जब सबसे अधिक परेशान रहता हूं, चारों ओर से अंधेरा दिखने लगता है तो मैं कुछ लोगों को पढ़ता, सुनता और देखता हूं। घुप्प अंधेरे में ‘मैं’ पीयूष मिश्रा का लिखा सुनता हूं, रवीश की किसी पुरानी रपट यूट्यूब पर देखने लगता हूं, सदन झा का कोई आलेख पढ़ने बैठ जाता हूं..तो राजशेखर के लिखे गीतों को बुदबुदाने लगता हूं। ऐसा करना मेरे लिए योग की तरह साबित होता है, रवींद्र नाथ ठाकुर के योगायोग की तरह। मुझे आराम मिलता है। पता नहीं इसके पीछे कारण क्या होंगे लेकिन जो भी होंगे ..मेरे लिए तो रामबाण ही साबित होते आए हैं।
पीयूष मिश्रा की आवाज मेरे लिए एंटीबायोटिक का काम करती आई है। जब खूब परेशान होता जाता हूं या कुछ सूझते नहीं बनता है तो इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ सुनने लगात हूं। जब वह कहते हैं कि हम चाँद पे, रोटी की चादर डाल के सो जाएँगे..और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आएँगे..तो मुझे शांति मिल जाती है। सब आपाधापी छू मंतर :)
ठीक ऐसी ही अनुभूति रवीश कुमार की पुरानी रपटों में मुझे होता है। मैं यूट्यूब पर रवीश की रिपोर्ट खंगालने लगता हूं। मैं अक्सर जब परेशांन होता हूं तो शुक्रवार, 7 जनवरी 2011 को एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम रवीश की रिपोर्ट देखने लगता हूं। इस रिपोर्ट का नाम था - भूख पर लगी धारा 144...। रवीश के साथ सहबा फारुकी थीं, जो कहानी के भीतर कहानी की रेसे को अलग कर रही थीं। सच कहूं तो इसी रपट से जान सका कि कोई दो रुपये के लिए भी आठ घंटा काम कर सकता है। मुझे अपना दर्द कम लगने लगता है। मैं खुद से बातें करना लगता हूं। रवीश मुझे कभी कभी गाम के कबिराहा मठ के अखड्ड बूढ़े की तरह लगने लगते हैं। जो हर बात बिना लाग लपेट से कह देता है और फिर निकल पड़ता है..आगे..खूब आगे।
इन्हीं सबके बीच सदन सर का लिखा मैं पढ़ने लगता हूं। वे मुझे अंचल की सांस्कृतिक स्मृति के करीब ले जाकर खेत में अकेले छोड़ देते हैं..और मैं खुद से बातें करना लगता हूं। पूर्णिया जिले की नदियां..गांव में लगने वाले हाट – बाजार ..मैं इन सबमें दिल बहलाने लगता हूं..इन सबमें संगीत खोजने लगता हूं। खेती बारी से इतर जीवन को इस नजर से भी देखने जुट जाता हूं। शहर और गांव की आंखें मुझे अपनी ओर खींचने लगती है। परेशानी के वक्त मैं सदन सर के शोधपरक काम डाकवचन पढ़ने लगता हूं। जहां भी गूगल के जरिए उनका लिखा मिलता है, पढ़ने लगता हूं। मन थोड़ा हल्का हो जाता है।
गाम-घर करते हुए अचानक हमारे बीच राजशेखर आ जाते हैं, जिनका लिखा एक गीत मेरे मन में बस चुका है। तनु वेड्स मनु का गीत जब सुना तो लगा कि यह आदमी तो दुख को भी सूफी कर देगा। वो जब भी मिलेंगे तो मैं उनसे एक सवाल जरुर करूंगा कि आपने ये कैसे लिख दिया- “नैहर पीहर का आंगन रंग..नींदे रंग दे..करवट भी रंग....” राजशेखर से मैं जरुर मिलूंगा..बहुत सवाल करुंगा..उन्हें अपने गाम ले जाउंगा और उन्हें बस बोलते हुए सुनता रह जाउंगा...
देखिए न इतना कुछ लिखते लिखते मन मेरा भर आया है। मेरे यार-दोस्त बोलते हैं कि मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हूं, अरे, मैं क्या करूं, अक्सर कई चीजें मुझे हैरान कर देती है और मैं बह जाता हूं। अभी बस इतना ही। गुलजार के शब्दों के पास जा रहा हूं और बुदबुदाता हूं कि गिरा दो पर्दा कि दास्तां खाली हो गई है...
पीयूष मिश्रा की आवाज मेरे लिए एंटीबायोटिक का काम करती आई है। जब खूब परेशान होता जाता हूं या कुछ सूझते नहीं बनता है तो इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ सुनने लगात हूं। जब वह कहते हैं कि हम चाँद पे, रोटी की चादर डाल के सो जाएँगे..और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आएँगे..तो मुझे शांति मिल जाती है। सब आपाधापी छू मंतर :)
ठीक ऐसी ही अनुभूति रवीश कुमार की पुरानी रपटों में मुझे होता है। मैं यूट्यूब पर रवीश की रिपोर्ट खंगालने लगता हूं। मैं अक्सर जब परेशांन होता हूं तो शुक्रवार, 7 जनवरी 2011 को एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम रवीश की रिपोर्ट देखने लगता हूं। इस रिपोर्ट का नाम था - भूख पर लगी धारा 144...। रवीश के साथ सहबा फारुकी थीं, जो कहानी के भीतर कहानी की रेसे को अलग कर रही थीं। सच कहूं तो इसी रपट से जान सका कि कोई दो रुपये के लिए भी आठ घंटा काम कर सकता है। मुझे अपना दर्द कम लगने लगता है। मैं खुद से बातें करना लगता हूं। रवीश मुझे कभी कभी गाम के कबिराहा मठ के अखड्ड बूढ़े की तरह लगने लगते हैं। जो हर बात बिना लाग लपेट से कह देता है और फिर निकल पड़ता है..आगे..खूब आगे।
इन्हीं सबके बीच सदन सर का लिखा मैं पढ़ने लगता हूं। वे मुझे अंचल की सांस्कृतिक स्मृति के करीब ले जाकर खेत में अकेले छोड़ देते हैं..और मैं खुद से बातें करना लगता हूं। पूर्णिया जिले की नदियां..गांव में लगने वाले हाट – बाजार ..मैं इन सबमें दिल बहलाने लगता हूं..इन सबमें संगीत खोजने लगता हूं। खेती बारी से इतर जीवन को इस नजर से भी देखने जुट जाता हूं। शहर और गांव की आंखें मुझे अपनी ओर खींचने लगती है। परेशानी के वक्त मैं सदन सर के शोधपरक काम डाकवचन पढ़ने लगता हूं। जहां भी गूगल के जरिए उनका लिखा मिलता है, पढ़ने लगता हूं। मन थोड़ा हल्का हो जाता है।
गाम-घर करते हुए अचानक हमारे बीच राजशेखर आ जाते हैं, जिनका लिखा एक गीत मेरे मन में बस चुका है। तनु वेड्स मनु का गीत जब सुना तो लगा कि यह आदमी तो दुख को भी सूफी कर देगा। वो जब भी मिलेंगे तो मैं उनसे एक सवाल जरुर करूंगा कि आपने ये कैसे लिख दिया- “नैहर पीहर का आंगन रंग..नींदे रंग दे..करवट भी रंग....” राजशेखर से मैं जरुर मिलूंगा..बहुत सवाल करुंगा..उन्हें अपने गाम ले जाउंगा और उन्हें बस बोलते हुए सुनता रह जाउंगा...
देखिए न इतना कुछ लिखते लिखते मन मेरा भर आया है। मेरे यार-दोस्त बोलते हैं कि मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हूं, अरे, मैं क्या करूं, अक्सर कई चीजें मुझे हैरान कर देती है और मैं बह जाता हूं। अभी बस इतना ही। गुलजार के शब्दों के पास जा रहा हूं और बुदबुदाता हूं कि गिरा दो पर्दा कि दास्तां खाली हो गई है...
2 comments:
भैया क्या बतलाऊ जैसे जैसे आपका पोस्ट पढता जा रहा हूँ बस और भी आपको महसूस करता जा रहा हूँ. पियूष जी, राजशेखर भैया और रविश जी तो सच में डिस्प्रिन की तरह हैं मेरे लिए भी.. हद से ज्यादा आतुर हूँ आपसे मिलने के लिए.. बहुत जल्द मिलूँगा
ये लेख और लोगो के लिए prescription ही है। बढ़िया।
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