मुझे शहर ने शहरी बनाया, वर्ना कुछ और होता। शहर-दर-शहर की भूख जगी रहती है, फिर ख्याल गांव का आता है, वहां जिंदगी के अलग-अलग रूप खोजने में जुट जाने की ख्वाहिश जाग उठती है। खैर, फिलहाल शहर में हूं, शहर की आबो-हवा में भारत-एक-खोज जैसी तो नहीं लेकिन बाजार, मोहल्ला,गलियों को तो जरूर समझ रहा हूं। मेरी नजर अक्सर बाजार, मोहल्लों, चौक-चौराहों पर छुट्टियों के दिन (संडे) होने वाले नुक्कड़-नाटकों पर टिकी रहती है। खुले मंच पर होने वाले नाटक मानस पर गहरे दाग छोड़ते हैं।
तबले की थाप और तालियों के सहारे लोगों तक लोगों की बात पहुंचाने में ऐसे नाटक सबसे कारगर साबित होते हैं। यहां कानपुर में भी अक्सर नुक्कड़ नाटकों से मुलाकात होती रहती है। भले ही इसे देखने वाले कम होते हैं लेकिन जो भी इसे देखता है, उस पर नाटक के विषय का इम्पैक्ट देखा जा सकता है।
हाल ही में यहां नाटक “राजा का बाजा” देखने का मौका मिला, जिसमें शिक्षा व्यवस्था और रोजगार पर फोकस डाला गया था। इसमें दिखाया गया है की कैसे एक लड़का प्रथिमिक विद्यालय से लेकर उसने मास्टर डिग्री तक की पढाई पूरी ईमानदारी से करता है पर जब नौकरी के लिया जाता है तो हर जगह से वो निराश लौटता है। ऐसा नहीं था की उसमे कबिलियत नहीं थी असल में उसके पास नहीं था तो किसी बड़े आदमी की सिफारिश और ना ही देने के लिए पैसे और हर जगह से वो नाकाम लौटता है, पर वो इन सब के लिए अपने आप को जिम्मेदार नहीं मानता और आखिरी में उसका सवाल लोगों से यही होता है की इसका जिम्मेदार कौन है?
ऐसे नाटकों की अपनी एक अलग दुनिया होती है, जो आपको उस शहर से जोड़ता भी है, मसलन शहर की समस्या। आमतौर पर ऐसे नाटकों की रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं की जाती, बल्कि सामाजिक परिस्थितियों और संदर्भों से उपजे विषयों को लेकर इसका जन्म होता है। गलत व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था क्या हो सकती है – यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की धुरी शुरुआत से ही टिकी हुई है। जब दिल्ली में था तो नॉर्थ कैंपस के आर्ट फैकेल्टी के बाहर अचानक ढोलक या नगाड़े की थाप सुनाई पड़ती थी। फिर व्यवस्था विरोधी कोई नारा बुलंद होता था या कोई गीत खून की गर्मी बढ़ा देता था। हम खिंचे चले आते थे, इन आवाजों की ओर। वहां युवाओँ का जोश देखकर लगता था कि इनकलाब आकर ही मानेगा। मेरा तो यही मानना है कि जिसने एक बार भी नुक्कड़ नाटक देखा हो, वह उम्र भर उसे भुला नहीं सकता और जिसने यह नाटक किया हो, उसका नशा तो हर दिन के साथ चढ़ता ही जाता है।
किसी जमाने में नुक्कड़ नाटकों की लोकप्रियता ने आम लोगों को एकजुट करने में इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई कि इसे शासक वर्ग के खिलाफ विरोध की आवाज माना गया। अब भले ही नई पीढ़ी सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़कर बदलाव की नई स्क्रिप्ट तैयार कर रहा हो (काहिरा की क्रांति इसका ताजा उदाहरण है) लेकिन समाज में अब भी नुक्कड़ नाटकों का अपना स्थान सुरक्षित है। वैसे यह सच है कि नई पीढ़ी इससे धीरे-धीरे दूर होती जा रही है। कानपुर में रहकर तो मैं ऐसा दावे के साथ कह सकता हूं। लेकिन कुछ ही लोग जो इस विधा से जुड़े हैं उनके जज्बे को देखकर तो ऐसा लगात है कि यदि नुक्कड़ नाटकों का प्रसार किया जाए तो और अधिक लोग इससे जुड़ेंगे। दरअसल ऐसे नाटक दिल्ली में भी होते हैं, उन तमाम शहरों में होते हैं, जहां शहरी जीवन की आपाधापी में परेशानियों से जूझ रहा है। कुछ दिन पहले की ही बात है, कानपुर के सांसद और केंद्र में मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के आवास के करीब से गुजर रहा था, तभी कानों में यह गीत सुनाई दी-
पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइलिं
तोहके खेतवा दिअइबो
ओमें फसली उगइबो ।
बजडा के रोटिया देई -देई नुनवा
सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा।
अब जमीनदरवा के पनही न सहबो,
अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा
दरअसल सड़क पर कुछ नौजवान पायजामा-कुर्ता पहने यह गीत गा रहे थे। लोकतंत्र के अलग-अलग तंत्रों पर गीत और डॉयलॉग के जरिए ये नौजवान चोट मार रहे थे। मुझे याद है पूर्णिया जिले में भी न्यायालय परिसर के बाहर अक्सर नुक्कड़ नाटक होते रहते हैं, जिसमें जिले की समस्या को मजबूती से उठाया जाता है। दरअसल हर शहरी को यह हक है कि वह अपने-अपने तरीके से आवाज बुलंद करे। समस्या है तो उसका निदान भी संभव है, बस कदम बढ़ाने की जरूरत है. तोहके खेतवा दिअइबो
ओमें फसली उगइबो ।
बजडा के रोटिया देई -देई नुनवा
सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा।
अब जमीनदरवा के पनही न सहबो,
अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा
सरोकार में प्रकाशित
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