मुझे गाम में दोपहर के वक़्त ख़ाली समय में हवा में लंबे गाछ- वृक्ष को निहारना सबसे अच्छा लगता है। ख़ासकर तब जब अकेले हों आप।
अकेलेपन में हवा से भी हम कुछ बातें कर लेते हैं। इन दिनों गाम की दोपहर हमें काफ़ी कुछ सीखा रही है। नारियल के पुराने गाछ को जब भी हवा में झूमते देखता हूं तो बचपन याद आ जाता है।
स्मृति यही है, हरी -हरी दूब की तरह। स्मृति के ज़रिए ही हम जीना भी सीखते हैं। इस वक़्त अपने हाते में टहलते हुए नारियल के फल से लदा पेड़ मुझे खींच रहा अपनी तरह। मानो सातवीं क्लास के कामेश्वर मास्टर साब कह रहे हों कि ' फल विनम्र बनाता है, फल से लदे गाछ को देखो, और फिर सोचो। भार सहना सीखना चाहिए....'
नारियल का यह गाछ मेरे हाते का सबसे पुराना सदस्य है। लगभग सौ साल पुराना। बूढ़ा हो चला है लेकिन अब भी मुस्कुराता रहता है। इस उम्र में भी १५-२० फल तो दे ही देता है और साथ ही जाने कितनी चिड़ियाँ इसके आसपास घूमती रहती है। कुछ ने तो अपना बसेरा इसके सिर पर बना रखा है लेकिन उस भार को भी यह विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता है।
इस दूपहरिया में बाबूजी की याद आ रही है। नारियल के पेड़ से उन्हें अजीब तरह का लगाव था। उन्होंने सौ से अधिक नारियल के पेड़ लगाए थे।
बाबूजी कहते थे कि नारियल के गाछ से चिड़ियों को सबसे अधिक स्नेह होता है, ख़ासकर तोता और बगड़ा पक्षी का। इस प्रजाति की चिड़ियाँ इस पेड़ पर सुरक्षित महसूस करती है।
आज जब छत पर धूप सेकते हुए चुपचाप देहाती दुनिया की इन बातों को टाइप कर रहा हूं तो लगता है कि यहीं बग़ल में काठ की कुर्सी पर सफ़ेद धोती और कोठारी के मटमेले बांह वाली गंजी में बाबूजी बैठे हैं और अंचल की कहानी मुझे नारियल के इस पुराने पेड़ के बहाने सुना रहे हैं।
हवा में झूलते इस बूढ़े नारियल गाछ से स्नेह दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है। साल २०१५ की अप्रैल में जब आँधी में दर्जनों पेड़ गिर पड़े थे तब भी यह यूँ ही झूम रहा था। संघर्ष करने की सीख हम सभी को यह देता रहा है। किसानी करते हुए लड़ने की आदत हम पेड़-पौधों से सीखते हैं। बे-मौसम बरखा हो या फिर आँधी- तूफ़ान, हमें अन्न उपजाने के लिए लड़ाई लड़नी ही होती है, तो फिर डर कैसा!
अकेलेपन में हवा से भी हम कुछ बातें कर लेते हैं। इन दिनों गाम की दोपहर हमें काफ़ी कुछ सीखा रही है। नारियल के पुराने गाछ को जब भी हवा में झूमते देखता हूं तो बचपन याद आ जाता है।
स्मृति यही है, हरी -हरी दूब की तरह। स्मृति के ज़रिए ही हम जीना भी सीखते हैं। इस वक़्त अपने हाते में टहलते हुए नारियल के फल से लदा पेड़ मुझे खींच रहा अपनी तरह। मानो सातवीं क्लास के कामेश्वर मास्टर साब कह रहे हों कि ' फल विनम्र बनाता है, फल से लदे गाछ को देखो, और फिर सोचो। भार सहना सीखना चाहिए....'
नारियल का यह गाछ मेरे हाते का सबसे पुराना सदस्य है। लगभग सौ साल पुराना। बूढ़ा हो चला है लेकिन अब भी मुस्कुराता रहता है। इस उम्र में भी १५-२० फल तो दे ही देता है और साथ ही जाने कितनी चिड़ियाँ इसके आसपास घूमती रहती है। कुछ ने तो अपना बसेरा इसके सिर पर बना रखा है लेकिन उस भार को भी यह विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता है।
इस दूपहरिया में बाबूजी की याद आ रही है। नारियल के पेड़ से उन्हें अजीब तरह का लगाव था। उन्होंने सौ से अधिक नारियल के पेड़ लगाए थे।
बाबूजी कहते थे कि नारियल के गाछ से चिड़ियों को सबसे अधिक स्नेह होता है, ख़ासकर तोता और बगड़ा पक्षी का। इस प्रजाति की चिड़ियाँ इस पेड़ पर सुरक्षित महसूस करती है।
आज जब छत पर धूप सेकते हुए चुपचाप देहाती दुनिया की इन बातों को टाइप कर रहा हूं तो लगता है कि यहीं बग़ल में काठ की कुर्सी पर सफ़ेद धोती और कोठारी के मटमेले बांह वाली गंजी में बाबूजी बैठे हैं और अंचल की कहानी मुझे नारियल के इस पुराने पेड़ के बहाने सुना रहे हैं।
हवा में झूलते इस बूढ़े नारियल गाछ से स्नेह दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है। साल २०१५ की अप्रैल में जब आँधी में दर्जनों पेड़ गिर पड़े थे तब भी यह यूँ ही झूम रहा था। संघर्ष करने की सीख हम सभी को यह देता रहा है। किसानी करते हुए लड़ने की आदत हम पेड़-पौधों से सीखते हैं। बे-मौसम बरखा हो या फिर आँधी- तूफ़ान, हमें अन्न उपजाने के लिए लड़ाई लड़नी ही होती है, तो फिर डर कैसा!
2 comments:
शानदार रचना है सर कृपया मेरे इस ब्लॉग Indihealth पर भी पधारे
धन्यवाद ।
Seetamni. blogspot. in
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