना या फिर दिन को बनते देखना में समानता देखना भर ही है लेकिन मैं इन सबके बीच असमानता की खोज में जुटा हूं और मेरा हथियार और कुछ नहीं बल्कि कल्पना है। कितनी गजब चीज होती है कल्पना। सुख का न कोई ठौर ठिकाना..भी इसी कल्पना की उपज है। आपका कथावाचक आज फिल्म आनंद के प्रिय गीत कहीं दूर जब दिन ढल जाए... के संग  अपनी बात आगे बढ़ाना चाहता है।
कथा की शुरुआत गाम के नहर पर बने पुल से होती है। आपके कथावाचक ने सूरज को उगते देखा था उस पुल से। उस दिन कितना लाल दिख रहा था सूरज। " लाली देखन मैं चली, जित देखूँ तित लाल " तो दिन का सूरज उगते देखा था और शाम में डूबते भी।

इस बीच दोपहर का सूरज उस दिन न जाने क्यों कहीं लूका-छिपी करने लगा था। उधर, गांव के दक्षिणी छोर पर रामावतार ऋषि का घर सूरज डूबते ही अंधकार के कुएं में समा गया था, पूरब से आने की वजह से कथावाचक को ताज्जुब हो रहा था कि रामावतार इस अंधेरे में आखिर कैसे रात गुजारेगा
?

कथावाचक खुद के सवालों के बीच खुद ही छटपटाते हुए रामावतार के दुआर पर कदम रखता है। उसे वहां अंधेरा दिख रहा था लेकिन रामावतार को तो घुप्प अंधेरे में भी उजाले की किरण दिख रही थी। कल्पना, आशा और विश्वास की मजबूत रेखाएं उसके संग थी या वही उन किरणों को अपने पास जमाकर रखे हुए था, यह सवाल बरबरस सामने खड़ा हो गया था।

रामावतार को आशा थी कि उसके जीवन में ऐसी रात तो एक दिन जरुर आएगी, जब अंधेरे का निशान भर ही उसके आंगन में दाखिल होगा..घुप्प अंधकार नहीं। उसकी बातों में कथावाचक को कल्पना की महक लगी और वह निकल पड़ा नहर के उस पुल पर जहां उसने सूरज को डूबते देखा था।

रामावतार की कल्पना ने उसे मोह लिया था, शायद यही जिंदगी भी है। पुल पर लोगों की आवाजाही खत्म हो गई थी। सबकुछ सुनसान लग रहा था और कथावाचक पुल से पूरब की ओर निकली एक सड़क पर आगे बढ़ने लगा। दोनों तरफ खेतों में पसरी धान की फसलों से एक अजीब सुगंध आ रही थी और वह मानो उस सुंगध का गुलाम बन गया था।

इसी बीच उस पेड़ पर नजर टिकी, जहां दिन में लोग पूजा करने पहुंचते हैं। पेड़, जिसे गाम में दैवीय शक्ति के रुप में पूजा जाता है। कथावाचक सड़क से बाएं की तरफ निकली पगडंडी को पकड़ लेता है और उस पेड़ के पास पहुंच जाता है, जिसकी कहानी वह बचपन से सुनता आया है।

रामावतार की बात याद आई। उसने इस पेड़ को लेकर ढेर सारी कहानी सुनाई थी उस दिन। उसकी कहानी भी उजाले की तरह चमकीली लगती है लेकिन रात के घुप्प अंधेरे में कथावाचक को उस पेड़ के आसपास कोई उजाला नहीं दिखा, सिवाए झिंगुर की घनघन आवाज की। ऐसे में कथावाचक के जहन में यही सवाल उठ रहा था कि रामावतार अंधेरे में भी उजाले की खोज कैसे कर लेता है... क्या उसके पास सोचने और देखने की अलग शक्ति है....।

आपका कथावाचक कल्पना की ऐसी ही कुछ बिंदुओं को जोड़कर एक त्रिकोण बनाने में जुट गया, जिसके मध्य में उसने रामावतार को रखा और खुश रहने के बहाने का ब्याज जोड़ने लगा..।

2 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर कल्पना|
दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ|

Pratibha Katiyar said...

सा रे सा सा...सा रे सा सा...सा रे सा सा...सुनाई दिया पढ़ते हुए. कथावाचक भी सूरज के संग डूब रहा है...सुन्दर!