Monday, February 21, 2011

बंद कमरे में उजाले की खोज


वह कमाल का दिन था। उत्साह चरम पर था। धूल उड़ाती सड़कें भी मखमली अहसास दिला रही थी। उसे घर पहुंचने की जल्दी थी, क्योंकि कोई उसका उस बंद कमरे में इंतजार कर रहा था। साइकिल की रफ्तार वो तेज से तेज कर रहा था, ताकि कोई उसे पीछे न छोड़ दे। दोपहर की झुलसाती धूप भी उसे आज मखमली लग रही थी।

वह साइकिल की चाल के साथ अपने मन से बातें कर रहा था। नहर के करीब पहुंचते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है। ऊंचाई से उसे अपना हाता दिखने लगता है। वह सोचता है कि बस चंद कदम दूर है अपनी मंजिल से। उसे आजतक ऐसा अहसास नहीं हुआ था, हो भी नहीं सकता था क्योंकि अबतक इस कदर कोई उसका इंतजार नहीं कर रहा था।

वह अपने हाते में दाखिल होता है फिर बंद कमरे को खोलता है। सालों से बंद कमरे से अजीब से गंध आ रही थी, तो भी उसे वह  सुगंध ही लग रहा था। आज पहली बार उसने बंद कमरे में उजाले की खोज की थी। यह उजाला उसके मन में जग रहा था, सूर्योदय की तरह।  जो अबतक हर कुछ में अंधेरा ही खोजता था, आज उजाले में अपनी दिल की बातें सुन रहा था.... 

3 comments:

Satish Chandra Satyarthi said...

बेहतरीन है....

Sunil Kumar said...

अतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई .....

alok dixit said...

ye shayad meri kahani hai